सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

मन के शहर से पाती




खोजे डिब्बे दो-चार,

निकाल लिए पैकेट्स

खुल गई मेरे सिरहाने

से सटकर बैठी दराज़


समेटा-सहेजा,

झाड़ा-बुहारा

और बंद करके रख दिया

हमने आज फिर

टुकड़ों टुकड़ों का इंतज़ार।






चलो सपनों की चादर का कोई कोना तो थामो तुम

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा हो

जो सर पर और कुछ ना हो तो बस तारों का डेरा हो,

कोई तकिया हो बांहों का, मद्धम सांसों का घेरा हो

समंदर साथ में लेटे, बरसती रात हो हमपर

मिले जो सुबह सिरहाने, कोई शबनम का क़तरा हो

जो कहना भी नहीं आए तो चुप्पी साथ रख लेना

पलक का कोई एक मोती हमारे हाथ में देना

चूनर में बांध जो लूंगी तुम्हारे डर का टुकड़ा हो

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा हो






ना आवाज़ दो,

ना मुझको पुकारो

नहीं कर पाऊंगी

तुम्हारे पीछे बंद

मैं दरवाज़ा



नहीं कह पाऊंगी

आज फिर एक बार

अलविदा।

6 टिप्‍पणियां:

Ramakant Singh ने कहा…

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा

ना आवाज़ दो,

ना मुझको पुकारो

नहीं कर पाऊंगी

आज फिर एक बार

अलविदा।
EXCELLENT LINES.SPEECHLESS

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अद्भुत चित्रण, सपनों की चादर, ख्वाहिश का लम्हा, अहा..

Arun sathi ने कहा…

टुकड़ों टुकड़ों का इंतज़ार।


साधु-साधु

Unknown ने कहा…

बिछा दें हम ज़मीं पर जो, किसी ख्वाहिश का लम्हा हो....बहुत सुन्दर

Pallavi saxena ने कहा…

समेटा-सहेजा,

झाड़ा-बुहारा

और बंद करके रख दिया

हमने आज फिर

टुकड़ों टुकड़ों का इंतज़ार।
यही तो करते आए हैं सदा हम ....
बहुत सुंदर गहन भावभिव्यक्ति ....

Arvind Mishra ने कहा…

.......और भावभीने सुकोमल अहसास की अभिव्यक्ति!