शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

शॉट सर्किट से बचने के लिए

फेसबुक पर किसी बहुत पुराने दोस्त ने कमेंट छोड़ा है, कैसे करती हो ये सब। सुबह से सोच रही हूं, कैसे करती हूं! और क्या करती हूं? दिल की भड़ास कभी खुद लिखकर, कभी किसी का लिखा हुआ पढ़कर मन-ही-मन रोने और हंस लेने से निकल जाया करती है तो ये काम मैं बखूबी करती हूं। लिखना ‘therapeutic’ होता है तो होता हो। रो लेना भी होता है। कभी आंसुओं में, कभी गीतों में, कभी कविताओं-हाइकुओं में, कभी फेसबुक स्टेटस मेसेज में, कभी दिल का हिस्सा अपने लिखे फ़सानों में छोड़ आने में – इन सब तरीकों के अलावा खुद को दुरुस्त रखने का कोई और शऊर आता नहीं मुझे।

मैं रिश्तों के मामले में बहुत खुशकिस्मत हूं। मेरी बेटी पूछा करती है, जितने भाई आपके हैं उतने मेरे क्यों नहीं। फेसबुक पर तीन सौ से ज्यादा दोस्त हैं मेरे। फोनबुक में उससे भी ज्यादा दोस्तों के नंबर सेव्ड हैं। लेकिन फिर भी अक्सर होता है कि ऊपर से नीचे तक पूरा स्क्रोल देख जाती हूं। सोचती हूं, किससे बात करूं, किसको ख़त लिखूं, किससे पूछूं मिज़ाज कैसा है, किसको कहूं कि आज कास के फूलों को खिलते देखा है, मौसम बदल रहा है, बरसात अपनी नमी पीछे छोड़े जा रही है।

ये कैसी जद्दोजेहद होती है खुद की खुद से! हम कितने रिश्तों में बंधे होते हैं, कितने लोगों के अपने होते हैं, लेकिन फिर भी कितनी तन्हाई होती है भीतर। शोर बाहर होता है, खामोशी भीतर परेशान किए जाती है। कभी ऐसा हुआ है कि भीड़ में बहुत सारे लोगों के बीच बैठे हुए भी आप खुद को तलाशने के लिए किसी खाई में गिरता हुआ सा महसूस करते हैं? मेरे साथ अक्सर होता है। कल रात का सपना अचानक याद आ रहा है – मैं पानी के भीतर हूं, सिर के ऊपर तक पानी, पैरों के नीचे तक पानी... ज़मीन का कोई नामोनिशां नहीं। लेकिन पानी ने डराया नहीं है, मैंने पानी में कुछ अक्स उभरते देखे हैं। याद नहीं कौन-कौन थे। एक बाबा याद हैं, और दूसरा हृतिक रौशन है शायद। :-)  

इस सपने के मायने नहीं ढूंढूंगी , ना बिंबों, प्रतीकों के मतलब निकालूंगी। डूबकर ही सही, डर थोड़ी देर के लिए गायब तो हुआ है।

कई बार लिखने का कोई मकसद नहीं होता। आज भी नहीं है। लिखे जा रही हूं क्योंकि लिखा नहीं तो इस डर को डॉक्युमेंट करके नहीं रख पाऊंगी। बता नहीं पाऊंगी बच्चों को कि इतना आसान भी नहीं था जीना। रोज़-रोज़ हम कई तरह की अनुभूतियों से गुज़रते हैं। दिमाग और दिल के बीच कई तार जाते हैं और शॉर्ट-सर्किट अक्सर हो जाया करता है। जब ऐसा कुछ हो जाया करे तो मेन स्विच ऑफ कर दिया जाना चाहिए और खुद को इलेक्ट्रॉक्युशन से बचाने के लिए परे हट जाना चाहिए – जैसे शॉर्ट सर्किट पड़ोस में हुआ हो और फिलहाल हमारी अपनी सुरक्षा से बढ़कर जीने का दूसरा कोई मकसद नहीं। 

कोई पूछे कि कैसे करती हो ये सब तो हंस दूंगी, अंदर ढकेले गए आंसुओं के कतरे गिन लूंगी और मेन स्विच ऑफ कर दूंगी क्योंकि आंखों का पानी शॉर्ट सर्किट के दौरान जानलेवा हो सकता है। पानी बिजली का गुड कडंक्टर है ना, इसलिए।  

7 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

भीतर की बारिशें मुसलसल हुआ करती हैं. कई बार उम्मीद होती है कि मन सूखेगा... अब पानी के कटाव बहुत हुए, शक्ल बदल गई मन की ज़मीन की... इस नए में सौन्दर्य है किन्तु स्थायी नहीं है. थकान है इसलिए रुक जाना चाहते हैं. सच है कि कैसे करती हो ये सब ?

Arvind Mishra ने कहा…

इस पोस्ट को पढने के दौरान ही महीयसी महादेवी वर्मा की ये पंक्तियाँ सहसा याद हो आयीं ,आपको समर्पित हैं -

विस्तित नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना

उमड़ी कल थी मिट आज चली

मैं नीर भरी दुःख की बदली ..

P.N. Subramanian ने कहा…

इस चिंतन की धारा में कुछ क्षण हम भी प्रवाहित हुए बिना नहीं रह पाए.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कितने लोगों के अपने होते हैं, लेकिन फिर भी कितनी तन्हाई होती है भीतर। शोर बाहर होता है, खामोशी भीतर परेशान किए जाती है। कभी ऐसा हुआ है कि भीड़ में बहुत सारे लोगों के बीच बैठे हुए भी आप खुद को तलाशने के लिए किसी खाई में गिरता हुआ सा महसूस करते हैं..


कितनी सहजता से लिख गयी हैं आप इन भावनाओं को ... इस लेखन से खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर रही हूँ ...अच्छी प्रस्तुति

Rahul Singh ने कहा…

सहज और स्‍वाभाविक प्रवाह.

Darshan Lal Baweja ने कहा…

पानी बिजली का ‘गुड कडंक्टर’ है
केवल लवणीय और अम्लीय पानी बिजली का ‘गुड कडंक्टर’ है
आसुत जल नहीं है
आँसूओं के मामले मे सही बात है कि आँसू बिजली का ‘गुड कडंक्टर’ है

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सहज और सार्थक प्रस्तुति....
सादर...