जयपुर आए और राजमंदिर में पिक्चर ना देखी तो क्या खाक जयपुर आए? सोलह साल पहले मामाजी ने ऐसा ही कुछ कहा था। तब ना देख सके तो किस्मत ने एक और मौका दिया। अपने चूजों के साथ हम इस आज़ादी के साथ कभी जयपुर ना घूम पाएंगे। फिलहाल इनकी मर्ज़ी और हमारी इच्छाएं कहीं-ना-कहीं ओवरलैप होती हैं। इस अतिच्छादन और अति सुंदर अवसर का आनंद उठाने के लिए हमें आज रा-वन ने सहारा दिया है। बच्चे शाह रुख अंकल को देख लेंगे और तीन बच्चों की दो मांएं राजमंदिर में पिक्चर देखकर इहलोक संवार लेंगी।
समस्या बस इतनी सी है कि हमने सुबह दस बजे फिल्म देखना तय किया है। बच्चे अंगड़ाई लेते हुए उठे ही हैं, हमारे चेहरों का बासीपन धुला नहीं अभी और एक दिन में हम अल्बर्ट हॉल जाकर कबूतर भी उड़ा लेना चाहते हैं और चोखीधाणी जाकर ऊंट की सवारी भी कर लेना चाहते हैं। अभी चुनौतियां कहां खत्म हुई हैं! रात के रात दिल्ली वापस लौट भी जाना है। बाकी दिन में कुछ समय बचा रह गया तो उनमें से तीन घंटे बच्चों को तीन वक्त खाना खिलाने के लिए भी निकाल दिया जाए।
लेकिन हम किसी से कम नहीं। इस बार जयपुर आना खाक में ना मिल जाए, इसके लिए राह के हर रोड़े हटाने को तैयार हैं। बुद्धा सर्किट पर दौड़ रही रेसिंग कारों की स्पीड से हम बच्चों को तैयार करते हैं, उनके हलक के नीचे कचौड़ी-जलेबी का नाश्ता ठेल दिया जाता है, बचा हुआ तेल और फैट मांओं के लव हैंडल पर जमा हो जाने के लिए चला जाता है और बच्चों को लादकर ऑटो में डाल दिया जाता है। मेरी सहेली को न्यूज़ चैनल की नौ साल की नौकरी से बना रुतबा याद आता है और टिकट के इंतज़ाम की कोशिश शुरू हो जाती है। दो-चार फोन कॉल, झुंड के झुंड कबूतर उड़ाने और अल्बर्ट हॉल के बाहर घोड़े पर बैठकर दो चक्कर लगाने के बीच 12 बजे के शो के लिए टिकटों का इंतज़ाम हो जाता है और हम गिरते-पड़ते राजमंदिर पहुंच जाते हैं।
एक आई-कार्ड के दम पर तीन चूजों के साथ दो मांएं अब पिक्चर हॉल के भीतर हैं। दोपहर की रौशनी की आदी हो चुकी आंखों को लॉबी का आकार और लाइटिंग दोनों एक बार को आंखें मसलने पर मजबूर कर देता है। लॉबी की सीलिंग पर बनी पत्तियां निहारे या अपने बच्चों को अंदर मौजूद भीड़ से बचाएं? किसी तरह उनके लिए बित्ताभर जगह तलाश कर खड़ा कर दिया जाता है और अब वक्त हो चला है कुरकुरे, चिप्स, कोक, फैंटा जैसी ज़िद से जूझने का। आदित खांसते हुए रोता है और रोते-रोते खांसने लगता है। भीड़ है या फैंटा की ज़िंद, लेकिन अब मेरा सब्र चूकने लगा है। हम पॉपकॉर्न और कॉफी पर झगड़ा निपटा लेते हैं। इस बीच मैं आनेवाले फोन कॉलों से बेतरह परेशान हो चुकी हूं। ध्यान कई जगह है, और मन कहीं ना लगा पाने की तो ख़ैर बीमारी है मुझे।
अचानक हॉल का दरवाज़ा खुलता है और हम बिना किसी मेहनत के, बिना कदम उठाए भीतर ठेल दिए जाते हैं। अभी हॉल के भीतर की साज-सज्जा देखने का मौका भी नहीं मिला, ना बच्चों को उनकी सीट पर बिठाया जा सका है कि फिल्म शुरू हो जाती है। 70 एमएम पर्दे का फ्रिल ऊपर क्या जाता है, पूरा हॉल तालियों और सीटियों से गूंजने लगता है। बच्चों ने ना ऐसा स्क्रीन देखा है ना सीटियों तालियों वाला ये माहौल। आद्या गोल-गोल आंखें करके मेरी ओर देखती है और पूछती है, 'यहां शोर मचाने से कोई मना क्यों नहीं करता?' मैं उससे भी बड़ी और गोल आंखें तरेरती हूं, 'चुपचाप बैठ जाओ।'
स्क्रीन के भीतर स्क्रीन, आभासी दुनिया के भीतर एक और आभासी दुनिया के साथ फिल्म शुरू हो जाती है। लगता है कोई वीडियो गेम खेलने बैठ गए हैं हम सब। कैमियो में आई प्रियंका, संजय दत्त और शाहरुख के बीच के सीन तक आते-आते मैं हॉल से बाहर भाग जाने को तैयार हूं। मौका भी मिल जाता है। अचानक कुछ लिजलिजा-सा पैरों पर गिरता है तो तंद्रा टूटती है। फिल्म में प्रतीक की भी, और मेरी भी। होश आने तक ठंडी कॉफी मुझपर आ गिरी है, बचा हुआ पॉपकॉर्न सामनेवालों की सीट पर बिखरा है, पॉपकॉर्न और कॉफी का पैकेट संभालने के क्रम में आदित नीचे जा गिरा है और फास्ट फॉरवर्ड मोशन में मैं आदित के दाएं गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर चुकी हूं। यानि साइ-फाई फिल्म देखते-देखते ढेर सारी कॉमेडी और ड्रामा का ओवरडोज़ भी मिल रहा है आस-पास के लोगों को।
मुझे हॉल से बाहर जाने का बहाना मिल गया है और आदित को करीब-करीब घसीटते हुए मैं वॉश रूम में हूं। हरे चश्मे के पीछे से उसकी आंखें पूछ रही हैं जैसे, 'ऐसी गलती तो ना की थी कि आपने ये सज़ा दी।' इस निःशब्द सवाल के जवाब में बाएं गाल पर एक और चपत लगती है। शुक्र है कि हम राजमंदिर के वॉशरूम में हैं। अव्वल तो फिल्म चालू है तो कोई आएगा नहीं यहां। फिर वॉशरूम के बाहर लगे काउच और आदमकद शीशे हमें दो कोने दे रहे हैं जिनमें एक ओर मुंह घुमाकर सिसकियां लेते आदित का चेहरा मम्मा को दिखता है और मम्मा के आंसू आदित को नज़र आते हैं। ठीक ढाई मिनट में हम एक-दूसरे की बांहों में हैं और मैं उसे सॉरी कहकर गोद में उठा लेती हूं। हॉल में वापस जाने को हूं कि आदित कहता है, 'गोद से उतार दो मम्मा। आपकी पीठ में दर्द होगा।' मैं फिर रो पड़ी हूं।
फिल्म में शेखर (शाहरुख) के मरने के बाद सोनिया (करीना) किसी तरह का इमोशन नहीं जगा पाती, ना संगीत ऐसा है कि रुलाए। लेकिन मैं छुप-छुपकर आंसू पोंछने में लगी हूं। ये भी देख लेती हूं घूमकर कि कोई देख तो नहीं रहा। बीच में कई बार उठकर बाहर आई हूं, कभी आनेवाले ज़रूरी फोन लेने के बहाने, कभी अपराधबोध कम करने के लिए और आंसू गिराने।
जो टुकड़ों-टुकड़ों में फिल्म देखी, उसमें स्टंट्स हैं, स्पेशल इफेक्ट्स हैं, हैरतअंगेज़ सेट्स हैं, और रा.वन और जी.वन के बीच की बेहद प्रेडिक्टेबल और बोरियत से भरी लड़ाई है। क्लाइमेक्स के नाम पर रा.वन के साथ-साथ जी.वन का भी मिट्टी में मिल जाना है। प्रतीक अपनी दुनिया में लौट आता है, लेकिन जी.वन के हृदय को रिवाईव करने के इरादे के साथ। जी.वन लौट आता है और शाहरुख की नीली कॉन्टैक्ट लेंस वाली आंखें स्क्रीन को भेदती हुई हमें देखती हैं। मैं फिर रो पड़ी हूं। इस बार वजह ऐसी है कि ना पूछो तो अच्छा...
रविवार, 30 अक्टूबर 2011
रविवार, 23 अक्टूबर 2011
याद-ए-सीवान से सीवान तक
इस शहर का नाम सीवान है और इससे मेरा रिश्ता अजीब-सा है। लव-हेट जैसा कुछ। मैं लौट-लौटकर हर साल यहां आ जाया करती हूं और इस प्रार्थना के साथ लौट जाती हूं कि या तो एक दिन इस शहर का रंग-रूप, चरित्र बदल जाए या फिर मेरे मां-पापा के बुढ़ापे का पता। ये शहर तंग गलियों, उड़ती धूल, टूटी सड़कें और ढेर सारी भीड़ वाला शहर है। इसी शहर के एक गांव में मैं पैदा हुई और इसी शहर में मेरी मां और मेरे पापा ने अपना बचपन और अपनी जवानी गुज़ारी।
लेकिन मेरे लिए ये शहर एक स्टॉपओवर से अधिक कुछ भी नहीं रहा - पैतृक गांव और ननिहाल जाने के रास्ते में पड़नेवाला वो स्टेशन जहां आप एक रात अपने रिश्तेदारों के यहां रुकते हैं। उनके घर में मौजूद सीली हुई गंध बर्दाश्त करते हुए, कचहरी की ओर से आनेवाले बंदरों के हुजूम की ऊटपटांग कहानियां सुनते हुए, मच्छरों और उमस से भरी रातें छत पर सप्तर्षि को देखकर काटते हुए, ध्रुवतारे को खोजते हुए। इससे अधिक का नाता नहीं होता था इस शहर से। शहाबुद्दीन के ज़माने में तो ये एक रात का नाता भी ख़त्म हो गया था।
स्टॉपओवर लंबा हुआ तो इस शहर में हमें ढेर सारे इंद्रजाल कॉमिक्स मिल जाया करते थे और दो-एक रातें जो मिलती थीं यहां, छत पर ही गुज़र जाया करती थीं, वीसीपी पर फिल्में देखते हुए। यहां फिल्म देखने का भी एक अलग रोमांच था। बात 87-88 की है। यहां बिजली तब भी ईद का चांद ही होती (और अब भी है), इसलिए ट्रैक्टरों की बैट्रियां चार्ज करके लाई जाती थीं। लंबे-लंबे तारों और एक्सटेंशन कॉर्ड की मदद से छत पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी और वीसीपी लग जाया करता। रात में रोटी, दम-आलू और भिंडी की सब्ज़ी के साथ पके हुए मालदह आम का डिनर करने के बाद हम बच्चे अपने-अपने बिस्तरों पर अपनी जगह पकड़ लेते। कैसेट लगाने और फिल्म का शो शुरू करना चाचा का काम होता। जिन पड़ोसियों को हमारी छत पर जगह ना मिलती वो अपनी छतों पर ही कुर्सियां लगा लेते।
मैं अक्सर सोचा करती कि इस शहर में प्रेम करना कितना आसान होता होगा, ख़ासकर तब 'सब्जेक्ट-इन-क्वेशचन' दो पड़ोसी हो। छतों को लांघना बच्चों का खेल हो सकता है यहां, और छत से कूदकर गली से होते हुए बाज़ार की ओर भाग जाना तो और भी आसान। प्रेम में इतनी निडरता ना भी हो तो एक-दूसरे की दीवारों के पार से स्टीरियो पर प्रेमगीत सुनाना भी उतना ही आसान। फिर अपनी-अपनी छतों पर बैठे हुए ऐसे साथ फिल्म देखने का मौका सीवान को छोड़कर किसी और शहर में हासिल करना तो नामुमकिन है। नौ-दस साल की उम्र में ऐसे ख़्याल किसी से बांटे भी नहीं जा सकते थे ना रिश्ते के चाचाओं-बुआओं से छतों के राज़ पूछे जा सकते थे। इसलिए कह नहीं सकती कि मेरे बेतुके ख़्याल किसी की जुगलबंदी बने भी या नहीं।
ख़ैर, फिल्में हमने खूब देखीं गर्मी की छुट्टियों की उन दो रातों में। सारे नाम मुझे अब भी याद है - कमांडो, रामावतार, गुरु, मर्द, नगीना, जीते हैं शान से, लोहा, खुदगर्ज़, स्वर्ग, प्यार झुकता नहीं... (हम यूं ही आज भी गोविंदा और मिथुन के फैन नहीं और कभी अंत्याक्षरी हुई तो इन फिल्मों के गाने अंतरों के साथ सुनाऊंगी।)
गानों से याद आया, जापानी में एक कहावत है - अगर किसी शहर के चरित्र को पहचानना हो तो देखिए कि वहां के लोग किस तरह का संगीत सुनते हैं। सीवान के लाउडस्पीकरों पर बजनेवाले गानों से मुझे हर बार वो कहावत सौ फ़ीसदी सही लगती है। इस साल दुर्गा पूजा में पंडालों के बाहर नए गानों की पैरोडी के अलावा 'सनम बेवफा' और 'लाल दुपट्टा मलमल का' के गाने सुनने को मिले। सीवान में हम एक तरह के टाइम वॉर्प में जीते हैं। कई सालों से शहर एक ही जगह ठहरा हुआ है जैसे। लोग निकलते गए, अपनी बस्तियां अलग-अलग शहरों में बसाते गए। यहां की बस्तियां अभी भी वैसी की वैसी हैं - तंग, रौनकहीन, बिजली की गैरमौजूदगी में लालटेन और लैंपों की टिमटिमाहट पर क़ायम।
मेरे पति कहते हैं, सीवान के लोग बिहार के पंजाबी हैं - सब हो जाई/Everything is possible के रवैए के साथ ज़िन्दगी जीनेवाले, ख़तरे उठानेवाले, ख़तरों में डालनेवाले। लेकिन यहां आकर ऐसा लगता नहीं। शायद पंजाबियत से भरे ख़तरे उठानेवाले सारे लोगों ने हमारी ही तरह सीवान की सरहदों के बाहर ही अपनी क़ाबिलियत दिखाना तय कर लिया है। फिर सीवान क्या बदलेगा? इस शहर को यादों की तरह जीने से ज़्यादा जीने की हिम्मत फिलहाल नहीं है मुझमें।
लेकिन मेरे लिए ये शहर एक स्टॉपओवर से अधिक कुछ भी नहीं रहा - पैतृक गांव और ननिहाल जाने के रास्ते में पड़नेवाला वो स्टेशन जहां आप एक रात अपने रिश्तेदारों के यहां रुकते हैं। उनके घर में मौजूद सीली हुई गंध बर्दाश्त करते हुए, कचहरी की ओर से आनेवाले बंदरों के हुजूम की ऊटपटांग कहानियां सुनते हुए, मच्छरों और उमस से भरी रातें छत पर सप्तर्षि को देखकर काटते हुए, ध्रुवतारे को खोजते हुए। इससे अधिक का नाता नहीं होता था इस शहर से। शहाबुद्दीन के ज़माने में तो ये एक रात का नाता भी ख़त्म हो गया था।
स्टॉपओवर लंबा हुआ तो इस शहर में हमें ढेर सारे इंद्रजाल कॉमिक्स मिल जाया करते थे और दो-एक रातें जो मिलती थीं यहां, छत पर ही गुज़र जाया करती थीं, वीसीपी पर फिल्में देखते हुए। यहां फिल्म देखने का भी एक अलग रोमांच था। बात 87-88 की है। यहां बिजली तब भी ईद का चांद ही होती (और अब भी है), इसलिए ट्रैक्टरों की बैट्रियां चार्ज करके लाई जाती थीं। लंबे-लंबे तारों और एक्सटेंशन कॉर्ड की मदद से छत पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी और वीसीपी लग जाया करता। रात में रोटी, दम-आलू और भिंडी की सब्ज़ी के साथ पके हुए मालदह आम का डिनर करने के बाद हम बच्चे अपने-अपने बिस्तरों पर अपनी जगह पकड़ लेते। कैसेट लगाने और फिल्म का शो शुरू करना चाचा का काम होता। जिन पड़ोसियों को हमारी छत पर जगह ना मिलती वो अपनी छतों पर ही कुर्सियां लगा लेते।
मैं अक्सर सोचा करती कि इस शहर में प्रेम करना कितना आसान होता होगा, ख़ासकर तब 'सब्जेक्ट-इन-क्वेशचन' दो पड़ोसी हो। छतों को लांघना बच्चों का खेल हो सकता है यहां, और छत से कूदकर गली से होते हुए बाज़ार की ओर भाग जाना तो और भी आसान। प्रेम में इतनी निडरता ना भी हो तो एक-दूसरे की दीवारों के पार से स्टीरियो पर प्रेमगीत सुनाना भी उतना ही आसान। फिर अपनी-अपनी छतों पर बैठे हुए ऐसे साथ फिल्म देखने का मौका सीवान को छोड़कर किसी और शहर में हासिल करना तो नामुमकिन है। नौ-दस साल की उम्र में ऐसे ख़्याल किसी से बांटे भी नहीं जा सकते थे ना रिश्ते के चाचाओं-बुआओं से छतों के राज़ पूछे जा सकते थे। इसलिए कह नहीं सकती कि मेरे बेतुके ख़्याल किसी की जुगलबंदी बने भी या नहीं।
ख़ैर, फिल्में हमने खूब देखीं गर्मी की छुट्टियों की उन दो रातों में। सारे नाम मुझे अब भी याद है - कमांडो, रामावतार, गुरु, मर्द, नगीना, जीते हैं शान से, लोहा, खुदगर्ज़, स्वर्ग, प्यार झुकता नहीं... (हम यूं ही आज भी गोविंदा और मिथुन के फैन नहीं और कभी अंत्याक्षरी हुई तो इन फिल्मों के गाने अंतरों के साथ सुनाऊंगी।)
गानों से याद आया, जापानी में एक कहावत है - अगर किसी शहर के चरित्र को पहचानना हो तो देखिए कि वहां के लोग किस तरह का संगीत सुनते हैं। सीवान के लाउडस्पीकरों पर बजनेवाले गानों से मुझे हर बार वो कहावत सौ फ़ीसदी सही लगती है। इस साल दुर्गा पूजा में पंडालों के बाहर नए गानों की पैरोडी के अलावा 'सनम बेवफा' और 'लाल दुपट्टा मलमल का' के गाने सुनने को मिले। सीवान में हम एक तरह के टाइम वॉर्प में जीते हैं। कई सालों से शहर एक ही जगह ठहरा हुआ है जैसे। लोग निकलते गए, अपनी बस्तियां अलग-अलग शहरों में बसाते गए। यहां की बस्तियां अभी भी वैसी की वैसी हैं - तंग, रौनकहीन, बिजली की गैरमौजूदगी में लालटेन और लैंपों की टिमटिमाहट पर क़ायम।
मेरे पति कहते हैं, सीवान के लोग बिहार के पंजाबी हैं - सब हो जाई/Everything is possible के रवैए के साथ ज़िन्दगी जीनेवाले, ख़तरे उठानेवाले, ख़तरों में डालनेवाले। लेकिन यहां आकर ऐसा लगता नहीं। शायद पंजाबियत से भरे ख़तरे उठानेवाले सारे लोगों ने हमारी ही तरह सीवान की सरहदों के बाहर ही अपनी क़ाबिलियत दिखाना तय कर लिया है। फिर सीवान क्या बदलेगा? इस शहर को यादों की तरह जीने से ज़्यादा जीने की हिम्मत फिलहाल नहीं है मुझमें।
मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011
चढ़ती हुई धूप, खुलती हुई हवा
किसको कहूं कि आज की सुबह जैसा हसीन कुछ मुद्दतों में देखा नहीं। देखा है कि पार्क में घुसते ही बाईं तरफ़ जो जॉगिंग ट्रैक शुरू होता है उसके किनारे-किनारे फ्लावर-बेड्स तैयार कर दिए गए हैं। कुछ ही दिनों में उनमें रंग-बिरंगी सर्दियां उतर आएंगी और खिल जाएंगे एस्टर, ज़िनिया, पैंज़ी और डालिया के फूल। आज मैंने लाल-गुलाबी टेंपल फ्लावर देखा है, पहली बार! वरना स्पा की तस्वीरों और समंदर किनारे मनाई जानेवाली छुट्टियों में कानों के पीछे तो हमेशा सफ़ेद टेंपल फ्लावर ही लगा करता है ना?
देखा है कि घास की मखमली चादर पर नंगे पांव चलो तो पैरों के निशां की फिक्र नहीं होती। डर उन शबनमी बूंदों के लिए होता है जो पांवों के नीचे कुचले जाने से बख्शी गईं तो भी चढ़ती धूप से नहीं बच सकेंगी।
देखा है कि ट्रैक के दाहिने तरफ़ मौलश्री के आधा दर्ज़न पेड़ लगे हैं एक साथ। उनके नीचे की छांव एक जगह जमा होती है - ठंडी और मज़बूत। एकजुटता में एकता की बात यूं ही नहीं कही जाती। बाईं तरफ कुछ और पेड़ लगे हैं जिनका नाम नहीं जानती। लेकिन अमलतास जैसे पीले फूल हैं उनमें - गुच्छों में नहीं, डालियों पर। डालियों पर से गिरकर मिट्टी पर बिखरे यही फूल खाद बनेंगे और नए कोंपलों की तरह नए मौसमों की नई पहचान भी।
पीछे चलते-चलते बांस के उलझे-सुलझे पेड़ों से एक बुलबुल फुदककर ट्रैक पर आ जाती है। मेरे बच्चे क्यों साथ नहीं? दिखाती उन्हें कि मीठी आवाज़ के साथ ख़ूबसूरत चेहरे की नेमत पाना मुश्किल ज़रूर है, नामुमकिन नहीं। मैं झुककर लाइलैक को छू लिया है। लैवेंडर के पत्तों को मसलकर खुशबू हथेलियों में भर ली है।
इस सुबह और इतनी सारी ख़ूबसूरती को निहारते हुए इतना थक गई हूं कि बैठ जाना चाहती हूं। मेरे बगल वाली हरे रंग की बेंच पर एक आंटी आंखें मूंदें प्राणायम कर रही हैं। जाने क्यों मेरे भीतर की शरीर लड़की मचली है और ख़्याल आया है कि पूछूं, आंखें मूंदने पर मन का कौन-सा हिस्सा दिखता है जो किसी और को आप दिखाना नहीं चाहेंगी? वो कौन-सा सबसे बड़ा झूठ है जो जीते हैं हम रोज़-रोज़? वो कौन-सा सच है जिससे बचने के लिए यूं आंखें मूंद लेनी होती है कभी-कभी?
सामने पिंक जॉगिंग ट्रैक्स, काले रीबॉक और गुची चश्मे में वॉक करती लड़की से पूछना चाहती हूं, सुबह की धूप बर्दाश्त नहीं होती आंखों को तो कौन-सा सच झेल पाओगी फिर? लाल टीशर्ट में दौड़ते लड़के से पूछना चाहती हूं, जेफ्रीज़ था या रुबी ट्यूज़डे जिसका हैंगहोवर तोंद पर यूं हैंग किए दौड़ जा रहे हो।
सुबह अचानक बड़ी होने लगी है, धूप चुभने लगी है और खुली हुई बदगुमान हवा सिमटने लगी है, जवां होकर खुलकर उड़ने की बजाए पैरों में पायल में डालकर किनारे बैठ गई हो जैसे। घर होने का वक्त हो चला है, मेरे लिए भी, उसके लिए भी।
घर लौटकर आई हूं तो एक भूरी-काली तितली बच्चों के कमरे में दीवार पर जमकर बैठी है। खिड़की और दरवाज़े खुल गए हैं। तितली, बाहर जाओ। पेड़, पत्ते, फूल, रंग, आसमां और बदगुमानी की जगह बाहर है। सिमटी हुई हवा, अंदर आ जाओघर में। मैं और तुम जी लेंगे आज भी। खुलकर बिखरने के लिए एक कोना बहुत है।
रविवार, 16 अक्टूबर 2011
Happily Ever After
Mum is trying to put the twins to sleep. This is a daily ritual - Mum lies in the middle, Adya to her left and Adit to the right. The room is cool enough to forget the dusty night outside. The girl wants Mum to run her fingers in her curly, unruly hair. The boy wants pats on his bum and Mum is trying real hard to synchronise both the actions. And then, they want their bedtime stories too.
Mummy has just begun to soak herself into a sweet slumber and the words from twins reach her ears all jumbled up. (The AC is working well, she thinks). A sharp cry shakes her up, followed by swift action of separating the twins who are by now conjoined into a fight.
"Adya and Adit's turn today," Mum says.
"No, no, no," they oppose vehemently.
Mum turns into an emotional blackmailer.
"Mamma is not well no Adit? Adya, will you not help Mamma sleep tonight? Will you not move your fingers through Mamma's hair?"
"Mamma is big. She doesn't need a story to sleep," says Adit.
"And your hair doesn't smell good Mamma."
"Adya, you can move away then and go to the other room. Adit, no Mamma without a story tonight."
"Right Mamma. So here it goes - once upon a time there was a Hanuman and there was a Ben Ten. You know Ben Ten Mamma? He is the one who fights with the astronauts."
"Not astronauts. He fights with ETs. Extra-terrestrials."
"Who is narrating a story here?" Adit sounds offended.
"Sorry. So Ben Ten and Hanuman meet. And?"
"Oh ho Mamma, they don't meet. You know nothing. They live on a mountain, as brothers."
"Ok, that's interesting. Then?"
"So, they live on a mountain and they fight the demons. You know who demons are? Demons are the ones who don't listen to their Mums. They are not good. They are bad. Are you listening, Adya?"
"Haan haan, carry on. I am thinking of my story," Adya says, almost dismissing Adit's imaginative story.
"Ok Mamma, so they fight the demons and go to school after that. One day Hanuman was going to school... But I don't want to go to school after the summer vacation. Hanuman can go. Ben ten can go. I won't go."
"Adit, we were listening to a story," Adya says.
"It's a part of the story Adya."
"Boring. Very boring."
"..."
"..."
"Accha? Then why don't you say a story?" The sentence is followed by another whack on Adya's left leg which is lying comfortably on Mummy's tummy.
"What is this? Not a happy end to the story," Mum says, exasperated.
"Oh yes, it has a happy ending Mamma. Ben ten, Hanuman, Sonpari and Dora came with us to Purnea in the train. And we all ate a lot of mangoes," Adya says with a smile while Adit sits up to clap.
May all your stories be as simple as this one. Amen!
लेबल:
English,
Motherhood
यूं ही बेवजह
कोई बीज हमने बोया नहीं,
ज़मीं फिर भी सींचने लगे हैं
उम्मीद की।
कोई कोंपल फूटेगी नहींमन की शाख पर फिर भी
लटका ली है हरियाली।
भविष्य के किसी पेड़ पर
कोई डाल अपनी नहीं
फिर भी डाल लिए हैं झूले,
कोई डाल अपनी नहीं
फिर भी डाल लिए हैं झूले,
तेज़ कर ली हैं पींगें।
हमने फिर से सजा ली है
ख़्वाबों की बंजर ज़मीं
सुना है कि पत्थरों के सीने से
भी फूटा करते हैं अंकुर
सूखे दरारों की भी
बदल जाया करती है किस्मत
रेगिस्तान में भी
आ जाया करती है बाढ़।
ऐसे ही जलती-बुझती उम्मीदों में
इसलिए फिर लपेट लिए हैं
कुछ अक्षर
आज फिर यूं ही बेवजह।
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
प्रायश्चित
मुझे वड़नेरा से ट्रेन में चढ़ना था। अहमदाबाद जाने के लिए यही ट्रेन ठीक थी – पुरी अहमदाबाद एक्सप्रेस। सुबह सात बजे तक पहुंच ही जाऊंगा, दिनभर काम करके शाम की राजधानी लेकर दिल्ली पहुंच जाना मुमकिन हो सकेगा। मैं एक डॉक्युमेंट्री फिल्म की शूटिंग के लिए अमरावती आया था। साथ में कैमरा – डीएसआर 450, हम जैसे कैमरामैनों के लिए वरदान। ज्यादा भारी भी नहीं, और शूट क्वालिटी डीजी बीटा जैसी। मेरे साथ मेरा असिस्टेंट था, विजय।
वड़नेरा पर ट्रेन दो ही मिनट रुकती है, इसलिए विजय को मॉनिटर और ट्राईपॉड की ज़िम्मेदारी सौंप मैं दस मिनट पहले ही बोगी के इंतज़ार में खड़ा हो गया। विजय बैठना चाहता था, लेकिन यहां कैमरामैन यानि बॉस मैं था। पीठ पर बैगपैक, कंधे पर लटकता कैमरा और दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट। बगल में स्थानीय अखबार भी दबा लिए थे मैंने। यानि हाथ भी खाली नहीं, दिमाग पर तो ख़ैर बोझ लिए चलते रहने की पुरानी आदत है मेरी।
लेकिन विजय पूरी तरह सफ़र का आनंद उठाने के मूड में था। “ट्रेन आने में अभी देर है सर। चाय पिएं क्या?” बिना मेरे जवाब का इंतज़ार किए वो सामान मेरे बगल में रख चाय की स्टॉल के पास चला गया। जाने क्यों मेरा मन कहीं बैठने को नहीं कर रहा था। एक तो लोहे की कुर्सियां दूर थीं और ये जगह बिल्कुल सही थी मेरे लिए। बोगी यहीं आनी थी और फिर यहां से प्लेटफॉर्म पर लगा टीवी स्क्रीन नज़र आ रहा था जिसमें चित्रहार टाईप के गाने आ रहे थे – पहले संजीव कुमार-शबाना आज़मी का एक गाना और अब मॉनिटर पर ज़ीनत अमान और अमिताभ बच्चन लिपटे खड़े थे। गाने के बोल मुझे यहां तक सुनाई नहीं दे रहे थे, लेकिन स्क्रीन पर चलते गानों को देखकर आदतन दिमाग में भी एक के बाद एक गाने गूंज रहे थे। यहां से हिलने का मतलब था सामान को फिर से रखने और उठाने की मशक्कत, और टीवी पर चल रहे थोड़े-से मनोरंजन से हाथ धो बैठना।
विजय चाय ले आया था, और चाय के साथ कुछ प्याज़ के पकौड़े भी। अगर प्लेटफॉर्म की ओर आते हुए मैंने स्टॉल पर सजे पकौड़ों पर मक्खियां भिनभिनाते नहीं देखा होता तो शायद पकौड़ों से भरा दोना विजय के हाथ से ले लिया होता। लेकिन फिलहाल मैंने अपने हाथ के बिस्कुट और पानी की बोतल बैग में घुसाकर सिर्फ चाय उसके हाथ से ले ली।
ट्रेन के लिए अनाउसमेंट हो चुका था। एसी टू के डिब्बे में यहां से चढ़नेवाले हम दो ही यात्री थे। वैसे भी इस भीषण गर्मी में भला कौन सफ़र करता होगा? ट्रेन आई, एसी टू के पहले कंपार्टमेंट में पहली सीट – 1 नंबर। विजय को 38 नंबर सीट अलॉट हुई थी। लंबी दूरी की ट्रेनों पर किसी छोटे-से स्टेशन पर चढ़ने के कई नुकसान हैं – पहला, आपको सीटें मनपसंद मिल ही नहीं सकतीं, दूसरा – अपनी-अपनी सीटों पर पसरे दूर से आ रहे सहयात्रियों और उनके भारी-भरकम बक्सों के बीच अपना सामान घुसाना नामुमिकन और तीसरा, गंदे टॉयलेट। तीसरे नुकसान का ख्याल आते ही दिमाग भन्नाया। यहां तो नीचे की दोनों सीटों पर लोग यूं भी पहले से कब्ज़ा जमाए थे।
सफेद चादर के पीछे से एक 70-75 साल का चेहरा निकला। झुर्रियों के बीच से बिना दांतोंवाले अंकल मुस्कुराए, “ऊपर तो नहीं जा सकूंगा। आप सीट बदल लेंगे क्या?” दांत ना होने की वजह से उनकी बात उनके बोलने से कम, उनके हाथ के इशारों से ज्यादा समझ में आई। दूसरी तरफ नीचे वाली सीट पर लेटी महिला ने ना किताब से सिर उठाना ज़रूरी समझा, ना सीट के नीचे बिखरी अपनी चप्पलों, झोलों, न्यूज़पेपर के टुकड़ों और खाने की प्लेट के बीच से मेरे लिए जगह बनाने की ज़ेहमत उठाना।
अभी तक मैं कैमरे को कंधे पर लिए-लिए ही खड़ा था, बिल्कुल उसी मुद्रा में जैसे प्लेटफॉर्म से ट्रेन पर सवार हुआ था - पीठ पर बस्ता, कंधे पर लटकता कैमरा, दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट। “सीट तो मैं बदल लूंगा लेकिन आप इन मोहतरमा को मेरे लिए जगह बनाने को क्यों नहीं कहते?” मैंने झल्लाते हुए कहा।
“हम साथ नहीं हैं,” किताब के पीछे से ठंडी-सी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन अभी भी उन्होंने उठकर सामान समेटने की कोई कोशिश नहीं। अब मेरे तेवर में पूरी गरमी आ चुकी थी। मैंने अपने पैरों से ही उनकी चप्पलें और जूठी प्लेट को ज़ोर से मारकर डिब्बे के गलियारे में कर दिया। मैडम का पढ़ना अब भी बंद ना हुआ, ना ही मेरी ठोकर की उन्होंने कोई परवाह की। कंबल के नीचे से पैरों में एक हल्की-सी हरकत हुई बस। लेकिन आंखें किताब पर ही थी। मैं भी किताब का नाम देख चुका था अबतक – “प्रेमाश्रम।”
अब मैंने चिढ़कर सीट के नीचे से सामान खींचना शुरू किया। लेकिन खींचता भी कैसे? सामान लोहे की कड़ियों से बंधे थे।
“आप अपना सामान समेटेंगी या मैं ट्रेन से बाहर कर दूं इनको?” भद्र महिला ने अभी भी उठना उचित ना समझा।
“ऐसे कैसे बाहर कर देंगे आप? दूसरी सीट के नीचे इतनी जगह पड़ी है, वो नहीं दिखती?“
“नहीं दिखती। सिर्फ बदतमीज़ी दिखती है। शाम के साढ़े पांच बज रहे हैं। ये कोई वक्त है लेटे रहने का? आपसे इतना भी ना हुआ कि पैर समेटकर साथवाले मुसाफिर के लिए जगह बना दें? और अंकल आप, हां, हैलो, अंकल... मैं आपसे बात कर रहा हूं। बेशक नीचेवाली सीट ले लीजिए। लेकिन अगले तीन घंटे के लिए मुझे बैठने की जगह तो दीजिए।“ बुजुर्ग सज्जन हड़बड़ा के उठ गए।
मैंने पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट सीट पर इतनी ज़ोर से फेंका कि पैकेट के भीतर से ही बिस्कुट के टूटने की आवाज़ भी सुनाई दी। करीब-करीब इसी गुस्से में मैं सीट पर पसरी महिला को डिब्बे के बाहर फेंक देना चाहता था। लेकिन मेरी झल्लाहट का उनपर कोई असर नहीं हुआ और वो वैसे ही लेटे-लेटे किताब पढ़ती रहीं। मैंने भी अपना चेहरा अख़बार के पीछे छुपा लिया, लेकिन मेरे दिमाग की बड़बड़ाहट कम ना हुई।
“जाने क्या समझते हैं ऐसे लोग अपनेआप को? एक सीट रिज़र्व करते हैं और पूरी ट्रेन को अपने बाप की जागीर समझ लेते हैं। सिविक सेन्स तो है ही नहीं। जहां खाया वहीं फेंक दिया। यहां भी इनके लिए नौकर आए चप्पलें और सामान समेटने। पढेंगे प्रेमाश्रम और समझेंगे खुद को भारी इन्टेलेक्चुअल। प्रेमचंद को ही पढ़ना है तो ‘गोदान’ पढ़ो, ‘गबन’ पढ़ो, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ पढ़ो। उनकी कहानियां पढ़ो। लेकिन पढ़ने चले हैं प्रेमाश्रम। कुछ और मिला ही ना होगा स्टेशन के बुक स्टॉल पर। मिला होगा लेकिन समझ में ही ना आया होगा। प्रेमचंद का नाम देखकर महारानी जी ने किताब उठा ली होगी, बस।“ मन-ही मेरा भुनभुनाना जारी रहा।
“थेपला खाओगे?” बिना दांतों वाले अंकल ने अचानक पूछा और मैंने हड़बड़ाते हुए ना चाहते हुए भी उनके खाने के डिब्बे से एक टुकड़ा निकाल लिया। मेरा थेपला उठाना ही मेरे लिए भारी पड़ गया। अंकल तो जैसे मौके की ताक में बैठे थे। छूटते ही उन्होंने बातों का पिटारा खोल दिया।
“मेरा नाम जेपी घोघारी है, जयप्रकाश घोघारी। मैं यवतमाल का हूं और अहमदाबाद जा रहा हूं, बेटे और बहू के पास। मैं गुजराती हूं लेकिन हमलोग तकरीबन सौ सालों से यवतमाल में ही रह रहे हैं। आप कहां के हैं बेटे?”
“मैं ओडिशा का हूं,” मेरा जवाब संक्षिप्त था। ज्यादा बोलने का मतलब था उनसे बातचीत को बढ़ावा देना, जो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था।
“ओडिशा के? कहीं आप दूसरी ओर की ट्रेन में तो नहीं बैठ गए? ये ट्रेन पुरी से अहमदाबाद जा रही है, अहमदाबाद से पुरी नहीं।”
“जानता हूं,” मैंने खीझते हुए कहा, “मैं अहमदाबाद ही जा रहा हूं।”
“अच्छा अच्छा। यही तो ख़ासियत है हमारे देश की। हम वाशिंदे कहीं के होते हैं, बसते कहीं जाकर हैं। अमरीकियों की तरह नहीं होते जहां ईस्ट कोस्ट के लोगों ने वेस्ट कोस्ट देखा भी नहीं होगा। अब मुझे ही देख लीजिए। मैं गुजरात का। पला-बढ़ा महाराष्ट्र में। पूरी ज़िन्दगी नौकरी की दिल्ली में और अब रिटायरमेंट के बाद नागपुर में रह रहा हूं, अपने बड़े बेटे के पास। अभी छोटे बेटे के पास जा रहा हूं, अहमदाबाद।”
मैंने करीब-करीब टालनेवाले लहज़े में सिर हिलाकर कहा, “अच्छा।”
लेकिन घोघारी साहब का घों-घों करते हुए बोलना कम नहीं हुआ। “मैं स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों के परिवार से हूं। हमारे जैसा गुजराती परिवार ना देखा होगा आपने। महाराष्ट्र में रखकर हमने मराठी संस्कृति को अपनाने में कोई कोताही नहीं बरती। आप गोपाल कृष्ण गोखले को जानते हैं?”
“जी, जानता हूं। इतिहास में पढ़ा है उनके बारे में,” मैं अबतक नहीं समझ पाया था कि मैं क्यों उनकी बक-बक ना सिर्फ सुन रहा था बल्कि उन्हें बोलने के मौके भी दे रहा था। मुझे अपने बैग में रखी किताबें याद आ रही थीं, कितना कुछ था पढ़ने के लिए – विलियम डैलरिम्पिल, मार्केज़ और एक नाजीरियन लेखिका जिनका नाम याद नहीं आ रहा था अभी।
“पढ़ा होगा। ज़रूर पढ़ा होगा। महान हस्ती थे गोखले। मेरे दादाजी के बहुत करीबी दोस्त। जानते हो मेरे दादाजी यवतमाल मिडल स्कूल के प्रिंसिपल थे। जब 1915 में गोखले मरे तो उन्होंने अपने स्कूल में एक शोक-सभा आयोजित की। फिर क्या था, अंग्रेज़ों ने उन्हें नौकरी से निकालकर जेल में डाल दिया।”
“हम्म।” अचानक मुझे उसे नाइजीरियन लेखिका का नाम याद आ गया – अदीची, चिदामामन्दा गोज़ी अदिची। मैंने अपने बैग की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि घोघारी अंकल ने मुझे बीच में ही रोक दिया।
“अरे बैठो ना बेटा। जानते हो, कहते हैं कि गोखले जी स्ट्रेस से मरे थे, तनाव से। बड़ी कम उम्र में ही मौत हो गई थी उनकी, 49 साल भी कोई उम्र होती है मरने की?”
“उस ज़माने में, आज से सौ साल पहले भी लोग स्ट्रेस से मरते थे, नहीं?” मेरी आवाज़ में व्यंग्य था।
“स्ट्रेस कैसे ना होता? देश गुलाम था। अपने आस-पास, परिवार-समाज-देश पर आप आख़िर कितना अत्याचार देख सकते हैं? आप ज़रा भी संवेदनशील होंगे तो आपको परेशानी तो होगी ही, तनाव तो होगा ही,” सामने लेटी हुई महिला एक सांस में ही बोल गई। इस अप्रत्याशित जवाब का कोई जवाब मैं ना दे पाया।
घोघारी अंकल ने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। कैसे उनके पिता स्कूल के दिनों में ही आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे, कैसे दादाजी के घर की कुर्की की अफ़वाह सुनते ही दादी ने आठ बच्चों के पूरे परिवार को अपने पड़ोसी के तबेले में छुपा दिया था, कैसे उनका बचपन आज़ादी की कविताएं लिखते-सुनते बीता और कैसे एक आज़ाद भारत के साठ सालों को देखने का सुख उन्हें भाव-विभोर कर देता है...
मैं अब भी निश्चेष्ट श्रोता ही बना रहा, बीच-बीच में हां-हूं से ज्यादा मेरी भागीदारी नहीं थी। लेकिन वो महिला बहुत देर तक लेटे-लेटे ही घोघारी जी से घुल-मिलकर बातें करती रही, जैसे मुद्दतों की दोस्ती थी उनकी।
ट्रेन दस बजे के आस-पास भुसावल पहुंची। मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं था, इसलिए यहीं प्लेटफॉर्म पर उतरकर कुछ खाने के इरादे से उतरने लगा कि मुझे विजय की याद आई। इस गहन बातचीत को सुनते रहने के क्रम में मैं उसे तो भूल ही गया था। मैं उठने लगा कि उस महिला ने मुझसे उड़िया में कहा, “ट्रेन रू ओलिहबे कि? मो पाईं पाणिर बोटल आणिबे कि? (नीचे उतरेंगे क्या? मेरे लिए पानी की एक बोतल ले आएंगे?”)
“आपको कैसे मालूम चला कि मैं उड़िया बोलता हूं?” मैंने हैरान होकर पूछा।
“आप ही ने तो सामनेवाले अंकल को बताया कि आप ओड़िशा से हैं?”
“ओ हो, तो आप किताब पढ़ने का स्वांग रच रही थीं। आपका ध्यान तो दरअसल हमारी बातों पर था,” मैं फिर अपने व्यंग्य पर उतर आया था।
महिला ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, घूमकर लेट भर गईं। मुझे अपने ऊपर बड़ी कोफ्त हुई। ये कमबख्त ज़ुबान अपने नियंत्रण में कभी होती क्यों नहीं? फिसलने और ज़हर उगलने की बुरी आदत है उसको। लेकिन माफ़ी मांगने की हिम्मत ना हुई। मैंने अंकल की ओर घूमकर पूछा, “आपको कुछ चाहिए क्या?” अंकल ने हाथ के इशारे से मना किया, कहा कुछ नहीं।
मैं भारी मन से प्लेटफॉर्म पर उतर गया। कुछ खाने की इच्छा नहीं हुई। विजय के लिए खाना पैक कराकर मैं दूसरे दरवाज़े से डिब्बे में चढ़ा और उसे खाने का पैकेट पकड़ाकर फिर प्लेटफॉर्म पर उतरकर टहलने लगा। एक बार जी में आया, जाकर माफ़ी मांग लूं। लेकिन अहं ने डिब्बे के दरवाज़े पर एक बांस का मोटा बल्ला डाल दिया था, उछलकर लांघना भी मुश्किल, झुकना तो ख़ैर नामुमकिन। मैं अपनी ऊहापोह से जी चुराने के लिए सिगरेट के गहरे कश लेता रहा।
ट्रेन के खुलने के सिग्नल के बाद जब पानी की बोतल लिए डिब्बे में वापस पहुंचा तो कम्पार्टमेंट की बत्तियां बुझाकर मेरे दोनों सहयात्री सो चुके थे। मैं भी ऊपर वाली सीट पर लेटे-लेटे रीडिंग लाईट जलाकर कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा, फिर सो गया।
सुबह नींद खुली तो ट्रेन अहमदाबाद पहुंचनेवाली थी। सभी यात्री अपने-अपने सामान समेटने लगे थे। घोघारी अंकल भी अपनी चप्पलें समेटकर बैग में रखने लगे थे। मैं भी नीचे उतरकर जूते पहनने लगा। लेकिन सामनेवाली सीट पर लेटी महिला वैसे ही दूसरी ओर घूमकर सोती रही।
मुझसे रहा नहीं गया। पश्चाताप करने के इरादे से मैंने उन्हें ज़ोर से आवाज़ देते हुए उड़िया में कहा, “आप सो रही हैं? अहमदाबाद आनेवाला है। आपको सामान निकालने में कोई मदद चाहिए?”
उस महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने घोघारी अंकल की ओर बड़ी उम्मीद से देखा, लेकिन वे बड़ी मसरूफियत के साथ अपने जूतों के तस्मे बांधने में लगे थे।
ट्रेन के अहमदाबाद पहुंचते ही कुलियों के साथ-साथ एक चौबीस-पच्चीस साल का शख्स डिब्बे में घुस आया और हमारे सामने लेटी महिला के पास आ खड़ा हुआ।
“दीदी! दीदी! तमो फोन बॉन्द काहि कि ओछि? मू बहूत सोमोयो रू चेष्टा कॉरूछि? कितनी चिंता हो रही थी मुझे। फोन तो ऑन रखती।”
“नहीं रे, फोन डिस्चार्ज हो गया था, इसलिए बंद हो गया। अब मैं चार्ज करने के लिए पावर प्वाइंट तक पहुंचूं तब ना?” पिछले चौदह घंटों में पहली बार मुझे महिला के चेहरे पर हंसी की एक लकीर नज़र आई थी।
“किसी की मदद ले लेती। अपने सहयात्रियों से कह देती,” भाई की आवाज़ में अब भी परेशानी घुली थी।
“हां रे, मेरे सहयात्री बड़े अच्छे हैं, बड़ी मदद करनेवाले। मैंने ही नहीं कहा,” इस बार व्यंग्य महिला की आवाज़ में था।
इसी बातचीत के बीच भाई नीचे से सामान खींच-खींचकर सीट पर रखता गया। सामान से साथ एक व्हील चेयर और एक जोड़ी बैसाखियां भी थीं। सामान निकालने के बाद उसने अपनी बहन को पकड़कर बिठाया और तब मुझे अहसास हुआ कि महिला की दाहिनी टांग की जगह एक कृत्रिम टांग लगी थी।
मुझे जाने ऐसा क्यों लगा कि मुझपर घड़ों पानी पड़ गया हो। मैं अब ना उस महिला से आंख मिला पा रहा था ना घोघारी अंकल से। जाते-जाते उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया तो भी मेरा ध्यान व्हील चेयर पर ही था। भाई ने कुली की मदद से एक-एक करके सामान उतारा और अपनी बहन को भी डिब्बे से उतारकर व्हील चेयर पर बिठाया।
मैं भारी मन से सीट पर ही बैठा रहा। फिर विजय के आने के बाद सामान उतारने के लिए वॉश बेसिन के पास जाकर खड़ा गया। मेरी नज़र के ठीक सामने एक स्टिकर चिपका था – “आप भाग्यवान हैं कि आपके हाथ-पैर सलामत हैं। लेकिन संसार में कई ऐसे लोग हैं जो शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हैं। यदि आप ऐसे किसी व्यक्ति की आर्थिक मदद करना चाहें तो निम्नलिखित पते और फोन नंबर पर संपर्क करें…”
मैंने अपने मोबाइल फोन में नंबर सेव कर लिए। मेरा प्रायश्चित हो सके, इसके लिए बहुत ज़रूरी था कि मैं जल्द-से-जल्द इस नंबर पर संपर्क करता।
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