सोमवार, 29 अगस्त 2011

बोरसोरा क्यों याद आता है बार-बार

शिलॉन्ग बहुत ख़ूबसूरत शहर है। लेकिन शहर से बाहर निकलते ही खासी पहाड़ियों से होकर गुज़रते हुए लगता है, इन पहाड़ों को नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। हम शिलॉन्ग से दक्षिण की ओर बढ़ आए हैं, नेशनल हाईवे से उतरकर पहाड़ों के बीच से होते हुए बांग्लादेश सीमा की ओर जा रहे हैं। शिलॉन्ग से कुछ 50 किलोमीटर दूर हम मॉसिनराम पहुंचे हैं। मॉसिनराम में चेरापूंजी से भी ज़्यादा बारिश होती है, और देश की सबसे गीली जगह यही है - मुझे वहीं पहुंचकर पता चलता है। ये शहर किसी कैलेंडर की तस्वीर जैसा लगता है। हरी-भरी, हसीन पहाड़ियों पर उतर आए बादल, बादलों के बीच छोटे-से टीले पर दिखता सफेद चर्च और बीच-बीच में खिले लाल-पीले पहाड़ी फूल।

लेकिन हमारी मंज़िल मॉसिनराम नहीं है। हमें भारत-बांग्लादेश सीमा पर मौजूद पश्चिम खासी पहाड़ियों के बीच बोरसोरा गांव जाना है। बोरसोरा में लैंड कस्टम स्टेशन है, जहां हमें अपनी फिल्म के लिए शूटिंग करनी है। बोरसोरा शिलॉन्ग से बोरसोरा की दूरी मात्र 130 किलोमीटर है। हमारा अपना अनुमान है कि ये दूरी हमें अगले चार घंटों में तय कर लेना चाहिए।

मॉसिनराम से निकलते-निकलते ये अहसास हो गया है कि ये दिल्ली-जयपुर हाईवे नहीं कि हम 130 किलोमीटर की दूरी देखते-देखते तय कर लेंगे। ना ये उत्तरांचल, हिमाचल के पहाड़ी रास्ते हैं जिनपर स्थानीय लोग कम, सैलानी अधिक दिखते हैं। खासी पहाड़ियों से गुज़रते-गुज़रते गांव भी पीछे छूटने लगते हैं। मीलों तक पंछी भी पर मारते नज़र नहीं आते, मोबाइल के नेटवर्क काम नहीं करते, कहीं दूर-दूर तक पानी भी नहीं मिलता। रास्ता ऐसा है कि सड़क के नाम पर ऊंचे-नीचे गड्ढे बचे हैं। गाड़ी के हिचकोलों में शिलॉन्ग में किया हुआ चीज़ ऑमलेट का नाश्ता बाहर निकल पड़ने को बेकरार है। दिमाग में एक मनहूस ख़्याल आता है - ख़ुदा ना ख़ास्ता अगर गाड़ी खराब हो गई तो क्या करेंगे!

और होता भी वही है। मैं सरकारी गाड़ी में कमिश्नर साहिबा के साथ हूं। लड़कों को (जिनमें मेरे पति और कैमरामैन शामिल हैं) एक जीपनुमा गाड़ी में भेज दिया गया है। लड़के तो बच जाते हैं, हमारी गाड़ी धोखा दे जाती है। एक वीरान रास्ता, दूर-दूर तक पहाड़ और जंगल, सड़क पर कमर पर हाथ रखे खड़ी दो महिलाएं और गाड़ी के इंजन से जूझता ड्राईवर। परफेक्ट! सफ़र इससे बेहतर क्या होगा!

जाने कितनी देर इंतज़ार किया है हमने। पंद्रह मिनट, आधा घंटा या एक घंटा - इससे क्या फर्क पड़ता है। आख़िरकार एक लोकल गाड़ी हम दोनों महिलाओं के लिए रुकती है, गाड़ी में बैठे स्थानीय लोगों को देखकर हम फीकी-सी मुस्कान देते हैं, कुछ अंग्रेज़ी-कुछ हिंदी में अपनी बात समझाते हैं और उस गाड़ी में किसी तरह अंटकर जीप को पकड़ लेने के लिए निकल पड़ते हैं। ये भी नहीं मालूम कि हमसे आगे निकली गाड़ी कहां मिलेगी, या बोरसोरा नाम की जगह है कितनी दूर। उसपर से ये गाड़ी हमें जाने कहां ले जाए।

जान में जान नीचे बहती नदी, उसपर बने एक पुल और पुल पर खड़ी सफेद जीप को देखकर आती है। जीप से लड़के निकलकर नीचे बहती नदी से उठकर आती ठंडी हवा का मज़ा ले रहे हैं। कमिश्नर साहिबा शांत हैं, लेकिन मेरा दिमाग खौल रहा है। घड़ी की ओर देखने की हिम्मत नहीं हो रही, लेकिन पेट में पड़नेवाली मरोड़ से लगने लगा है कि लंच का वक्त बहुत पहले निकल चुका है।

अब हम सारे-के-सारे जीप में ठूंस दिए गए हैं और अपनी मंज़िल - बोरसोरा - के लिए निकल पड़े हैं। रास्ते में जंगलों और पहाड़ों को देखकर मेघालय में तेज़ी से चल रहे अवैध खनन की ख़बरें याद आने लगी हैं। जगह-जगह खाली, उदास, टूटे-फूटे पहाड़ मुंह चिढ़ाते नज़र आते हैं। इनसे लाइमस्टोन निकाल लिया गया है, कोयले के लिए इन्हें चूर-चूर कर दिया गया है। पहाड़ियों के बीच बसे गांव अब किसी उदास पेंटिंग की तरह लगते हैं। पेंटिंग ही हों तो कितना अच्छा हो! वरना जीने के लिए यहां कितना संघर्ष करना पड़ता होगा, ये सोचकर मन घबरा जाता है। बीच-बीच में धान, मकई, आलू, अनानास और केले की फसलों के बीच सुख और हरियाली के चिन्ह मिल जाया करते हैं। लेकिन सड़क अभी भी ना के बराबर है।

दूसरी ओर से आते कोयले से लदे ट्रकों को देखकर बोरसोरा के करीब होने का अहसास होने लगा है। अबतक जो सड़क थी, अब काली-कलूटी नागिन लगती है। खुरदुरी, कोयले की खान से निकली, बदसूरत और जानलेवा। दूर से जो गांव दिखाई देता है, गांव कम, उजड़ी हुई बस्ती ज्यादा लगता है। टूटे-फूटे मकानों की छतों पर कोयले का रंग पसरा है। लोग भी कोयले-से ही दिखाई देते हैं।

प्यास और भूख से जान जा रही है। समझ में नहीं आता, यहां मिलेगा क्या। वैसे 130 किलोमीटर का रास्ता हमने आठ घंटों में तय किया है। शाम ढलने लगी है और सूरज भी कोयले की खान में उतरता-सा लगता है। हम लैंड कस्टम स्टेशन के दफ्तर पहुंचे हैं। झोंपड़ीनुमा घर में दफ्तर भी है और यहां तैनात कर्मचारियों के लिए रहने की जगह भी। ज़ाहिर है, बोरसोरा की पोस्टिंग पनिशमेंट पोस्टिंग ही मानी जाती होगी।

लेकिन यहां पांच तरह की सब्ज़ियां, दाल, मछली, चिकन और पुलाव हमारा इंतज़ार कर रहा है। कुछ भूख है और कुछ खाने की लज़्जत, हमें खाना खत्म करते-करते एक घंटा लग जाता है। अगले पंद्रह मिनट तक हम उस बंगाला कुक का आभार व्यक्त करने में लगाते हैं, जिसने हमारे लिए इतना स्वादिष्ट खाना बनाया।

अब भरे हुए पेट और अघाए मन के साथ रिएलिटी चेक की बारी है। दफ्तर से निकलकर सीमा तक जाना है, जहां से कोयला बांग्लादेश भेजा जाता है। हम गांव के छोटे-से बाज़ार से होकर गुज़रते हैं। दो-चार दुकानों में समोसे और जलेबियां तली जा रही हैं, एक-दो रोज़मर्रा की चीज़ों की दुकान है और दो-चार दुकानों में कपड़े बिक रहे हैं। दवा की दुकान एक भी नहीं, ना फलों की दुकानें हैं। रास्ते में मालूम पड़ता है कि बांग्लादेश की ओर नज़र आनेवाला गांव भी बोरसोरा ही कहलाता है। बांग्लादेश से हज़ारों की संख्या में मजदूर कोयले की खानों में अवैध तरीके से काम करने आते हैं। सीमा के आर-पार जाना बहुत आसान है क्योंकि कहां भारत खत्म होता है और बांग्लादेश शुरू, इसकी जानकारी कम ही लोगों को है। और तो और, बोरसोरा में लोग (यहां तक कि सरकारी कर्मचारी भी) बांग्लादेशी मोबाइल नेटवर्क का इस्तेमाल करते हैं। बीएसएनएल यहां बड़ी मुश्किल से काम करता है और प्राइवेट सर्विस ऑपरेटर तो ख़ैर यहां पहुंचे ही नहीं। ये भी होता है कई बार कि किसी की बीमारी में बांग्लादेश से डॉक्टर बुलाकर लाए जाते हैं। बोरसोरा में प्राइमरी हेल्थ सेंटर नहीं है, और बीमारियां इतनीं कि मलेरिया, कालाज़ार से बच भी गए तो बाढ़ के बाद होनेवाली बीमारियां जान ले लेंगी। रही-सही कसर कोयला माफिया और सरकारी नुमाइंदों की मिलीभगत निकाल देती है।

आज मुझे बोरसोरा की वो यात्रा क्यों याद आ रही है? सोचती हूं कि हर मायने में हाशिए पर बसे उस गांव का हमारे लिए क्या वजूद है? अन्ना का अनशन, भ्रष्टाचार खत्म करने की मुहिम और हमारी हाय-हाय वहां रहनेवाले लोगों की ज़िन्दगी में क्या फर्क ला सकेगी? ये भी सोचती हूं कि कानून आ भी गया तो कितना फर्क पड़ेगा? हमारे पास वैसे ही कई कानून, कई योजनाएं नहीं हैं? फोरेस्ट राइट्स एक्ट नियमगिरी पहाड़ियों को बचा सकेगा? नरेगा से गरीबी खत्म हो जाएगी? जाने फूड सेक्योरिटी एक्ट का क्या हुआ, लेकिन एक्ट दोनों सदनों से पारित हो भी जाए तो भूख मिटाई जा सकेगी?

सिनिकल होना आसान है, उम्मीद बनाए रखना बहुत मुश्किल। लेकिन एसी कमरे में बैठकर टीवी पर अन्ना की जीत का जश्न देखना और लैपटॉप पर ये पोस्ट लिख डालना भी उतना ही आसान है, बोरसोरा की हक़ीकत भुला देना बहुत मुश्किल।







8 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

सिनिकल होना आसान है, उम्मीद बनाए रखना बहुत मुश्किल। लेकिन एसी कमरे में बैठकर टीवी पर अन्ना की जीत का जश्न देखना और लैपटॉप पर ये पोस्ट लिख डालना भी उतना ही आसान है, बोरसोरा की हक़ीकत भुला देना बहुत मुश्किल।

बहुत जरुरी और सार्थक ! सलाम.

Manoj K ने कहा…

that is real field work, liked the post very much. i used to do field work in my university days.. As our guide always said..everything under the sun is anthropology..

i must say the entire journey and your keen observation has made this post beautiful !!

SANDEEP PANWAR ने कहा…

होता है कभी-कभी ऐसा भी सफ़र में
अपने आप को हर तरह के हालात के लिये तैयार रखना चाहिए, ये अच्छा है कि मोबाइल काम करते है
चाहे भारत के ना हो? पर करते तो है ना?

Arvind Mishra ने कहा…

बोरसोरा का रोमांचक यात्रा वृत्तान्त
दो बात खटकी ..
कमिश्नर साहिबा कैसे बेबस हुईं?
और मन भी कभी अघाता है क्या ?

Prashant Raj ने कहा…

Baat yeh nahin hai ki tum jahaan gayi wahaan farak padega yaa nahin....jahaan farak padega wahaan to farak padne dete hain!!

सतीश पंचम ने कहा…

रोचक विवरण!
मैंने अब तक टीवी पर ही देखा है पूर्वी भारत को, देखें कब बदा है मेरे लिये उस ओर जाना।

Rahul Singh ने कहा…

सहज और सपाट बयानी भी रोमांच पैदा करती है, अविस्‍मरणीय.

दर्शन कौर धनोय ने कहा…

khub????