गुरुवार, 3 नवंबर 2011

जाने दो मुझे, आज जाने दो

बजने दो आज फोन की घंटियां
मर भी जाए तो क्या है
मर जाए एक और डेडलाईन।
गुज़र जाने दो घंटों को 
पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह।
आने दो ई-मेलों को
घबराए हुए कबूतरों की तरह
भरने दो इनबॉक्स।
जाने दो ट्रैफिक के शोर को
किनारे से,
पीछेवाले बजाते रहें हॉर्न 
सरकती रहे एक और भेड़चाल।
उड़ती रहे धूल,
गुज़रती रहे धूप
और निकल जाए आज का दिन भी।
मुझे रुक जाने दो आज, 
जीभर के सांस तो लेने दो,
थोड़ी देर तो और सो लेने दो मेरी जान!



12 टिप्‍पणियां:

P.N. Subramanian ने कहा…

सुन्दर. मेरी बेटी भी यही कहती है "थोड़ी देर तो और सो लेने दो"

Arvind Mishra ने कहा…

सहज ही है छठ के बाद की यह खुमारी भी! भले ही आप छठ अनुष्ठान में न रही हों मगर पढने वाला तो यही समझेगा न और जब वह अभी अभी पिछली पोस्ट पढ़ा हो !

vandana gupta ने कहा…

सच कहा आखिर कब तक भागा जाये कुछ पल चैन से भी जीने दो।

सदा ने कहा…

कभी ये पल बहुत सुकून देते हैं ...बहुत बढि़या।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज 03 - 11 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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Amit Chandra ने कहा…

बहुत खूब. थोड़ी देर ही सही शांति तो मिले.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुकूं भरे पल .. अच्छी प्रस्तुति

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

आदमी की यही बेफिक्री तो गुम हो रही है।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

ise padh lagta hai rukna bhi aaj ki bhag-daud ki jindgi me kitna mushkil hai.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

गुज़र जाने दो घंटों को
पटरियों पर दौड़ती रेल की तरह।
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और मेरा क्या; जिसके आस पास पटरियां या दौड़ती रेलें कभी खतम होती ही नहीं!

विभूति" ने कहा…

बहुत ही खुबसूरत रचना....

Puja Upadhyay ने कहा…

ये तो खास बंगलोर के मौसम के लिए लिखा गया लगता है. यहाँ रोज ही सुबह इतनी प्यारी होती है कि उठने का मन न करे :)