"मैं और मामा ऊलाला वाले अंकल से मिलने जा रहे हैं", नसीरुद्दीन शाह के बारे में बताने का ये सबसे आसान परिचय सूझा है। ग्यारह बजे मिलना तय हुआ है नसीरुद्दीन शाह से, और हम जानते तक नहीं कि बातचीत शुरू कैसे करेंगे। हमें अपने कॉन्सेप्ट पर भरोसा है, और भरोसा हर तलाश को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाता है, ऐसा अपने मने की सारी सेल्फ-हेल्प किताबें कहती हैं। ये भरोसा कितना काम आया, इसके बारे में पांच साल बाद लिख पाऊंगी। बहरहाल, ठीक दस सत्तावन पर हम घर से निकलते हैं और तीन मिनट में क़रीब-क़रीब दौड़ते हुए नसीरुद्दीन शाह की बिल्डिंग के सामने जा पहुंचते हैं।
एक बेहद साधारण सेट-अप वाले ड्राईंग रूम में घुसते ही कोने में बड़ी-सी खिड़की से लगकर खड़ी एक मेज़ और दो कुर्सियां हैं। मेज़ पर अपनी सिगरेट की डिब्बी और ऐशट्रे, और एक साधारण से मोबाइल फोन के साथ नसीर साब किसी इंटरव्यू के बीच हैं। हमें घुसते देखकर उठकर आए हैं। एसएमएस पर मिले अप्वाइंटमेंट की जाने क्या अहमियत होती होगी? बावजूद इसके उन्होंने हमें बैठने को कहा है और वापस अपने इंटरव्यू की ओर लौट जाते हैं।
पत्रकार छह-आठ शब्दों में सवाल पूछती है, बातचीत मंटो के बारे में है और ये अंग्रेज़ीदां महिला मंटो का नाम भी सही तरीके से नहीं बोल पाती, सवालों की तो बात ही ना पूछिए। बिना सब्र खोए नसीर मंटो के बारे में धाराप्रवाह बोलते जा रहे हैं। कहते हैं, मैं आज़ादी के ठीक बाद पैदा हुआ, अंग्रेज ही हो गया होता अगर उर्दू साहित्य ना पढ़ा होता। इस्मत आपा, मंटो, कृश्न चंदर, कुर्तुल-ऐन-हैदर जैसे अफ़सानानिगारों की बात करते हुए नसीर लगातार रिपोर्टर के चेहरे की ओर देख रहे हैं, जिसके चेहरे पर कोई भाव नहीं। वो अपनी घिसी हुई पेंसिल से जाने कागज पर घिसे जा रही है। मैं सोचती हूं, इसने किसी एक लेखक को पढ़ा भी होगा, लगता नहीं। बातचीत का सिरा तोड़ते हुए वो फिर टूटे-फूटे शब्दों में नसीर के थिएटर के इन्सपिरेशन के बारे में कुछ पूछती है। सामने सोफे भाई मेरी ओर इशारा करता है, फोन देखो अपना। मेरे फोन में उसी का एसएमएस है, "किस पब्लिकेशन से आई है? कैसे बेहूदे सवाल पूछ रही है।"
इंटरव्यू खत्म हो गया है और नसीर साब अब हमारे पास आकर बैठ गए हैं। मैं और भाई दस सेकेंड के लिए चुप हैं, फिर वो जल्दी से अपना परिचय देता है। बिना किसी भूमिका के वो प्रेजेन्टेशन दिखाने लगता है जो हम नसीर साब के लिए बनाकर लाए हैं। हम चुप हैं, लैपटॉप के स्पीकर पर भाई का वॉयसओवर और मेरे लिखे हुए शब्द गूंज रहे हैं। प्रेज़ेन्टेशन खत्म हो गया है। "लेकिन मैं टीवी नहीं करता", ये उन्होंने पहली बात कही है। "बट इट्स अ डिफरेंट कॉन्सेप्ट। डू यू हैव समथिंग एल्स टू शो?" इतना कहना हमारी हौसलाअफ़्ज़ाई के लिए बहुत है। बंटी लैपटॉप छान मारता है, पायलट तो हम घर पर छोड़ आए हैं। "मैं बगल में रहता हूं, अभी लेकर आता हूं", कहकर वो निकल गया है। नसीर तब भी सब्र नहीं खोते। एक सिगरेट जला लेते हैं, बस। अब कमरे में हम दोनों हैं। चुप रहने से अच्छा है, हम कुछ बात करें।
"दरअसल बात मेन्स मेन्टैलिटी की नहीं है। हम जिस सभ्य समाज के वाशिंदे कहते हैं खुद को, वो साठ-सत्तर सालों के बाद भी मंटो का लिखा हुआ स्वीकार नहीं कर पाता।" मैं अचानक बोल पड़ती हूं।
मेन्स मेन्टैलिटी की बात मैंने उनके इंटरव्यू में बताए गए एक किस्से के संदर्भ में कही है।
"यू आर राईट, इट्स नॉट द मेन्स मेन्टैलिटी। इट्स मच मच मोर दैन दैट। मंटो पढ़ी है आपने?"
"जी। अठारह साल की थी तब पहली बार मंटो से वास्ता पड़ा। मेरे हाथ में मंटो की कहानियों का संग्रह देखकर एक आंटी ने कहा था, मंटो ही पढ़ती हो या कुछ और भी? जैसे मैंने पॉर्न किताब रखी थी हाथ में पढ़ने के लिए," मैं बताती हूं।
"उन्होंने ज़रूर बिना पढ़े कह दिया होगा ऐसा। उर्दू में पढ़ा या अंग्रेज़ी में?"
"जी, हिंदी मेँ। मेरा मतलब है देवनागरी लिपि में उर्दू-हिंदी शब्दकोश के सहारे। लेकिन कितने लोग होंगे आपके दर्शकों में जो मंटो को प्रासंगिक मानते होंगे? आपके ये नाटक मनोरंजन तो करते नहीं, कितने गहरे अन्कम्फर्टेबल सवाल किया करते हैं? कौन सुनना चाहता है ऐसे सवाल?"
"लेकिन आर्टिस्ट की कोई तो ज़िम्मेदारी होगी। मंटों की कहानियों का मंचन आसान नहीं। इस्मत आपा की कहानियां मंच पर लाना थोड़ी आसान थीं। आपने देखे हैं वो नाटक?"
"जी, पृथ्वी में। २००२ में शायद। मुझे हीबा की कही हुई कहानी छुईमुई भूलती नहीं। और घरवाली तो आपने एनैक्ट किया था। लहंगा बांधकर झाडू लगाने के लिए आंगन में उतरी घरवाली का वही डेपिक्शन याद है मुझे।"
(मैं मन ही मन सोच रही हूं कि उस रिपोर्टर से ज़्यादा बेहतर सवाल मैं भी नहीं पूछ रही। फिर तसल्ली दिलाती हूं खुद को, मैं इंटरव्यू नहीं ले रही, नसीर के ड्राईंग रूम में बैठकर बात कर रही हूं उनसे। फिर अचानक बात करना आसान लगने लगता है।)
"जानती हैं इस्मत आपा की भाषा में एक कम्पैशन होता है। वो डोमेस्टिक वायलेंस की बात भी इतनी आसानी से करती हैं दैट यू डोन्ट क्रिंज। और कौन-कौन सी कहानियां पढ़ी हैं आपने इस्मत चुग़ताई की?"
"लिहाफ, और नसीर साब, चाइल्ड सेक्सुअल एब्युज़ जैसे मुद्दे पर इतनी आसानी से लिखना किसी के बस की बात नहीं थी।"
"हां, लेकिन लोगों को लगता है कि लिहाफ लेस्बियनिज़्म पर लिखी गई कहानी है। वेरी फ्यू पीपल अन्डरस्टूड द स्टोरी। इस्मत ने कुछ लिखा नहीं है, कुछ भी एक्सप्लिसिट नहीं है, लेकिन इतने परिष्कृत तरीके से इतनी गहन बात लिखना उन्हीं के बस का था। डू यू रिमेम्बर द लास्ट सेंटेंस? मुझे कोई एक लाख रुपए भी देता तो उस लिहाफ के भीतर मैंने क्या देखा, ये मैं किसी को ना बताती।"
"जानते हैं नसीर साब, मैं अक्सर क्या कहती हूं? भले घर की बहू-बेटियां ऐसी कहानियां ना पढ़ती हूं ना सुनती हैं। ओबसिन मंटो की ओबसिन कहानियां पढ़कर अपनी रीडिंग लिस्ट क्यों खराब करना?"
"कमाल है नहीं, कि हम अभी भी मंटो को लेकर इतने सारे पूर्वाग्रह पालकर चलते हैं। लेकिन अश्लील कहां हैं मंटो?"
"मंटो अश्लील हैं, एमटीवी नहीं। मंटो अश्लील हैं तो जाने श्लील क्या है। समाज अपने मानक तय कर लिया करता है और उन्हीं पैरामीटर्स के हिसाब से सोचने-चलने वाला समझदार कहा जाता है। वरना किसी आर्टिस्ट को मानसिक रूप से अस्वस्थ करार देना सबसे आसान होता है। क्यों ना हो, वो आपके सामने अप्रिय सवाल जो रखता है, आपको आईना दिखाने का काम जो करता है। सबकुछ कालीन के नीचे बुहारकर छुपा देना सभ्य समाज की फितरत है।"
"इसी सभ्य समाज ने मंटो को मेन्टल असाईलम भेजने पर मजबूर किया। जानती हैं आप, मंटो तीन बार पागलखाने गए थे, इसलिए नहीं क्योंकि पागल थे। बल्कि इसलिए कि उन्हें शराब पीने की बुरी लत थी। मैं पाकिस्तान में मिला मंटो की बेटी से। उनसे मंटो की कहानियों के मंचन के लिए इजाज़त चाहता था। उन्होंने कहा कि एक तस्वीर दिखाती हूं आपको। इसके बाद आप ज़रूर करेंगे मंटो की कहानियों का मंचन। उन्होंने मुझे असाईलम के उस कमरे की तस्वीर दिखाई जहां बैठकर मंटो ने टोबा टेक सिंह लिखा था। कितनी तकलीफ़ होगी उस आदमी में, कितना दर्द। मंटो की कहानियों में बॉरोड पेन (मांगा हुआ दर्द) नहीं है। ये सारे दर्द उन्होंने खुद जिए और लिखा उसके बारे मेँ।"
"जो इतना संजीदा हो, इतने ग़म लिए चलता हो, अपने आंख-कान और दिमाग बंद करके नहीं रखता हो, चापलूसी और बेईमानी जिसकी फ़ितरत ना हो, फाकाकशी से जिसे डर ना लगता हो और ना अपने आस-पास की गंदगी को उसी ईमानदारी और साफगोई के साथ लिख डालता हो वो अपने आप को पागल होने से बचाए रखने के लिए कुछ तो करेगा। मंटो शराब पीते-पीते पागलखाने पहुंचे, ना भी पीते तो भी पागल हो जाते। अच्छा नसीर जी, मैं ये सवाल अक्सर अपने दोस्तों से पूछती हूं और इसका ठीक-ठीक जवाब मुझे मिलता नहीं कहीं भी। आपसे भी पूछूंगी।
क्या ज़रूरी होता है, अच्छा इंसान होना या अच्छा आर्टिस्ट होना?"
"अच्छा आर्टिस्ट अच्छा इंसान होगा ही। अच्छाई के पैमाने कौन तय करेगा? शराब-सिगरेट पीने वाला बुरा हो जाता है और दूसरों को परेशान करने के सामान जुटानेवाला बुरा नहीं होता? ब्लैसफेमी क्या है, सेक्रोसैंक्ट क्या? ये कौन तय करेगा? इस्मत पर लिहाफ़ को लेकर अश्लील लेखन के लिए मुक़दमा चला। कोर्ट में जज ने कहा, मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी होती है जिसपर इस्मत आपा ने कहा, दुनिया में भी तो गजालत भरी होती है। जज ने कहा कि ज़रूरी है कि गलाजत को उछाला जाए। जानती हैं इसपर इस्मत आपा ने क्या है? उछालने से ही तो नज़र आता है और उसकी सफाई की ओर ध्यान जा सकता है। आर्टिस्ट का काम उसी गलाजत को उछालना होना चाहिए, ताकि समाज की सफाई की ओर ध्यान जा सके।"
याद रखूंगी ये बात नसीर साब। बच्चों को पढाऊंगी मंटो और इस्मत। हिम्मत रखूंगी कि गलाजत उछाल सकूं। अच्छे इंसान का लबादा ओढ़कर चलेगा नहीं, नहीं?
भाई लौट आया है, हम वापस काम की बातें करने लगे हैं। मैं सोच रही हूं कि बच्चों को जाकर बताऊंगी ऊलाला वाले अंकल आर्टिस्ट हैं और अगली पीढ़ियों के लिए भी आर्टिस्ट धर्म बचाए रखना जानते हैं। नसीर साब ने २९ अप्रैल के बाद और बातचीत का वायदा किया है। तब पूछूंगी कि बुल्लेशाह का संग्रह जो आपकी मेज़ पर था उसे अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए क्या किया जाए? आखिर कवि, लेखक, अभिनेता, पेंटर पैदाइशी ढीठ भी तो होता है जो हार नहीं मानता और दुनिया को बदल देने का दारोमदार अपने कंधों पर लिए चलता है। इस्मत ने हार नहीं मानी, मंटो ने नहीं मानी। नसीर भी नहीं मानें, शायद।
(और अगर आप मुंबई में हैं तो २२ तारीख से शिवाजी पार्क के वीर सावरकर स्मारक पर मोटले ग्रुप के नाटक देखने का वक्त निकालें। २९ अप्रैल तक नसीर और उनका थिएटर ग्रुप के सर्वश्रेष्ठ नाटकों का मंचन करेगा।)