मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कैसे जाएं महबूब की गलियां छोड़कर

आज मौसम मेहरबान है। पूरे चांद की रात है और समंदर अपने शबाब पर होगा। हम बैंडस्टैंड तक जा सकते हैं और पत्थरों पर बैठकर आकंठ मोहब्बत में डूबे लोगों से आंखें चुराते सेवपूरी से अपनी मोहब्बत निभाई जा सकती है। ये भी हो सकता है कि डूबते सूरज के पार समंदर के किनारे कुछ ज़हीन, कुछ बेमानी सवाल छोड़ आएं, और सुबह की रौशनी में ताज़ा, शबनमी आंखों से उनके जवाब ढूंढ लिए जाए। ये भी ना हो तो टकटकी लगाकर गैलेक्सी की खिड़कियों को देख लिया जाए, क्या पता किस्मत मेहरबान हो और सलमान खान को हमारी बेचैन आंखों पर तरस ही आ जाए! 

लेकिन आज का दिन बैंडस्टैंड के लिए नहीं बना। आज की शाम बांद्रा की गलियों के नाम है। मुंबई से इश्क होने की पहली वजह है बांद्रा, जिसे अपटाउन भाषा में बैंड्रा कहा जाता है। किसी महानगर का कोई रिहायशी इलाका अपनी तमाम भीड़ और जगह की तंगी के बावजूद इस कदर लुभा सकता है, यकीन करना मुश्किल है। हम माउंट मेरी रोड के घुमावदार रास्तों पर हैं और मुझे ऑटो से उतरकर जॉग करने की इच्छा हो रही है। बगल से गुज़रती विशाल इमारतों का भी अपना एक कैरेक्टर है। सेलेस्टियल, सेरेनिटी और जेड जैसे नामों वाली ये इमारतें यथा नाम तथा रूप हैं। इनके बीच कहीं कोई 'दिलखुश' बंगला है तो कहीं डिसूज़ा विला। हाईराइज़ और बंगलों का ये विरोधाभास बांद्रा की ख़ास पहचान है। 

यूं ही एक बंगले के सामने से गुज़रते हुए खिड़की के भीतर से सलीब पर लटके येशु झांक रहे हैं। उनके चारों ओर लटकती गुलाबी रौशनी की परछाई में एक बूढ़ी महिला बैठकर सब्ज़ियां काट रही हैं। सोचती हूं, क्या मुझे इस घर में जाने की इजाज़त होगी? अगर उनसे कहूं कि सब्ज़ियां मुझे काटने दो और अपनी कहानियों का तड़का लगाकर आज की रात का डिनर भी यादगार बना दो तो क्या वो मान लेंगी? अगर पूछूं कि करोड़ों की ज़मीन पर इस टूटे-फूटे, पुराने जर्जर बंगले को बचाए रखने की सज़ा यहां के प्रॉपर्टी डीलर कैसे देते हैं तो क्या वो रो पडेंगी? उनके महबूब बैंड्रा को ये किसकी काली नज़र लगी है?

हिल रोड से होकर गुज़रते हुए अगल-बगल नज़र आनेवाली तंग गलियों से झांकते घर ख़ास कैथोलिक स्टाईल में बने हैं। ऐसे घर कम ही बाकी रह गए हैं, लेकिन उनकी यहां मौजूदगी इस इलाके को एक ख़ास पहचान देती है। बैंड्रा की ख़ास पहचान यहां के चर्च भी हैं। माउंट मेरी सैंकड़ों साल पुराना चर्च है और उसके बाहर खड़े होते ही लगता है, तीर्थ कर लिया। सैंट एन्ड्रू़ज़ चर्च के सामने फूल और नारियल बिकते देखकर मैं थोड़ी हैरान हो गई। बेटे ने ध्यान दिलाया, सामने साई बाबा मंदिर था। यहां जामा मस्जिद भी है, फायर टेंपल भी। सड़क के कई मोड़ों पर गणपति के मंदिर भी बने हैं। ऐसे ही एक मंदिर में कुछ महीने पहले हम तीज का चढ़ावा रखकर आए थे, पैसे और नई साड़ियों के साथ। अगले दिन गणेश चतुर्थी की पूजा के लिए गए तो टोकरी वैसे के वैसे ही रखी थी। पंडित से पूछा तो उन्होंने कहा, आपने कब कहा कि ये उठाकर रख दिया जाना है। तो पैसे भी किसी ने नहीं उठाए? ये भगवान का मंदिर है, यहां चोरी नहीं होती। वाकई? बांद्रा में ही ऐसा होता होगा, वरना हमने तो सारी चोरियां मंदिरों के नाम पर ही होते देखी हैं।

फैशन की तो मैं बात भी नहीं करना चाहती। लिंकिंग रोड या हिल रोड पर खड़ी होती हूं तो आउटडेटेड होने का अहसास होने लगता है। फैशन हर रोज़ नए रंग बदलती है। इमरान हाशमी, जिनेलिया डीसूज़ा और अदिति गोवात्रिकर साथ शॉपिंग करते मिल जाएं तो यकीन हो जाता है, फ़ैशन के मामले में हम इतने भी पीछे नहीं। कॉफी शॉप, टोटोज़ और पापा पैंचोज़ जैसे रेस्त्रां के बारे में अलग से पोस्ट लिखूंगी कभी। हर नुक्कड़ पर मौजूद इटरी की ख़ासियत पर एन्साइक्लोपीडिया तैयार किया जा सकता है। एक बात और। जितने रेस्त्रां नहीं हैं यहां उतने ब्यूटी पार्लर और स्पा हैं। मतलब, जठरानल के साथ आंखों की प्यास बुझाने के सारे इंतज़ाम।

हाय बैंड्रा, तुझे छोड़कर जाना मुश्किल है। यहां के सब्ज़ी और फल मार्केट से भी जब प्यार हो गया है तो फिर गलियों, कूचों की कौन पूछे। मैं यहां से जाना नहीं चाहती, लेकिन यहां बसना भी तो नहीं चाहती। बड़ी मुश्किल है!

7 टिप्‍पणियां:

Rahul Singh ने कहा…

गुदगुदाती-सी दुविधा.

P.N. Subramanian ने कहा…

मैंने सोचा था "गजब की दुविधा" टिपियादूं परन्तु राहुल जी ने दुविधा में डाल दिया. वाकई बैंड्रा कुछ वैसा ही है.

सागर ने कहा…

आप लिखती रहिये... हम पढ़ते रहेंगे.

rashmi ravija ने कहा…

यहाँ चर्च में भी इशु और मदर मेरी की तस्वीर के ऊपर फूलों की माला चढाने का रिवाज़ है. मोमबत्तियों के साथ लोग फूल मालाएं भी चढाते हैं.

कितना अच्छा लग रहा है...इन इलाकों को आपकी नज़र से देखना...लिखती रहिए

rashmi ravija ने कहा…

मुंबई से इश्क मुबारका हो...:)

{मेरी पहली टिप्पणी स्पैम में गयी...:(}

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

न जाने कितनी रचनात्मकता बसती है मुम्बई में।

रवि रतलामी ने कहा…

भई वाह! एक अलग ही शैली का लेखन. चमत्कृत व चकित करता. हुक्ड फ्रॉम लाइन वन, वर्ड वन.