मैं परेशां हूं
दर्द से जिस्म तार-तार है
पैरों में क्यों लगती नहीं ताक़त
मन है कि सबसे बेज़ार है।
दोपहर चलती है कराहकर
रातों से नींद फ़ाख़्ता है
दिन जख़्मी है,
शाम भी लगती बीमार है।
घूमता है सिर
या सिर के ऊपर घूमता है पंखा
गोल-गोल है दुनिया
घूमती लगती दर-ओ-दीवार है।
जिस्म से चुनती हूं
दर्द के तार जब,
कमरे में घुसे हैं ताज़े झोंके की तरह,
इन दोनों से कायम संसार है।
मेरी पेशानी पर
वो रखते हैं हाथ,
पूछते हैं धीरे-से,
"मां, क्या तू बीमार है?"
क्यों पिघलता है दर्द,
कैसे आती है ताक़त शरीर में,
बोलती हूं - मेरे लिए तो
अचूक दवा, बच्चों, तुम्हारा दीदार है!
बुधवार, 11 मई 2011
मंगलवार, 10 मई 2011
लिखना... मेरा लिखना
क़तरा-क़तरा,
लम्हा-लम्हा,
जो बिखरा है
इधर-उधर
उसे सहेजना,
समेटकर रखना
मेरा ही तो काम है।
लफ़्जों में
जो फिसलते नहीं
ज़ुबां से कई बार
वो उतरे, बिखरे,
बरसे काग़ज़ पर
उस सावन की तरह
जिसका मक़सद
हरा कर देना है
मन को भी,
ख्वाबों की
बंजर ज़मीं को भी।
लम्हा-लम्हा,
जो बिखरा है
इधर-उधर
उसे सहेजना,
समेटकर रखना
मेरा ही तो काम है।
लफ़्जों में
जो फिसलते नहीं
ज़ुबां से कई बार
वो उतरे, बिखरे,
बरसे काग़ज़ पर
उस सावन की तरह
जिसका मक़सद
हरा कर देना है
मन को भी,
ख्वाबों की
बंजर ज़मीं को भी।
रविवार, 8 मई 2011
वादे हैं, वादों का क्या...
बड़े खराब दिन चल रहे हैं। पीठ के दर्द से परेशान हूं पिछले तीन हफ्तों से। बैठना मुश्किल, चलना मुश्किल, लेटना मुश्किल। और इस मुश्किल घड़ी में चली आईं बच्चों की गर्मी छुट्टियां मेरी कुछ खास मदद भी नहीं कर रहीं। घर है कि बिखरा-बिखरा है। कंघी आजकल जूते की अलमारी में पाई जाती है, सलवार-कमीज़-दुपट्टे मैं तीन रंगों के पहनती हूं आजकल। बच्चों के कमरे में जाने की तो इच्छा भी नहीं होती। रंग-बिरंगे क्रेयॉन से मुड़े-तुड़े कागज़ों पर की गई कलाकारी को फ्रिज पर सजा देने की हिम्मत बिल्कुल नहीं मुझमें।
तरबूज काटकर आदित को पकड़ाया है मैंने। कांच की सफेद प्लेट, जो शादी के समय तोहफे में आए डिनर सेट का हिस्सा है। इस सेट के गिने-चुने हिस्सों को शहीद कर देने की मंशा नहीं, लेकिन अब बच्चों की प्लेट कौन ढूंढे? जाने किस बात पर मन चिढ़ा हुआ है। आदित प्लेट मेरे सामन ज़ोर से क्या पटकता है, मैं ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती हूं। अपनी आवाज़ की कर्कशता मुझे हैरान किए है, लेकिन इस वक्त मैं सोचना नहीं चाहती। बस बोलती रहना चाहती हूं।
आदित सहमकर एक कोने में जा खड़ा हुआ है। जब वो नाराज़ होता है तो बादाम-जैसी आंखों से अपने गुलाबी चश्मे के ऊपर से मुझे घूरता है कभी-कभी। अब भी वैसे ही देख रहा है मुझे। मुझसे उलझने मेरी बेटी आई है सामने। उलझने की हिम्मत उसी में है।
"आपने चीखा है आदित पर।"
"..."
"आपने उसे डांट लगाई है मम्मा।"
"हां, तो?"
"आपने प्रॉमिस तोड़ा अपना। आपने पिटाई की बात नहीं करने का प्रॉमिस किया था हमसे।"
"आदित प्लेट तोड़ देता।"
"लेकिन तोड़ा तो नहीं ना उसने?"
हमारी ये बातचीत भारत-पाक वार्ता जैसी होती है अक्सर, बिना किसी नतीजे के। हम बस किसी तरह समझौते पर पहुंच जाया करते हैं।
ऐसे ही किसी समझौते के साथ एक घंटे बाद हम डिनर टेबल पर हैं।
"रोटी-सब्ज़ी खत्म कर लो बच्चों। फिर आइसक्रीम मिलेगी, प्रॉमिस।"
आदित धीरे से कहता है, सिर झुकाए हुए, प्लेट की ओर देखते हुए...
"छोड़ो मम्मा। आप प्रॉमिस तोड़ती हैं। हम तो प्लेट भी नहीं तोड़ते!"
तरबूज काटकर आदित को पकड़ाया है मैंने। कांच की सफेद प्लेट, जो शादी के समय तोहफे में आए डिनर सेट का हिस्सा है। इस सेट के गिने-चुने हिस्सों को शहीद कर देने की मंशा नहीं, लेकिन अब बच्चों की प्लेट कौन ढूंढे? जाने किस बात पर मन चिढ़ा हुआ है। आदित प्लेट मेरे सामन ज़ोर से क्या पटकता है, मैं ज्वालामुखी की तरह फट पड़ती हूं। अपनी आवाज़ की कर्कशता मुझे हैरान किए है, लेकिन इस वक्त मैं सोचना नहीं चाहती। बस बोलती रहना चाहती हूं।
आदित सहमकर एक कोने में जा खड़ा हुआ है। जब वो नाराज़ होता है तो बादाम-जैसी आंखों से अपने गुलाबी चश्मे के ऊपर से मुझे घूरता है कभी-कभी। अब भी वैसे ही देख रहा है मुझे। मुझसे उलझने मेरी बेटी आई है सामने। उलझने की हिम्मत उसी में है।
"आपने चीखा है आदित पर।"
"..."
"आपने उसे डांट लगाई है मम्मा।"
"हां, तो?"
"आपने प्रॉमिस तोड़ा अपना। आपने पिटाई की बात नहीं करने का प्रॉमिस किया था हमसे।"
"आदित प्लेट तोड़ देता।"
"लेकिन तोड़ा तो नहीं ना उसने?"
हमारी ये बातचीत भारत-पाक वार्ता जैसी होती है अक्सर, बिना किसी नतीजे के। हम बस किसी तरह समझौते पर पहुंच जाया करते हैं।
ऐसे ही किसी समझौते के साथ एक घंटे बाद हम डिनर टेबल पर हैं।
"रोटी-सब्ज़ी खत्म कर लो बच्चों। फिर आइसक्रीम मिलेगी, प्रॉमिस।"
आदित धीरे से कहता है, सिर झुकाए हुए, प्लेट की ओर देखते हुए...
"छोड़ो मम्मा। आप प्रॉमिस तोड़ती हैं। हम तो प्लेट भी नहीं तोड़ते!"
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