शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

फूल ये कहां से आए हैं, बोलूं?

बिस्तर पर चित्त लेटते ही उनके सवालों का पिटारा खुल जाता है। कहानियों की फरमाईश होती है, गीतों के मुखड़े सो जाने के बदले मांगे जाते हैं रिश्वत में। मैं दिनभर की थकान मच्छरदानी की तरह बाहर टांगकर सुकून से सोना चाहती हूं, लेकिन दोनों तरफ से धाराप्रवाह सवाल ऊंघती आंखों पर पानी के ठंडे छींटे मारते हैं।

मौसम कैसे बदलता है? बारिश कहां से आती है? आपके बाबा कहां चले गए? मर जाना किसको कहते हैं? हम सपने कैसे देखते हैं? नींद में धड़कन कैसे चलती है? सोने के लिए आंखें बंद क्यों करनी पड़ती है? कबूतर के बच्चे अंडे से ही क्यों निकलते हैं? बिजली कहां से आती है? आटा कैसे बनता है? रोटी गोल ही क्यों होती है?

थककर मैं अपनी दोनों हथेलियों से उनके मुंह बंद कर देती हूं। अंधेरे में भी उनकी गोल-गोल आंखें सवाल करती नज़र आती हैं।

ये मेरी ज़िन्दगी का सबसे ख़ूबसूरत लम्हा होना चाहिए। मुझपर दो ज़िन्दगियों की जड़ें मज़बूत करने का दारोमदार है। मुझे चुना गया उस वरदान के लिए जिसके लिए कई-कई सालों तक लोग पीर-फकीरों के दरवाज़े चूमते हैं। फिर ये थकान क्यों? क्यों है बंध जाने की शिकायतें? किस बात का मलाल है? क्या नहीं जी पाने का अफ़सोस है?

मातृत्व बंधन लेकर आता है। आप कई फ़ैसले खुद से परे लेते हैं। कॉफी के मग में उडेलकर पी ली जानेवाली बेपरवाह शामें छिन जाया करती हैं, घड़ी की सुईयों की गुलामी बख्श दी जाती है और अपने कपड़ों की सिलवटों में बच्चों के स्कूल ड्रेस के आयरन ना होने की फिक्र दिखाई देती है। घर को कला संग्रहालय बनाने के ख्वाब को दीवारों की लिखे ककहरे में तब्दील करना होता है, सवालों के जवाब ढूंढने के लिए विकीपीडिया की भाषा को सरल बनाने का अतिरिक्त काम (बिना किसी इन्सेन्टिव के) भी करना होता है। घुमन्तू को पैरों के पहिए निकालकर रबर की चप्पलें डालनी होती हैं, और उनके घिस जाने की परवाह दिमाग के आखिरी कोने में ढकेलनी होती है।

ऐसा नहीं कि मैं भाग जाना नहीं चाहती। ऐसा नहीं कि पैरों पर पैर चढ़ाए एक के बाद एक कविताओं की किताबों के पन्ने पलेटने का मन नहीं होता। ऐसा भी नहीं कि शामें बच्चों के होमवर्क के नाम नहीं, एक तन्हा सफर के नाम करने की इच्छा नहीं होती। अपने वजूद का हिस्सा-हिस्सा बंटता है और अपनी क्षमताओं के कहीं आगे जाकर हर वो नामुमकिन काम करना सीखाता है मां बन जाना, जो आपको कोई और रोल नहीं सिखा सकता। कुक, मैनेजर, वकील, जज, टीचर, ड्राईवर, धोबी, आया - ऑल रोल्ड इनटू वन।

चलो सो जाते हैं कि कल भी एक दर्ज़न रोलप्ले करने हैं। वैसे ऊपरवाला ऊब जाता है तो मौसम बदल जाता है, बारिश एक निश्चित चक्र में चलती है, मेरे बाबा आसमान में सबसे ज्यादा चमकनेवाला सितारा बन गए,
मर जाना हमेशा के लिए सुकून में चले जाना होता है, सपने दिनभर मंडराया करते हैं हमारे आस-पास और रात को चुपके से आ जाते हैं आंखों में, नींद में धड़कन भी धीमी चलती है, आंखों को भी आराम चाहिए इसलिए बंद करनी होती है पलकें, कबूतर के बच्चों को अंडों का कवच चाहिए कुछ दिनों के लिए, बिजली का एक घर होता है जहां से तारों का सहारा लेकर हमारे घर आती है रौशनी, आटा गेहूं से बनता है और कल से तिकोनी रोटी खिलाऊंगी तुम लोगों को... कि आज की रात के लिए इतने जवाब काफी हैं।

जो फिर भी तसल्ली ना हो तो वो गाना सुन लो, जो मम्मा बचपन में सुना करती थी कभी-कभी चित्रहार में।

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

शहर में भीड़ तो होगी

बाहर मौसम अच्छा है और समंदर से होकर नारियल के पेड़ों से उलझती हुई हमारी खिड़कियों तक पहुंच रही है। मैं बाहर जाने के लिए बेचैन हूं, बच्चों को घुमाने के लिए ले जाना तो एक बहाना है।

"हम कहां जाएंगे?" आद्या कहीं जाने के लिए जल्दी तैयार नहीं होती। उसे भीड़ से उलझन होती है। मुझे भी होती है। आप सबको होती होगी।

"हम जॉगर्स पार्क नहीं जाएंगे", उसने मोर्चा खोल दिया है। मैं उसे नए प्ले एरिया में ले जाने का लालच देती हूं। आदित तब तक अपने कुछ ब्लॉक्स और खिलौने लेकर तैयार हो गया है।

"हम ये कहां ले जा रहे हैं?"

"कुछ नहीं मिला तो वहीं खेल लेंगे अपने खिलौनों से मम्मा।"

आई वुड वॉन्ट टू कॉल हिम ए प्रॉब्लम सॉल्वर, मैं मन ही मन सोचती हूं।

बाहर मेरे पहले आदित ऑटो रोकता है। कार्टर रोड, भैया। फिर मेरी ओर देखता है, "मैंने सही कहा ना मम्मा?"

हम घर से थोड़ी दूर निकल आए हैं। इस शहर में हर जगह बेतरह भीड़ होती है, प्ले एरिया में नहीं होगी, इसकी मुझे उम्मीद भी नहीं। बमुश्किल पचास फीट बाई पंद्रह फीट की जगह में बच्चे औऱ बड़े ओवरस्पिल हो रहे हैं। मेरे बच्चे हैरत से उस भीड़ को देखते हैं। आद्या आगे भी नहीं जाना चाहती। आदित ने खिलौनों का बैग मुझे पकड़ाया है और स्लाईड के लिए कतार में खड़ा हो गया है। एक के बाद एक मंकी लैडर है, सी-सॉ है, स्विंग्स हैं। आदित की देखा-देखी आद्या भी लाईन में लगकर एक-एक झूले झूलने लगी है। मैं आद्या-आदित के उस घर के बारे में सोच रही हूं जहां के लॉन में तीन सौ बच्चे खेलते हुए समा जाया करते हैं, जहां शाम को झूलों पर आद्या-आदित का एकछत्र आधिपत्य होता है। हम ज़िन्दगी में कैसे-कैसे विकल्प चुन लिया करते हैं, नहीं?

भीड़ में बने रहने के लिए मैं फिर भी इन्हें प्रोत्साहित करती हूं। इन बच्चों के लिए चांदी की थाल पर सजकर कोई सुख नहीं आएगा। इनके लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ेगा। यहीं, इसी दुनिया में, इन्हीं लोगों के बीच बने रहना है, खुद को बचाए रखना है। मेरा दम घुट रहा है, लेकिन फिर भी....

थोड़ी देर में दोनों भाई बहन प्ले एरिया के एक कोने में खड़े हो गए हैं।

"हम नीचे बैठ जाएं? मिट्टी में? हां, यहीं खेल लेंगे। आप हमें घर जाकर नहला देना।"

मैं घूमकर झूलों की ओर देखती हूं। ना, सब्र चूक चुका है। हम फिर से कतार में नहीं लग सकते, स्लाईड पर होने के लिए एक-दूसरे को धक्का देते हुए नहीं चढ़ सकते, मैं फिर इन्हें 'इंतज़ार कर लो' की नसीहत नहीं दे सकती।

मेरी हामी भरते ही दोनों धप्प से काली रेत पर बैठ गए हैं। क्रेन निकल आए हैं, ब्लॉक्स भी। आदित ऋषि बनकर इंद्रदेवता का आह्वान कर रहा है। आद्या मिट्टी का माधव बना रही है। मैंने थोड़ी देर के लिए इस ख़्याल को ज़ेहन से बाहर धकेल दिया है कि जाने कहां-कहां की चप्पलें इस रेत से गुज़री होंगी, जहां बड़े मज़े में बच्चे खेल रहे हैं। आख़िर डिटॉल किस मर्ज़ की दवा है? मैं ध्यान भटकाने के लिए चित्रा बनर्जी की 'वन अमेज़िंग थिंग' में आंखें घुसा देती हूं।

थोड़ी देर में दो बच्चे और आ गए हैं साथ में, "मम्मा देखो हमारे फ्रेन्ड्स"।

बच्चे भीड़ से अलग लैंप की रौशनी में अपने किले बना-बिगाड़ रहे हैं। मैं सोच रही हूं कि जब इन्होंने इन नए अनजाने क्षेत्र में अपनी जगह तय कर ली, तो मुझे किस चीज़ का डर सताता है हमेशा?

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

नसीर, इस्मत आपा, मंटो और आर्टिस्ट

"मैं और मामा ऊलाला वाले अंकल से मिलने जा रहे हैं", नसीरुद्दीन शाह के बारे में बताने का ये सबसे आसान परिचय सूझा है। ग्यारह बजे मिलना तय हुआ है नसीरुद्दीन शाह से, और हम जानते तक नहीं कि बातचीत शुरू कैसे करेंगे। हमें अपने कॉन्सेप्ट पर भरोसा है, और भरोसा हर तलाश को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाता है, ऐसा अपने मने की सारी सेल्फ-हेल्प किताबें कहती हैं। ये भरोसा कितना काम आया, इसके बारे में पांच साल बाद लिख पाऊंगी। बहरहाल, ठीक दस सत्तावन पर हम घर से निकलते हैं और तीन मिनट में क़रीब-क़रीब दौड़ते हुए नसीरुद्दीन शाह की बिल्डिंग के सामने जा पहुंचते हैं।

एक बेहद साधारण सेट-अप वाले ड्राईंग रूम में घुसते ही कोने में बड़ी-सी खिड़की से लगकर खड़ी एक मेज़ और दो कुर्सियां हैं। मेज़ पर अपनी सिगरेट की डिब्बी और ऐशट्रे, और एक साधारण से मोबाइल फोन के साथ नसीर साब किसी इंटरव्यू के बीच हैं। हमें घुसते देखकर उठकर आए हैं। एसएमएस पर मिले अप्वाइंटमेंट की जाने क्या अहमियत होती होगी? बावजूद इसके उन्होंने हमें बैठने को कहा है और वापस अपने इंटरव्यू की ओर लौट जाते हैं।

पत्रकार छह-आठ शब्दों में सवाल पूछती है, बातचीत मंटो के बारे में है और ये अंग्रेज़ीदां महिला मंटो का नाम भी सही तरीके से नहीं बोल पाती, सवालों की तो बात ही ना पूछिए। बिना सब्र खोए नसीर मंटो के बारे में धाराप्रवाह बोलते जा रहे हैं। कहते हैं, मैं आज़ादी के ठीक बाद पैदा हुआ, अंग्रेज ही हो गया होता अगर उर्दू साहित्य ना पढ़ा होता। इस्मत आपा, मंटो, कृश्न चंदर, कुर्तुल-ऐन-हैदर जैसे अफ़सानानिगारों की बात करते हुए नसीर लगातार रिपोर्टर के चेहरे की ओर देख रहे हैं, जिसके चेहरे पर कोई भाव नहीं। वो अपनी घिसी हुई पेंसिल से जाने कागज पर घिसे जा रही है। मैं सोचती हूं, इसने किसी एक लेखक को पढ़ा भी होगा, लगता नहीं। बातचीत का सिरा तोड़ते हुए वो फिर टूटे-फूटे शब्दों में नसीर के थिएटर के इन्सपिरेशन के बारे में कुछ पूछती है। सामने सोफे भाई मेरी ओर इशारा करता है, फोन देखो अपना। मेरे फोन में उसी का एसएमएस है, "किस पब्लिकेशन से आई है? कैसे बेहूदे सवाल पूछ रही है।"

इंटरव्यू खत्म हो गया है और नसीर साब अब हमारे पास आकर बैठ गए हैं। मैं और भाई दस सेकेंड के लिए चुप हैं, फिर वो जल्दी से अपना परिचय देता है। बिना किसी भूमिका के वो प्रेजेन्टेशन दिखाने लगता है जो हम नसीर साब के लिए बनाकर लाए हैं। हम चुप हैं, लैपटॉप के स्पीकर पर भाई का वॉयसओवर और मेरे लिखे हुए शब्द गूंज रहे हैं। प्रेज़ेन्टेशन खत्म हो गया है। "लेकिन मैं टीवी नहीं करता", ये उन्होंने पहली बात कही है। "बट इट्स अ डिफरेंट कॉन्सेप्ट। डू यू हैव समथिंग एल्स टू शो?" इतना कहना हमारी हौसलाअफ़्ज़ाई के लिए बहुत है। बंटी लैपटॉप छान मारता है, पायलट तो हम घर पर छोड़ आए हैं। "मैं बगल में रहता हूं, अभी लेकर आता हूं", कहकर वो निकल गया है। नसीर तब भी सब्र नहीं खोते। एक सिगरेट जला लेते हैं, बस। अब कमरे में हम दोनों हैं। चुप रहने से अच्छा है, हम कुछ बात करें।

"दरअसल बात मेन्स मेन्टैलिटी की नहीं है। हम जिस सभ्य समाज के वाशिंदे कहते हैं खुद को, वो साठ-सत्तर सालों के बाद भी मंटो का लिखा हुआ स्वीकार नहीं कर पाता।" मैं अचानक बोल पड़ती हूं।

मेन्स मेन्टैलिटी की बात मैंने उनके इंटरव्यू में बताए गए एक किस्से के संदर्भ में कही है।

"यू आर राईट, इट्स नॉट द मेन्स मेन्टैलिटी। इट्स मच मच मोर दैन दैट। मंटो पढ़ी है आपने?"

"जी। अठारह साल की थी तब पहली बार मंटो से वास्ता पड़ा। मेरे हाथ में मंटो की कहानियों का संग्रह देखकर एक आंटी ने कहा था, मंटो ही पढ़ती हो या कुछ और भी? जैसे मैंने पॉर्न किताब रखी थी हाथ में पढ़ने के लिए," मैं बताती हूं।

"उन्होंने ज़रूर बिना पढ़े कह दिया होगा ऐसा। उर्दू में पढ़ा या अंग्रेज़ी में?"

"जी, हिंदी मेँ। मेरा मतलब है देवनागरी लिपि में उर्दू-हिंदी शब्दकोश के सहारे। लेकिन कितने लोग होंगे आपके दर्शकों में जो मंटो को प्रासंगिक मानते होंगे? आपके ये नाटक मनोरंजन तो करते नहीं, कितने गहरे अन्कम्फर्टेबल सवाल किया करते हैं? कौन सुनना चाहता है ऐसे सवाल?"

"लेकिन आर्टिस्ट की कोई तो ज़िम्मेदारी होगी। मंटों की कहानियों का मंचन आसान नहीं। इस्मत आपा की कहानियां मंच पर लाना थोड़ी आसान थीं। आपने देखे हैं वो नाटक?"

"जी, पृथ्वी में। २००२ में शायद। मुझे हीबा की कही हुई कहानी छुईमुई भूलती नहीं। और घरवाली तो आपने एनैक्ट किया था। लहंगा बांधकर झाडू लगाने के लिए आंगन में उतरी घरवाली का वही डेपिक्शन याद है मुझे।"

(मैं मन ही मन सोच रही हूं कि उस रिपोर्टर से ज़्यादा बेहतर सवाल मैं भी नहीं पूछ रही। फिर तसल्ली दिलाती हूं खुद को, मैं इंटरव्यू नहीं ले रही, नसीर के ड्राईंग रूम में बैठकर बात कर रही हूं उनसे। फिर अचानक बात करना आसान लगने लगता है।)

"जानती हैं इस्मत आपा की भाषा में एक कम्पैशन होता है। वो डोमेस्टिक वायलेंस की बात भी इतनी आसानी से करती हैं दैट यू डोन्ट क्रिंज। और कौन-कौन सी कहानियां पढ़ी हैं आपने इस्मत चुग़ताई की?"

"लिहाफ, और नसीर साब, चाइल्ड सेक्सुअल एब्युज़ जैसे मुद्दे पर इतनी आसानी से लिखना किसी के बस की बात नहीं थी।"

"हां, लेकिन लोगों को लगता है कि लिहाफ लेस्बियनिज़्म पर लिखी गई कहानी है। वेरी फ्यू पीपल अन्डरस्टूड द स्टोरी। इस्मत ने कुछ लिखा नहीं है, कुछ भी एक्सप्लिसिट नहीं है, लेकिन इतने परिष्कृत तरीके से इतनी गहन बात लिखना उन्हीं के बस का था। डू यू रिमेम्बर द लास्ट सेंटेंस? मुझे कोई एक लाख रुपए भी देता तो उस लिहाफ के भीतर मैंने क्या देखा, ये मैं किसी को ना बताती।"

"जानते हैं नसीर साब, मैं अक्सर क्या कहती हूं? भले घर की बहू-बेटियां ऐसी कहानियां ना पढ़ती हूं ना सुनती हैं। ओबसिन मंटो की ओबसिन कहानियां पढ़कर अपनी रीडिंग लिस्ट क्यों खराब करना?"

"कमाल है नहीं, कि हम अभी भी मंटो को लेकर इतने सारे पूर्वाग्रह पालकर चलते हैं। लेकिन अश्लील कहां हैं मंटो?"

"मंटो अश्लील हैं, एमटीवी नहीं। मंटो अश्लील हैं तो जाने श्लील क्या है। समाज अपने मानक तय कर लिया करता है और उन्हीं पैरामीटर्स के हिसाब से सोचने-चलने वाला समझदार कहा जाता है। वरना किसी आर्टिस्ट को मानसिक रूप से अस्वस्थ करार देना सबसे आसान होता है। क्यों ना हो, वो आपके सामने अप्रिय सवाल जो रखता है, आपको आईना दिखाने का काम जो करता है। सबकुछ कालीन के नीचे बुहारकर छुपा देना सभ्य समाज की फितरत है।"

"इसी सभ्य समाज ने मंटो को मेन्टल असाईलम भेजने पर मजबूर किया। जानती हैं आप, मंटो तीन बार पागलखाने गए थे, इसलिए नहीं क्योंकि पागल थे। बल्कि इसलिए कि उन्हें शराब पीने की बुरी लत थी। मैं पाकिस्तान में मिला मंटो की बेटी से। उनसे मंटो की कहानियों के मंचन के लिए इजाज़त चाहता था। उन्होंने कहा कि एक तस्वीर दिखाती हूं आपको। इसके बाद आप ज़रूर करेंगे मंटो की कहानियों का मंचन। उन्होंने मुझे असाईलम के उस कमरे की तस्वीर दिखाई जहां बैठकर मंटो ने टोबा टेक सिंह लिखा था। कितनी तकलीफ़ होगी उस आदमी में, कितना दर्द। मंटो की कहानियों में बॉरोड पेन (मांगा हुआ दर्द) नहीं है। ये सारे दर्द उन्होंने खुद जिए और लिखा उसके बारे मेँ।"

"जो इतना संजीदा हो, इतने ग़म लिए चलता हो, अपने आंख-कान और दिमाग बंद करके नहीं रखता हो, चापलूसी और बेईमानी जिसकी फ़ितरत ना हो, फाकाकशी से जिसे डर ना लगता हो और ना अपने आस-पास की गंदगी को उसी ईमानदारी और साफगोई के साथ लिख डालता हो वो अपने आप को पागल होने से बचाए रखने के लिए कुछ तो करेगा। मंटो शराब पीते-पीते पागलखाने पहुंचे, ना भी पीते तो भी पागल हो जाते। अच्छा नसीर जी, मैं ये सवाल अक्सर अपने दोस्तों से पूछती हूं और इसका ठीक-ठीक जवाब मुझे मिलता नहीं कहीं भी। आपसे भी पूछूंगी। क्या ज़रूरी होता है, अच्छा इंसान होना या अच्छा आर्टिस्ट होना?"

"अच्छा आर्टिस्ट अच्छा इंसान होगा ही। अच्छाई के पैमाने कौन तय करेगा? शराब-सिगरेट पीने वाला बुरा हो जाता है और दूसरों को परेशान करने के सामान जुटानेवाला बुरा नहीं होता? ब्लैसफेमी क्या है, सेक्रोसैंक्ट क्या? ये कौन तय करेगा? इस्मत पर लिहाफ़ को लेकर अश्लील लेखन के लिए मुक़दमा चला। कोर्ट में जज ने कहा, मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी होती है जिसपर इस्मत आपा ने कहा, दुनिया में भी तो गजालत भरी होती है। जज ने कहा कि ज़रूरी है कि गलाजत को उछाला जाए। जानती हैं इसपर इस्मत आपा ने क्या है? उछालने से ही तो नज़र आता है और उसकी सफाई की ओर ध्यान जा सकता है। आर्टिस्ट का काम उसी गलाजत को उछालना होना चाहिए, ताकि समाज की सफाई की ओर ध्यान जा सके।"

याद रखूंगी ये बात नसीर साब। बच्चों को पढाऊंगी मंटो और इस्मत। हिम्मत रखूंगी कि गलाजत उछाल सकूं। अच्छे इंसान का लबादा ओढ़कर चलेगा नहीं, नहीं?

भाई लौट आया है, हम वापस काम की बातें करने लगे हैं। मैं सोच रही हूं कि बच्चों को जाकर बताऊंगी ऊलाला वाले अंकल आर्टिस्ट हैं और अगली पीढ़ियों के लिए भी आर्टिस्ट धर्म बचाए रखना जानते हैं। नसीर साब ने २९ अप्रैल के बाद और बातचीत का वायदा किया है। तब पूछूंगी कि बुल्लेशाह का संग्रह जो आपकी मेज़ पर था उसे अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने के लिए क्या किया जाए? आखिर कवि, लेखक, अभिनेता, पेंटर पैदाइशी ढीठ भी तो होता है जो हार नहीं मानता और दुनिया को बदल देने का दारोमदार अपने कंधों पर लिए चलता है। इस्मत ने हार नहीं मानी, मंटो ने नहीं मानी। नसीर भी नहीं मानें, शायद।

(और अगर आप मुंबई में हैं तो २२ तारीख से शिवाजी पार्क के वीर सावरकर स्मारक पर मोटले ग्रुप के नाटक देखने का वक्त निकालें। २९ अप्रैल तक नसीर और उनका थिएटर ग्रुप के सर्वश्रेष्ठ नाटकों का मंचन करेगा।) 






मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

हल्के हल्के ज़मीं पे वो मिटते निशां

मैं इस शहर को ऐसे देखती हूं जैसे कोई टूरिस्ट नई जगह पर आया हो। सैर-सपाटे, खुशी के चंद लम्हे बटोरने और खुद को तरोताज़ा करने के मकसद से। टूरिस्ट से उस शहर का रिश्ता ट्रेन में मिलनेवाले हसीन हमसफ़र सा होता है। उसको उस शहर की धड़कनें नहीं सुनाई देती, उसकी दुखती रग नहीं दिखती, शहर की दुख-तकलीफों को नज़रअंदाज़ करना और उसमें खलल ना डालना ही टूरिस्ट धर्म होता है। अपनी याद में एक अजनबी शहर को कसक सा बचाए रखना ही टूरिस्ट धर्म होता है।

बार-बार लौटकर आने के बाद भी मुंबई से मेरा रिश्ता कुछ ऐसा ही है। मैं टैक्सी की बंद खिड़कियों के पीछे से शहर को टूरिस्ट की हैरतभरी निगाहों से देखती हूं। मेरे लिए मुंबई समंदर का किनारा है, दाबेली और सेबपूरी है, कार्टर रोड पर मॉर्निंग वॉक है, उस वॉक के दौरान दिख जानेवाले सेलेब्रिटी चेहरे हैं, और हैं कुछ पुराने दोस्त जो अपनी तमाम मसरूफ़ियत के बावजूद आपके लिए वक्त निकाल ही लिया करते हैं। इसलिए मुझे इस शहर से इतनी मोहब्बत है।

इसी शहर में रहते हैं डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी। डॉक्टर द्विवेदी कौन हैं, ये मैं आपको क्या बताऊं? उन्हें कैसे जानती हूं, इस बात का भी मेरे पास कोई जवाब नहीं है। लेकिन डॉ द्विवेदी उन लोगों में से हैं जिन्होंने एक बार इस अजनबी शहर में मुझ अजनबी को फोन पर कहा था, मुंबई में कोई मदद चाहिए तो बताना।

कोई ऐसा भी कहता है क्या? सुना है कि मुंबई शहर में सिर्फ ज़ालिम कसाई बसते हैं। मुझे फरिश्ते क्यों मिलते हैं फिर?

डॉ द्विवेदी के ऑफिस के लिए निकली हूं ऐसे एक दिन जब शहर में ऑटोचालकों की हड़ताल है। जब शहर के एक लाख ऑटोवालों में से एक-चौथाई ने सड़कों पर ना उतरने की कसम खा ली हो तो उसका ख़ामियाज़ा हम जैसों को कैसे भुगतना पड़ेगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं। मैंने टैक्सी के लिए निकाले गए पैसों में दो सौ और जोड़ दिए हैं। जस्ट इन केस, टैक्सीवालों ने मीटर से ज्यादा मांग लिया तो। "भाई, लक्ष्मी एस्टेट जाना है।" मुम्बईया लहज़े में टैक्सीवाली कहता है, "आपको रास्ता मालूम है क्या मैडम।" "नहीं भैया, मैं तो नई हूं शहर मेँ।" "मैं भी नहीं जानता। बैठ जाओ। वडाला से आया मैडम। इधर का रोड नहीं मालूम। बैठो ना मैडम, अपन पूछ लेंगे ना कहीं उधर ही रास्ते मेँ।"

कह ही दिया होता, बैठ जाओ। घुमा ही दिया होता बैंड्रा, सैंटाक्रूज़, जुहू, अंधेरी। मुझे क्या पता चलता? हम पचास मिनट और आठ पूछताछ के बाद लक्ष्मी एस्टेट पहुंचते हैं। टैक्सीवाला बीस रुपए कम लेने की ज़िद करता है। "आपको कितना घुमाया मैडम? टाईम भी खराब किया।"

अच्छा? ऐसा भी होता है? ज़ालिम कसाई बसते हैं मुंबई में, मुझे किसी का कहा हुआ याद आया है।

डॉ द्विवेदी किसी के साथ मीटिंग में हैं। अपनी कुर्सी की ओर इशारा करके कहते हैं, "उसपर बैठ जाओ अनु, क्रिएटिव लोगों की कुर्सी है।"

मैं कहती हूं, "अब दो मिनट के लिए सही, इसपर बैठूंगी ज़रूर।"

डॉ द्विवेदी फोन पर बात करते हैं तो मैं सोचती हूं, जानती हूं इन अलनूर मर्चेंट और नबील अब्बास को, जिनसे बात कर रहे हैं डॉक्टर साहब। दो बार मिली थी उनसे। मीडिया कन्सलटेन्ट्स, डिजिटल मार्केटिंग के शहंशाह। लगान की भी ऑनलाइन पब्लिसिटी का ज़िम्मा था उनपर। याद आया कि अपने एक्जेकेटिव प्रोड्युसर को आकर बताया था मैंने इक्कीस साल की उम्र में, "आई थिंक आई हैव फॉलेन फॉर अलनूर।" तब कितनी बेवकूफ थी मैं। कई सालों तक नंबर भी सहेज कर रखा था मोबाइल में। शहर बदला तब भी, नंबर और पते बदले तब भी।

ये वो ही अलनूर मर्चेंट है। दुनिया कितनी छोटी सी है, नहीं?

डॉ द्विवेदी को नहीं बताती अपने बचकाने क्रश की बात। हम अपनी बात करने लगते हैं। मैं उनकी फिल्म की तबीयत के बारे में पूछे बगैर अपना रोना रोने लगती हूं। उनके पास हिदायतों, नसीहतों की टोकरी है। कहते हैं, उन्हीं से बांटता हूं जो मेरी सुनते हैं। मैं जानता हूं, तुम सुनोगी।

क्रिएटिव होने की तकलीफों का ब्यौरा कई बार कई जगहों पर सुना है, आज भी सुनती हूं। ये भी सुनती हूं कि मन और दिमाग की जंग चलती रहेगी हमेशा। तुम्हें कई बार अनसुना करना होगा किसी एक को। मैं डॉक्टर साहब से कहती हूं कि दिल ने दिवालिया निकाल दिया। होश-ओ-ज़ेहन का कारोबार चलाकर देखूं क्या? "क्यों नहीं", वो कहते हैं। "दिल को समझाओ की बहुत शोर ना मचाए। मैं नहीं कर पाता, लेकिन तुम कर लोगी।"

तुम कर लोगी। मैं कर लूंगी। दिमाग की सुन लूंगी मैं। लड़की हूं इसलिए। बीवी हूं इसलिए भी। मां हूं, इसलिए ज़रूर। 

मेरे दिमाग की टोकरी में से अब रोडमैपनुमा कुछ निकलने लगा है। नसीहतों के बीच एक मुकम्मल करियर मैप दिखाई देता है। "तुम कर लोगी" के कई भरोसों के साथ।

डॉक्टर द्विवेदी से की हुई ये बातचीत कितनी काम आएगी, ये पांच साल बाद मालूम होगा। इसलिए रिकॉर्ड कर रही हूं आज का दिन।

डिफाइनिंग मोमेन्ट्स शोर मचाते हुए नहीं आते। भरोसे की जीर्ण-शीर्ण होती इमारत को बचाए रखने के लिए कई बार बाहर से पेटिंग काफी होती है, नींव तक जाने की ज़रूरत नहीं होती।

मैं करीब-करीब बेख्याली की स्थिति में घर लौटी हूं। घर लौटते ही किसी और से मिलने की जल्दी में फिर से बाहर का रुख करते हुए। ऑटो स्ट्राईक, उमस, ट्रैफिक, भीड़, पटरी पर बैठे फलवाले से खरीदे गए केले - सब अभी भी वैसे ही दिखते हैं जैसे एक टूरिस्ट को दिखते होंगे। मैं फिर भी यहां लौट-लौटकर आना चाहती हूं। दिमाग उलझा हुआ है। शहर पर शाम उतर आई है। मैं थककर टैक्सी में सिर पीछे की ओर टिका देती हूं। एक दोस्त की नवाज़िशें याद करती हुई ईयरप्लग्स के ज़रिए गुलाम अली को सुन रही हूं - हल्के-हल्के ज़मीं पे वो मिटते निशां, थक के बैठो हों जैसे ज़मीं आसमां।

बाहर थककर शहर बैठा नहीं होगा, अटटालिकाओं ने थाम लिया होगा उसे कहीं। ज़मीं पर जो निशां मिटने लगे हैं, नाउम्मीदियों के हैं। कम-से-कम मैं आंखें बंद किए यही सोचना चाहती हूं आज।

रविवार, 15 अप्रैल 2012

अब तो तुम्हारी भी कर्ज़दार हुई

गूगल मैप्स कहता है कि ऐरोली से बैंड्रा २८ किलोमीटर दूर है। वो मुझसे तीन ट्रेनें और दो ऑटो बदलकर आई है। मेरे पास मेज़बानी के नाम पर जॉगर्स पार्क में समंदर किनारे की ठंडी हवा है, चाय की प्यालियां हैं और मेरे जुडवां बच्चों के दिलफरेब एन्टिक्स हैं। मैं कहीं और, ध्यान कहीं और, बच्चे कहीं और, बातचीत के सिरे कहीं और। ऐसा भी होता है कि कोई आपको आपके ब्लॉग और फेसबुक के ज़रिए जानता हो, चंद टिप्पणियों और जीटॉक के अलावा आपका कोई वास्ता ना हो, बावजूद इसके मुंबई जैसे शहर में एक कोने से दूसरे कोने तक का थका देनेवाला सफ़र करके आपको घड़ीभर के लिए गले लगाने आया हो? ऐसा भी होता है? मैं हैरत में हूं।

हम उम्रभर के रिश्तों का लेखा-जोखा करें तो ज्यादातर गहरे रि श्ते औचक बन जाया करनेवालों में शुमार होते हैं। इनके पीछे कोई तर्क नहीं होता, कोई समझ काम नहीं करती। इनमें स्वार्थ नहीं होता, कोई कॉमन ग्राउंड नहीं होता इसलिए शायद कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इन्टरेस्ट का ख़तरा भी नहीं होता। इनमें अपेक्षाएं भी नहीं होती होंगी शायद, इसलिए जितना मिलता है उतना ही बेइंतहा खुशी दे जाया करता है। ऐसे रिश्तों में अक्सर उलीच-उलीचकर आपपर डाला जाता है प्यार।

बचपन से घड़ीभर में दोस्त बना लेने की वजह से मुझे आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा है। मैं अड़ोसी-पड़ोसी, लंपट-शरीफ सबसे दोस्ती कर लेती हूं। सबपर भरोसा भी उतनी ही तेज़ी से करती हूं। सबके सामने उससे भी तेज़ी से खुल जाया करती हूं। सही नहीं ये, पतिदेव अक्सर कहते हैं। इसलिए क्योंकि पता नहीं पाती अक्सर कि किसी एक ख़ास इंसान से दोस्ती हुई कैसे थी? यकीन करना मुश्किल होगा लेकिन मेरी सबसे क़रीबी दोस्तों में से एक ट्रेन के एक सफ़र में दोस्त बनी थी, अलग-अलग शहरों में होते हुए भी हम एक-दूसरे को सालों तक चिट्ठियां लिखते रहे थे और बुरे वक्त पर उसने सबसे ज़्यादा साथ निभाया मेरा। अब मेरे साथ मेरे पति-बच्चे, भाई-भाभी और मां तक उस ट्रेनवाली दोस्त के दोस्त हैं। कितनी बड़ी राहत है क्योंकि यहां जितनी तेज़ी से लोग मिलते हैं, रिश्ते बनते हैं, उतनी ही जल्दी गुम भी हो जाया करते हैं।

अपनी इस नई दोस्त के लिए मैं लिखना ही चाहती हूं कुछ, क्योंकि दूसरा और कोई तरीका आता नहीं हाल-ए-ज़ेहन बयां करने का। मुश्किल है कि कविताएं लिखना भी नहीं जानती और गद्य तो ख़ैर अपनी फिगर की कमियां छुपा लेने के लिए पहन लिया गया काफ़तान ही समझिए। लेकिन बिना किसी आवरण के शुक्रगुज़ारी की कोशिश में दो ही काम कर सकती हूं - तुम्हें गले लगा सकती हूं और बेतरतीबी से रख सकती हूं यहां टूटे-फूटे शब्द। मेरे सेविंग अकाउंट में डाल दिए गए इन लम्हों का कर्ज़ फिर भी ना उतरेगा।

अव्वल दर्ज़े की अतिव्ययी है ये दुनिया
हमें भी सिखाया करती है
लम्हों और अहसासों को खर्च कर देना
और उनपर भी लगा होता है
डिज़ाईनर आईटम-सा कोई प्राइस-टैग।

समंदर की छाती में डूबती रौशनी की होती है क़ीमत
आंखों में बुझते चांद के बदले
जलनेवाला तेल भी होता है महंगा
यहां घंटे के हिसाब से मिलते हैं पैसे
बिना टेकअवे के मीटिंग्स
कहलाई जाती हैं ज़ाया।

जाने दो,
मैं भी सीख लूंगी क्रेडिट के सहारे जीना
कि तुम्हारा कर्ज़ उतारने को मिल जाए शायद
एक और ज़िन्दगी।

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

वो जो हममें तुममें क़रार था

कहते हैं पतिदेव कि मुझे बेचैन रहने की बीमारी है। आराम ही नहीं देती ख़ुद को, और यही वजह है कि सेहत अक्सर नासाज़ हो जाया करती है। किताब पढ़ो, गाने सुनो, टीवी देखो, आराम करो। तुम्हें कैसी बेचैनी है ये? सही ही कहते होंगे, लेकिन भटकने की फ़ितरत लेकर पैदा हुए लोग अपना जेनेटिक स्ट्रक्चर कैसे बदल डालेंगे भला? अब आज की ही मिसाल लीजिए। हज़ार काम हैं निपटाने को - घर के बाहर के। इस बीच पैकिंग करनी है, एक नए सफ़र पर जाने की तैयारी। एक हफ्ते लायक काम निपटा डालना है। एडिटर दोस्तों से किए गए झूठे-सच्चे बेमानी वायदे निभाने हैं और कॉलम लिखकर भेजने हैं। असाईनमेंट्स को आप ना नहीं कह सकते। बैंक भी जाना है। मॉर्निंग वॉक भी छूट नहीं सकता और बैंक में आपके बदले कौन कर आए दस्तखत? तमाम कोशिशों के बावजूद मैं डिसऑर्गनाइज्ड ही लगती हूं, स्क्रीन पर चमकते पावर नोट्स काम नहीं आते और टाईम मैनेजमेंट पर पढ़ी गई एक हज़ार किताबें यहां धत्ता बता जाती हैं।

दरअसल, रेस्टलेसनेस कोई बीमारी होती होगी, इसका मुझे पूरा यकीन है। अपने दिन, अपनी शामें किनारों तक भर लेने का ऑबसेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर है मुझे और शगल ही कहिए कि बुक लॉन्च और जेन्डर बैलेंस पर होनेवाली डिस्कशन मीटिंग्स के एसएमएस आते ही मुझे बेचैनी होने लगती है। मैं कैफे ज़ाफिरो से लेकर कॉन्सटिट्यूशन क्लब तक, सब जगह होना चाहती हूं। मैं किताब लिखने से लेकर पढ़ने और यहां तक कि बच्चों को पढ़ाने तक के सारे काम करना चाहती हूं। मुझे घर भी दुरुस्त चाहिए, बाहर भी। मुझे बेड कवर पर कोई सिलवट नहीं मांगता, मुझे कुशन को सीधे करते रहने की बीमारी है और दिन में दस बार दीवारों पर लगे दाग़ गिनती हूं।  थोड़ी-बहुत कसर जो बाकी रह गई तो दोस्तों के साथ वक्त गुज़ारने की बेचैनी मुझे और थका देती है।

लेकिन अब नहीं तो कब? मिली हुई एक ज़िन्दगी को कैसे ना जीएं? दिन जाया होते रहें? हम ज़ाया होते रहें? यही बेचैनी या रेस्टलेसनेस चीज़ों को बदल देने का माद्दा रखता होगा। बल्ब और मोशन कैमरा के आविष्कारक थॉमस अल्वा एडिसन कहते हैं, Restlessness is discontent and discontent is the first necessity of progress. Show me a thoroughly satisfied man and I will show you a failure. आहा! दिमाग की बत्ती को जलाए रखने का इससे बेहतर बहाना क्या होगा? शुक्रिया, श्री एडिसन।

अब सवाल है कि हम आख़िर बदलना क्या चाहते हैं? ऐसी कौन-सी असंतुष्टि है जो हमारे पैरों और दिमाग में पहिए डालकर दम लेता है? सब ठीक ही तो आस-पास। बच्चे स्कूल जाते हैं, घर में कामवालियां आकर आपका काम आसान कर जाया करती हैं, तनख्वाह  वक्त पर आ ही जाती है, काम चल ही जाता है, देश-समाज में भी क्या कहां रुकता है कब? फिर क्यों मैं बेचैन? तुम बेचैन? ये बेहतरी की ख्वाहिश ना होती, कुछ बदल डालने की चाहत ना होती तो गोभी और तुममें अंतर क्या होता? आद्या को भी बेहतर वीकेंड चाहिए, आदित का मन छोटी भीम की काल्पनिक कहानियों से नहीं भरता अब। मैं खुश हूं इनकी शिकायतों से। ये इनोवेट करने का, अपने लिए रास्ते ईजाद करने का कोई तरीका सीखेंगे अब।

रही बात मेरी तो पतिदेव, आपका कहा मानकर नए सफ़र पर जाने से पहले सांसों की डोर को थामकर छू लेने की कोशिश में हूं। सोचते हुए, चलते हुए, बेचैन होते हुए थक तो जाती ही हूं। फिर भी बेचैनी बरकरार रहे, यही दुआ है।

सोचते-सोचते थक गई हूं और जहां गाड़ी रोककर बैठी हूं वहां से विंडस्क्रीन पर नीम के सूखे हुए पत्ते गिरे जा रहे हैं बेसाख्ता, धूप आंख-मिचौली खेल रही है और अप्रैल शबाब पर है। दूर क्षितिज पर कुछ दिखता नहीं, एक अंतहीन सड़क दिखती है बस। मैं नए सफ़र पर जाने से पहले थककर बैठी हूं थोड़ी देर और आबिदा परवीन जाने क्या गा रही हैं। ये क़रार के मुख़्तसर लम्हों को याद करना दरअसल तूफ़ान के आने से पहले की शांति है। वैसे, हमारे और तुम्हारे बीच बेक़रार बने रहने का ही क़रार था शायद।

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

हज़ारों ग़म हैं यूं तो रोने को

ब्लॉग्स लिखती हो, कॉलम लिखती हो, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर होती हो तो अनाप-शनाप लिखने के अलावा काम की बातें क्यों नहीं लिखती? क्यों नहीं लिखती कि होलिस्टिक एडुकेशन के नाम पर की जानेवाली उगाही हमारे घरों की नींवों को हिलाने लगी है? क्यों नहीं लिखती कि एक आंदोलन लाना होगा, बदलनी होंगी नीतियां, कपिल सिब्बल की हिलानी होगी कुर्सी? क्यों नहीं लिखती कि क्वालिटी हेल्थकेयर के नाम पर हुए कॉरपोरेटाइज़ेशन ने हमारा बीमार पड़ जाना सबसे बड़ा अभिशाप बना डाला है? क्यों नहीं लिखती कि मूलभूत सुविधाओं के नाम पर ही दरअसल हुआ करते हैं सबसे बड़े घोटाले? कितने लोग तो पढते हैं तुमको। कुछ ऐसा लिखा होता जिससे जागरूकता बढ़ती।

हां, मेरे लिखे हुए में कुछ उदात्त नहीं होता। ज्ञान की बातें नहीं होतीं और मुझसे क्रांति के स्वर नहीं फूटते। मैं शब्दों के ज़रिए पलायन के रास्ते ढूंढती रहती हूं। दुनिया में बहुत ज़हानत और समझदारियां भरी हुई हैं। उनमें मेरी टूटी-फूटी समझ कहां काम आएगी? अन्ना ने सोची-समझी मीडिया रणनीति के साथ आंदोलन करके क्या बदल दिया कि मैं बदल पाऊंगी एक लेख लिखकर? और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन पढ़ता है मुझको। मैं यहां ज्ञान बांचने नहीं आती। तेज़रफ़्तार ज़िन्दगी की डोर थामे पीछे से घिसटती हुई ही सही, जीने के नए-नए तरीके ईजाद करने आती हूं। मैं यहां अपने बच्चों के लिए नाउम्मीदियों के बीच उम्मीद छोड़ने आती हूं।

वैसे तो रोने को, शिकायत करने को तो हज़ार वजहें हैं। हम जिस शहर में रहते हैं वहां घर से बाहर निकलकर गेट तक चले जाने के एवज में पांच सौ का एक नोट साफ कर देना होता है। मैं जानती हूं कि जो दूध हम पीते हैं उसमें चूना मिला हो सकता है, सब्ज़ियों में कीटनाशक हैं, फलों पर कार्बन की कोटिंग। दाल-चावल-आटे की कीमत जानती हूं और ये भी कि मुद्रास्फीति की दर क्या है। थोड़ा-बहुत जीडीपी और इकॉनोमिक ग्रोथ की भी समझ है। ये भी जानती हूं कि उड़ीसा में नक्सलियों ने क्यों बंधक बनाया होगा विधायक को। मालूम है कि गुलबर्ग सोसाइटी मामले में मोदी को क्लिन चिट कैसे मिल गई होगी। लेकिन हर मुद्दे पर संपादकीयनुमा कुछ लिख ही दिया तो क्या बदल जाएगा इससे? मेरे लिए क्या बदलेगा? मेरे बच्चों के लिए क्या बदलेगा? और जिन फूल-पत्तियों-हवा-घटाओं-खुशबू-बारिश-रंग-उम्मीद की बातें लिख-लिखकर ये ब्लॉग भरती रहती हूं ना मैं, वो मुझे बदल देती हैं थोड़ी देर के लिए।

मेरा ब्लॉग पर आना घर-बाहर की ज़िम्मेदारियों और उलझनों को छोड़कर थोड़ी देर के लिए पार्क में आ जाने जैसा है। जैसे मोगरे की खुशबू कोई याद ताज़ा करती है वैसे ही किसी नोस्टालजिया को यहां सहेजकर रख देने से उस एक दिन के लिए जीना आसान हो जाता है। पार्क में उड़ते तोते देखती हूं तो पेट्रोल की क़ीमत याद कर हाथों से उड़े ख़्याली तोते वापस आ जाते हैं। उड़ती फ़ाख्ता के पर गिनना मेरा ध्यान-दर्शन है। पेट्युनिया के रंगों में आशाओं के रंग दिखते हैं। मौलश्री की हल्की-सी छांव यकीन दिलाती है कि जूझने के लिए आज भी निकलोगी घर से तो सहारा मिल ही जाएगा कही ना कहीं। कचनार के पेड़ पर तेज़ी से बढ़ते फूल घटते अकाउंट बैलेंस का ग़म भुला देते हैं। रंग-बिरंगे स्टॉक्स स्टॉक मार्केट में डूब रही गाढ़ी कमाई का अफ़सोस कम कर देते हैं। पार्क के कोने में अंगारे बरसाता पलाश मुझे याद दिलाता है कि आउट ऑफ प्लेस एक तुम ही नहीं अनु सिंह।

अपनी भरपूर हरियाली के बीचोंबीच जैसे पार्क थोड़ी-सी ही सही, लेकिन खुबसूरती को बचाए रखता है वैसे ही मेरा लिखना मुझे भरोसा दिलाता है कि रो लेने को कई और बहाने हैं, एक तिल-तिल बर्बाद होती ही दुनिया का ग़म ही नहीं। पार्क मुझे रेत में सिर छुपा लेने की इजाज़त देता है, ताकि बाहर निकलकर मैं सिर उठाकर जी सकूं एक और दिन। मेरा लिखना मेरे अंदर की उम्मीद बचाए रखता है ताकि अख़बारों और समाचार चैनलों के फैलाए हुए डर को झेलने की हिम्मत मिल सके।

लिखने दो उनको जो क्रांति लाना चाहते हैं। ईश्वर उन्हें क़ामयाबी दे। लिखने दो मुझे कि मैं जीना चाहती हूं बस। और तो क्या वजह होती है किसी के होने की? मुझे अपना रोना रोने दो। मुझे मेरे पार्क में होने दो। मैं भगोड़ी, कमज़ोर, बेवकूफ़, नासमझ ही सही।

(नीचे उस पार्क की कुछ तस्वीरें है जो है, तो मुझे अपने उन्माद के लम्हों में भी सुधी बनाए रखती है। बाकी मेरे ब्लॉग से आद्या-आदित भी वाकिफ हैं, आप भी।)

सुकून का एक लम्हा, मौलश्री की लम्हाभर छांव

कॉन्क्रीट जंगल में भी खिल ही जाता है, पलाश
बिछड़ जाने से पहले की खुशबू

रविवार, 8 अप्रैल 2012

It is all about the "F" word

"When was it that you went to a beauty parlour last?"

"Ummm.... I don't exactly remember."

"Last haircut? Last time that you painted your nails?"

"October? Or November, I think. I don't do stuff too feminine."

"And who defines what's feminine and what's not?"

That's a question I often ask myself. How do we define the characteristics and qualities that a woman must possess? Why is being feminine or for that matter, being a feminist looked down upon? Why have I avoided broching a discussion on why one shouldn't be called a feminist? What are the qualities attributed to a feminine feminist? Does being feminine always mean fluttering eyelashes, painted nails and pedicured feet? Does being a feminist always mean raising a slogan? Why have I avoided being called "too feminine" or "too feminist"? Can you be feminine and a feminist at the same time? Why is there a stereotype to everything?


The societal and cultural influences have shaped the frameworks of our perception of what's feminine and what's not and we react very strongly if anyone dares to go beyond that framework. I, for one, was encouraged to be a tomboy because anything "too girlish" was a waste of time. That was my parents' idea of breaking the conventions, going beyond what was considered to be a set pattern of how a girl should look like and behave. That was their idea of being a feminist. However, I do consider my mother a true feminist because she brought up a daughter and two sons in a manner that there was no gender discrimination on work allotted to us on a day-to-day basis. And trust me, she really went against the family conventions on this one flawlessly without raising her voice.

Breaking the barriers and societal frameworks from this basic a level was her idea of being a "feminist". My idea of "feminism" was more warped up and very confused. I was wary of being called a feminist in the first place. I almost believed that there's no world where equality could exist. I still believe that men and women come from two different planets, so there should be no comparison. I was judging rest of the world through a myopic point of view, which is what I have grown up with. But I certainly believe that the other half of the world deserves certain repsect, freedom of education, right to work, equal rights at the workplace and a sense of security in society by and large. And if that belief of mine labels me as a feminist, so be it.

I now have a daughter who was born ladylike, who is a total contrast to what I was brought up as. Don't be surprised if you find pancakes and lip balms and hair brushes in her barbie bag. No words of wisdom, no threats, no logic works here. She is born with her sensibility of being feminine in her own way. Who are we to judge her while she goes on to build her own notions and understandings of what she wants to grow up into?  I will have to give her the right and the freedom to be what she wants to be. Without being judgemental.

I don't know if I want to turn her into a so called "feminist" or not. But I would surely want my son to be a feminist. My mother often says that the day we stop worrying about bringing up our daughters like sons and concentrate instead on bringing up our sons as daughters, the society will change. You will not have to fight for a balance within and outside of your family. That, unfortunately, is still a far-fetched dream.

Meanwhile I don't mind being labeled a feminist who is feminine in her own ways, who loves being a woman, who is happy to run a house and do her bit in contributing towards the government exchequer, who will have the courage to speak out for the lesser privileged ones and who will also have the strength to question the system if it infringes on her basic rights to live peacefully. That's my view on the "F" word. What is yours?

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

सैलेड डेकोरशन, क्रॉस स्टिच, चांद, कहानी, सपना

मैं जहां खड़ी हूं वो किसी स्कूल की इमारत लगती है। स्कूल हो ना हो, कोई शैक्षणिक संस्थान तो ज़रूर है। मुझे यहां होना चाहिए, मैं सोचती हूं। क्लासरूम्स में लगी हुई लकड़ी के मेज़ और कुर्सियां बेतरतीबी से बिखरी पड़ी हैं। इन्हें किसी ने दुरुस्त क्यों नहीं किया? कभी लगता है, पहली मंज़िल पर हूं, कभी त्रिशंकु से लटके होने-सा गुमां होता है।

ऊपर देखती हूं तो दस-बारह लोग बालकनी की रेलिंग से लटकर आसमान की ओर देख रहे हैं। सब एक कतार में खड़े हैं और उनसे किसी ने चांद पर कहानी लिखने को कहा है। कहानियों के बेतरतीब टुकड़े कानों में पड़ रहे हैं। मैं उनमें से दो-तीन लोगों को पहचानती भी हूं। उमेश, दु्र्गेश और सम्राट। मुझे वहां होना चाहिए। मैंने भी तो लिखी थी चांद पर एक कहानी, आद्या और आदित के लिए।

तुम्हें वहां दाख़िला नहीं मिलेगा, मेरे कॉलेज की एक बैचमेट है जोयिता, वो कहती है मुझसे। मैं जिरह नहीं करती और उसके पीछे-पीछे उस क्लास की ओर चल देती हूं जहां दाखिला मिल जाएगा। जोयिता को मैंने पहले कहीं देखा है, ये याद नहीं आता कि कहां। अरे हां, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी कैंप में वर्धा गए थे हम साथ। सेंट स्टीफेंस के दो लड़के भी तो थे - एकलव्य और वेंकट। वेंकट जाने कहां है, एकलव्य के पापा तो मेदान्ता में थे। कैंसर हुआ था उनको।

जोयिता के साथ मैं जिस क्लास में खड़ी हूं वहां सब सलीके से बैठे हैं। दीवारों पर पेंटिग्स हैं, पढ़ने-लिखने वाली मेज़ों पर भी मेज़पोश, कोने में रखी केन के लैम्प से रौशनी जिसके चेहरे पर छन-छनकर आ रही है उस लड़की को भी मैं पहचान गई हूं - पूजा प्रकाश। मेरे स्कूल में थी और मुझे स्कूल छोड़े कोई सोलह साल हुए। पूजा अपनी हथेलियां दिखाती है मुझे - कई रंग हैं उनपर। हल्दी वाला रंग एक साफ दिख रहा है। हम फैब्रिक पेंटिंग करते हैं यहां, और ब्लॉक प्रिंटिंग भी। मैं अपने बनाए दुपट्टे ओढ़ती हूं और ये देखो, क्रॉस स्टिच से बनी चादर। तुम भी सीख जाओगी, अनु। मर गई। ये कहां ले आए मुझे? ये काम तो मुझसे कभी नहीं होगा। मुझे तो ऊपरवाली क्लास में होना था। हो जाएगा, ये मुकुट भी बना पाओगी तुम। सैलेड डेकोरेशन से बना हुआ मुकुट? छी।

प्यास लग आई है। आस-पास रखी बोतलों में से एक उठा लेती हूं, फिर सोचती हूं कि किसी ने जूठा तो नहीं किया होगा इसे? नहीं किया, लेकिन पानी पुराना है , जोयिता कहती है। बाहर नल है, वहां से भर लेना ताज़ा पानी। मैं बोतल लेकर बाहर आ गई हूं। मुझे वापस चांद पर कहानी लिखनेवाली क्लास में जाने देंगे क्या? बाहर पानी से भरी कई बाल्टियां रखी हैं, लबालब भरी हूई। बोतल का पुराना पानी फेंकना नहीं चाहती, इसलिए थोड़ा-थोड़ा पानी मैं सभी बाल्टियों में भरने लगी हूं। पानी छलककर नीचे गिर आया है। मेरे पैरों के आस-पास है पानी। नल से जो पानी भर रही हूं, गंदा है। मैं पानी बहने देती हूं, साफ पानी के इंतज़ार में।

लेकिन ये दर्द कैसा है बांह में? प्यास भी तो बुझी नहीं। घबराकर जाग जाती हूं। सपना था, जाने कैसा। आद्या मेरी बांह पर सो रही है पिछले घंटों से, दर्द इसलिए है। उसे धीरे से उतारकर फोन में वक्त देखती हूं - तीन बजे से ही नींद को तिलांजलि।

सपने सबकॉन्शस माइन्ड, हमारे अर्द्धचेतन मन (कई बार चेतन भी) का परिचायक होते हैं। होते ही होंगे, और इन बेतरतीब टुकड़ों का कोई तो मतलब होगा। मम्मी ने कहा, सपने में पानी बीमारियों का घर होता है। तुम पानी में गीली नहीं हुई तो बच गई। ऐसा ही हो, मां!

बुधवार, 4 अप्रैल 2012

गुमशुदा लोगों की याद

पार्क में इन दिनों अकेले वॉक के लिए आने से डर लगता है। कुछ तो गर्म होते जाते मौसम की वजह से मुरझाते फूल उदास करते हैं, कुछ यूं भी उदासी होती है साथ-साथ और मैं वॉक करके अपनी सेहत बनाने की जगह कोने में बैठकर रोते हुए अपना दिन नहीं बिगाड़ना चाहती। इसलिए आज रुचि साथ है और इस हसीन दिलचस्प साथ के साथ-साथ फूल-पत्तों-पौधों-पक्षियों-कीड़े-मकोड़ों के बारे में कई ऐसी बातें पता चल रही हैं जो नई हों मेरे लिए। उसके साथ इतने सालों में पहली बार पार्क को एक नई नज़र से देखती हूं जैसे।

रुचि को मैं सिर्फ कुछ महीनों से जानती हूं, लेकिन लगता है ताउम्र निभानेवाली दोस्ती है ये। हम पहले चक्कर के साथ मौलश्री के पेड़ों से थोड़ा ही आगे पीले फूलों वाले पेड़ के पास पहुंचते हैं। "मैं इन फूलों का नाम नहीं जानती, देखो कोने में लगी झाड़ियों पर लगे वो पीले फूल और ये फूल कितने एक-से हैं, लेकिन हैं अलग-अलग।"

अलग-अलग हैं हम दोनों भी, लेकिन फिर भी कितने एक-जैसे, मैं सोचती हूं। रुचि झुककर एक सूखा हुई पत्ता उठा लेती है। डाल से बिछुड़ी हुई, मैं सोचती हूं। कहीं तुम भी तो नहीं बिछड़ जाओगी रुचि, पूछना चाहती हूं, कह नहीं पाती।

बिछड़ जाना, गुम हो जाना, कितना आसान है, नहीं?

एसएमएस है किसी का। फोन देखती हूं। पंद्रह साल पुराने एक दोस्त। ये गुम नहीं होंगे कभी, शुक्र है। लेकिन कहां गए मेरे सालों पुराने दोस्त? कहां गई सुवर्णा, मेर बचपन की दोस्त? और ऋतु, जिसके साथ मैंने क्लासरूम में आगे बैठकर संस्कृत की क्लास में चिड़िमार सर को बेवकूफ बनाते हुए पूरा का पूरा लंच खाया था? जिसका नाम ब्लेड से कुरेदा था अपनी डेस्क पर? जिसका जूठा पानी पीने में कभी कोई एतराज़ नहीं हुआ? जिसके फर्स्ट आने और अपने सेकेन्ड आने पर कभी नहीं हुआ कोई दुख? गुम हो गई क्या? कई सालों से देखा नहीं उसे।

मेरी रूममेट जो रुममेट कम, सोलमेट ज्यादा लगती थी - गुम हो गई शायद। उसे कभी-कभी टीवी पर देख लिया करती हूं बस। वो दोस्त जिसकी कविताओं के किए थे कई अनुवाद, जिसके साथ पढ़ा ज़ेन एंड द आर्ट ऑफ मोटरसाइकिल मेन्टेनेन्स, जिसके साथ पहली बार गई मुंबई के एक पब में, जिसके साथ मरीन ड्राईव पर बांटे सपने कि तुम बनना संजय लीला भंसाली, और मैं तनुजा चंद्रा, जिसके साथ लोखंडवाला पुल पर बैठकर खाए थे भुट्टे - गुम नहीं हुआ अभीतक शायद कि हम अब भी फॉर्मल लंच पर मिला करते हैं अक्सर।

"वो देखो, एक कचनार खिला है उस पेड़ पर, सिर्फ एक", रुचि कहती है और मैं मुड़कर देखती हूं। अच्छा, हम तो पार्क में वॉक कर रहे हैं। गुम हो गए हैं कई रिश्तेदार भी, मैं उससे बताना चाहती हूं। रुबी फुआ से बात नहीं हुई कितने महीनों से, जाने किस हाल में हैं? जिस चाची से सुबह-शाम क्या पका है, बिना ये बताए नहीं पचती थीं चपातियां, वो चाची भी गुम हो गईं शायद।

नाइट शिफ्ट की काली रातें न्यूज़ रूम के सन्नाटे में जिन लोगों के साथ कटीं, गुम हो गए वो भी। जिस दोस्त के लिए हॉस्टल छोड़ते हुए ज़ार-ज़ार रोती रही मैं, जिससे बिछड़ जाने का कोई डर नहीं था, वो भी गुम हो गई। मुंबई जाती हूं तो उसे फोन भी नहीं करती अब तो। और कई लोगों के नंबर हैं फोनबुक में, जो हैं भी, नहीं भी।

ब्लॉगिंग करते हुए कई-कई लोगों की आती-जाती रही चिट्ठियां, कई लोगों ने पूछा हाल। वो भी गुम हो गए एक दिन क्योंकि मैं अच्छी मेज़बान तो क्या, कायदे की मेहमान भी नहीं। ना किसी की चिट्ठियों का कोई जवाब देती हूं, ना किसी से आगे बढ़कर पूछती हूं टेढ़े-मेढ़े ज्ञानदर्शन-नुमा सवाल।

फेसबुक और जीमेल के इस ज़माने में भी कोई गुम हो जाया करता है क्या? नहीं, गुम नहीं होता कोई। बस यादों की चादर आंसुओं से धुलते-धुलते और धुंधली हो जाती है और एक दिन उसे अलमारी की गहरी तहों से निकालने की ज़रूरत भी खत्म हो जाती है। ज़िन्दगी चलती रहती है, नए लोग मिलते रहते हैं, पुराने दोस्तों से और गहरे होते रहते हैं रिश्ते और बिछड़ जानेवालों की खत्म हो जाती है याद। बिग बाज़ार की सेल में हमने भी खरीद ली हैं और कई प्रिंटेंड चादरें, साफ कर ली हैं अलमारियां और बदल डाले हैं पुराने कपड़े।

पीले फूलों की समानता-असमानता सूझे ना सूझे, पार्क हम आएं ना आएं, रुचि... बस एक तुम गुम ना होना। कहना चाहती हूं, कह नहीं पाती। वो हो ना हो, गुम तो मैं हो ही जाऊंगी एक दिन।

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

ज़िन्दगी होती बॉक्स ऑफ चॉकलेट्स



बहुत बढ़ गई है महंगाई
कि हाफ़िज़ सईद पर है
दस मिलियन डॉलर का ईनाम
और क़ीमती हो गई हैं
आईपीएल की टिकटें
झीना हिकाका के बदले
मांगे गए हैं दो-चार और कॉमरेड
कुपोषण से लड़ने के लिए
बढ़ गया है सालाना डोनेशन
बाल काटने के लिए
पच्चीस रुपए ज्यादा लेगा नाई

एक इंसान की जान है
मुद्रास्फीति के विषमचक्र से बाहर।



उदास
बदहवास
कोई प्यास
नहीं पास
धीमी सांस
ना कोई आस

खुशी का कोई लम्हा
बेतुका लगता यहां!



भूला हुआ वक्त
भूले हुए लोग
भूला हुआ घर
भूला हुआ कल
भूली हुई यादें
भूली हुई बात
भूली हुई शाम
भूली हुई रात

एक तुम ही नहीं
गुमशुदा इन दिनों
एक मैं ही नहीं
भूली अपना रास्ता।



बुनते रहना
ख्वाबों के तिलस्म
सजाए रखना
दुखों का बाज़ार
बनाए रखना
चांद को बंदी
जिलाए रखना
सच्चा-झूठा प्यार
बचाए रखना
अनगढ़ कविताएं
बढ़ाए जाना
दंतकथाओं का कारोबार

तुमपर दूसरे की तकलीफ़ों का है दारोमदार
मैं भी समझूंगी भ्रम को सच बार-बार।



चुभते हैं दर्द के कांटे
सीना भी भारी-सा लगता है
रुकी रहती है सांस इन दिनों
कोई डर बस साथ चलता है
रंग-बिरंगी गोलियां
बच्चों को मम्मा की जेम्स लगती हैं
मैं पॉपिन्स को याद करती हूं बार-बार

कैंडीज़ नहीं,
ज़िन्दगी को बॉक्स ऑफ चॉकलेट्स
बनाने का कोई हुनर मालूम है दोस्तों?

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

कहता है ये सफ़र...

आंसू रुकते ही नहीं। खिड़की से लगकर सुड़कती जाती है नाक वो, पोंछती रहती है आंसू। सुवर्णरेखा का कोई बांध टूट गया है जैसे। पहाड़ी नदी गीले मौसम में यूं भी वश से बाहर हो जाती है। किनारे को नहीं तोड़ती। लेकिन पत्थरों से उलझता उसका उफान जानलेवा हो सकता है। फिर जो नदी पत्थरों से यूं भिड़ जाती है वो किनारों का क्या करेगी?

वैसे सुवर्णरेखा किनारे नहीं तोड़ती। लड़की को भी नहीं तोड़ना कोई किनारा।

फिर ये कैसी बेचैनी है? बीस की उम्र तो बेफिक्री की होती है ना? तब क्या हो जाने का डर है? हर शाम भारीपन लिए क्यों आती है? लड़की को कोई तकलीफ़ नहीं। घर-परिवार अच्छा है। रुपए-पैसे की दिक्कत नहीं। करती वही है जो करना चाहती है। पढ़ती वही है जो पढ़ना चाहती है। तब? गुज़रे हुए लम्हों को रोती है, आनेवाले कल से डरती है।

लड़की को कुछ नहीं बदलना। सब वैसा का वैसा ही चाहिए जैसा है। दोस्तों के बिछड़ जाने का ख़ौफ़ है, नई जगह नए लोगों के बीच नई चुनौतियों के सामने डाल दिए जाने का अंदेशा है। लड़की का ग्रैजुएशन खत्म होने को है और वो घर लौट रही है, छुट्टियों के लिए या हमेशा के लिए, नहीं जानती। ट्रेन पलाश के जंगलों से होकर गुज़र रही है। गौतमधारा आ गई अब तो। घर पहुंचने में दो घंटे भी बाकी नहीं। लड़की के हॉस्टल का कमरा छूट गया, सहेलियां छूट गईं, सेन्ट्रल मार्केट से खरीदी हुई नीली बाल्टी छूट गई, लाल पर्दे रह गए कहीं और साथ आ गईं यादें। एक डर भी। अब क्या होगा? उन्मुक्तता के दिन लदे? अब?  सब बदल जाएगा अब तो।

"लेकिन ज़िन्दगी इसी को तो कहते हैं, नहीं? सुना है कि ज़िन्दगी में एक ही चीज़ स्थायी होती है - बदलाव। फिर बदलने से कैसा डरना?"

"सुनो, मुझे फ़लसफ़े मत सिखाओ ज़िन्दगी के। किताबी फ़लसफ़े तो बिल्कुल नहीं। सेल्फ इम्प्रूवमेंट और काउंसिलिंग पर तुमसे ज़्यादा किताबें पढ़ीं हैं मैंने। तुमसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी हूं, तुमसे ज्यादा इंटेलिजेंट।"

"वही तो, वही तो परेशानी है - तुम्हारा दिमाग। कुछ किताबों के कचरे ने इसका कचरा कर दिया, कुछ तुमने। जो बिना दिमाग का होता है ना उसको इस तरह की लाइलाज बीमारियां नहीं होती।"

"बड़ा खाली और बेरंग जीवन होता होगा उनका फिर तो, नहीं?"

"मुझे देखकर लगता है मेरी ज़िन्दगी रंगहीन होगी?"

"मतलब तुम्हारा दिल कभी नहीं डूबता? तुम्हें कभी कोई खलिश नहीं लगती? नोस्टालजिया... नोस्टालजिया जैसी फीलिंग को महसूस किया है कभी?"

"अरे बाप रे। अब नोस्टालजिया को महसूस करना कैसा होता है?"

"मतलब किसी ख़ुशबू से कोई उलझन? किसी गाने से जुडी कोई याद? कोई कविता? कोई मौसम? कोई फूल? कोई रंग? जिसे देखकर याद आए कुछ?"

"कभी सोचा नहीं इस तरह।"

"अब मुझे देख लो। यहां कॉफी खत्म हो रही है, घड़ी ग्यारह बजा रही है और मैं इस सफ़र के ख़त्म हो जाने को लेकर परेशान हूं। रुलाई आ रही है कि गया... ये लम्हा तो गया हाथ से। रात में सोचूंगी, रोऊंगी। कल सुबह सोचूंगी, रोऊंगी। फिर ऐसी कोई दोपहर आएगी, पलाश का मौसम आएगा, कॉफी का ऐसा स्वाद आएगा होठों पर तब सोचूंगी और मन उदास हो जाएगा।

"एक्जैक्टली। गया ये लम्हा तो हाथ से। क्या खूब होता कि जी लिया होता इसको इतना सोचने की बजाए।"

"हैलो? मेरे जीने का तरीका यही है।"

"तो भुगतो फिर। दे पेरेनियल परेशान आत्मा, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता।"

"तुम्हारा भी नहीं। तुममें तो फीलिंग्स ही नहीं कोई। लूज़र।"

"एक मिनट। ये फीलिंग को कैसे डिफाईन करती हो, ज़रा सुनें..."

"फीलिंग मतलब कसक, मन में कोई गांठ बंधी हो जैसे। प्यार के खो जाने का डर हो जैसे। बेइंतहा खुशी का  इंतज़ार हो, और रातें उसी इंतज़ार में कट जाए। किसी को देखकर हंसना आए, किसी को देखकर रोना। किसी को बेवजह गले लगाने की इच्छा हो, किसी की गर्दन दबा देना चाहें जैसे। फीलिंग्स मतलब कुछ ना कुछ ऐसा जो दौड़ता रहे रगों में। वरना ज़िन्दगी कितनी बेमानी हो जाएगी, नहीं?"

लड़के ने कुछ कहा नहीं। लड़की ने उसकी ओर देखा और फिर बिना बात को आगे बढ़ाए कान में वॉकमैन के ईयरप्लग्स लगा लिए। ट्रेन चलती रही, रास्ता कटता रहा। वैसे बहुत दिनों तक फीलिंग्स की उस परिभाषा का मज़ाक बनाता रहा - कभी फोन पर, कभी ई-मेल पर, कभी सामने, कभी पीछे।

सुनो लड़के, इतने सालों बाद भी नहीं बदली फीलिंग्स लड़की की। उसे अब भी वैसी ही घबराहट होती है, दिल डूबता है हर दूसरे दिन। बदलाव से डरती है अब भी, दोस्तों को खोना नहीं चाहती, डूबती हुई शामें उदास करती है तब भी जब वो दो बच्चों की मां है। तब भी जब उसने पार की है कई अड़चनें, हासिल किए हैं कई नामुमकिन मुकाम। उसे अब भी दिन के थोड़ा और रौशन हो जाने का इंतज़ार है। उसे अब भी यकीं है कि सितारों से आगे जहां और भी है...

अब भी ईयरप्लग्स लगाकर सुनती है गाने। तुम मत सुनना। तुम्हारे टाईप का नहीं है।

रविवार, 1 अप्रैल 2012

आओ जीते हैं, हम और तुम

२१ साल की उम्र में पायलट बन गई थी वो - इंटरनेशनल सेक्टर में बोईंग ७४७ चलानेवाली सबसे कम उम्र की सबसे हसीन पायलट। हमें रिया पर फख्र  था। अब भी है क्योंकि अब वो मल्टिपल इन्जरीज़ के साथ टूटी-फूटी हड्डियों को समेटे हुए लाइफ सपोर्ट सिस्सटम पर जूझती हुई हिम्मत की डोर थामे मौत को हर पल मात दे रही है। रिया मेरी बहन है, बुआ की बेटी। २४ साल की है, एक हफ़्ते पहले कार एक्सिडेंट में बुरी तरह ज़ख़्मी हुई। ये हादसा बुलाया हुआ था। रातभर पार्टी करने के बाद पांच बच्चों ने सुबह लॉन्ग ड्राईव पर जाना तय किया। हम चाहे तो लम्हों को कोसें, हम चाहें तो किस्मत को दोष दें, हम चाहें तो ये भी कह दें कि हादसे तो मिल सकते हैं किसी को भी किसी भी मोड़ पर। सच भी है, लेकिन बुआ की आंखों में तैरते आंसू देख दिल सहम जाता है। मेरे भी तो दो बच्चे हैं और जाने कितने हैं छोटे भाई-बहन। या अल्लाह, सबको अक्ल दो, सबको दूर रखो बुरी बलाओं से।

डॉक्टर मौसा सर्जन हैं। जाने कितनों की ज़िन्दगी बचाई होगी, कितने को निकाला होगा मौत के मुंह से। उन्होंने जानबूझकर किसी आफ़त को गले नहीं लगाया था। जनवरी की एक धुंध भरी रात में गांव से आते हुए सड़क दुर्घटना का शिकार हुए। पिछले तीन महीने से आईसीयू में हैं और होश में नहीं आए। ना जीते हैं ना मरते हैं। परिवार उन्हें देख-देखकर तिल-तिल मर रहा है, सो अलग।

सीपू अभी तो तीस की भी नहीं हुई। अभी-अभी प्यारा-सा बेटा हुआ उसको। पिछले बारह सालों से जानती हूं उसको, और जब भी उसके बारे में सोचती हूं या फेसबुक पर तस्वीर देखती हूं कोई तो जाने क्यों लगता है, उसके गोरे माथे को चूम लूं और गले लगाकर कहूं, खुश रहना ऐसे ही। परिवार ने तो उसके लिए खुशियों का सारा इंतजाम कर लिया था - मन लायक पढ़ाई, अच्छा-सा पति, बहुत प्यार करनेवाले लोग और अब बेटा। ईश्वर जाने क्यों परीक्षाएं लिया करता है इतनी? चंद हफ्तों के बच्चे की मां सीपू अब ब्रेस्ट कैंसर का इलाज करा रही है। कीमोथेरेपी के तीन सेशन्स के बाद सर्जरी होगी उसकी। अपने बच्चे को तो उसने जीभर के प्यार भी नहीं किया अभी।

राजकुमार अंकल की बाईपास सर्जरी होनी है, ९५ फ़ीसदी धमनियां ब्लॉक्ड हैं उनकी। जाने मेडिकली इसका मतलब क्या होता है? सिन्हा अंकल भी उसी अस्पताल में जीभ के कैंसर का इलाज करवा रहे हैं। मुन्ना चाचा की दोनों किडनियां काम करना बंद कर चुकी हैं। डायलसिस पर हैं वो, और जी रहे हैं किसी तरह।  उनकी सेवा में चाची के साथ-साथ ८० साल के बाबा लगे हैं इन दिनों।

सुबह-सुबह मन कर रहा है कि फूट-फूट कर रोऊं। ये सारे लोग मेरी किसी कहानी के किरदार नहीं, ना ट्रैजेडी की नई स्क्रिप्ट लिख रही हूं इन दिनों। जानती हूं कि दर्द इससे भी बड़े होते होंगे, दुख ने तो अभी छुआ ही नहीं ठीक से मुझे। इम्तिहान इससे भी बड़े देने होंगे अभी तो कि पूरी ज़िन्दगी बाकी है और किसी भी मोड़ पर मिल जाया करते हैं हादसे।

फिर इतनी बेक़रारी क्यों? खुलकर अपनी शर्तों पर जी लेने की हिम्मत क्यों नहीं हममें? किस लम्हे का इंतज़ार किया करते हैं हम? क्या होगा जो कल होगा और आज नहीं? इतनी सारी दुश्चिंताओं का सबब? घर बड़ा हो, गाड़ी बड़ी हो, सेविंग्स बड़ी हों, बच्चे बड़े-बड़े बनें, हम छू आएं ऊंचाइयां आकाश की... ऐसी बेताबी ही क्यों? क्यों इतना अहं? क्यों ये मलाल कि ज़िन्दगी के निकल गए तीस साल? जो अभी, इसी लम्हे ऊपरवाले ने त्रिशंकु की तरह लटका ही दिया मरने और जीने के बीच, तब? शुक्र ना मनाएं कि जिया इतने साल, और जो मिला है, ख़ुदा की नेमत है। शुक्र ना मनाएं कि मिली एक शाम जब तुम सब थे आस-पास?

जाने क्यों जी में आया है कि सबको फोन करके कहूं, आई लव यू। कहूं कि अपना ख़्याल रखना। कह ही दूं कि हमें लगता है ऐसा कि अकेले और तन्हां ही हैं हम। लेकिन हमारे जीने-मरने से कई लोगों को फर्क पड़ा करता है। सुनो मेरी बात ध्यान से, लड़ने-भिड़ने और बेमानी संघर्षों के लिए कम पड़ जाया करती है ज़िन्दगी। जो प्यार से गले लगा लो, थाम लो दो घड़ी के लिए किसी का हाथ और रख दो कंधे पर हाथ तो लगता है, जितना है बहुत है।

मैं प्यार ही करती हूं तुमसे, कि जाने कल हो ना हो। आओ, जी लेते हैं इस पल, हम और तुम।