शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

कहना क्यों नहीं सीखा?

चुप रहती हूं,
मन की कोई खलिश
तैरती रहती है
आंखों में पानी बनकर।
वो कहते हैं,
आंखें बोलती हैं
और चेहरा
खोल जाता है राज़।
मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से 
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

10 टिप्‍पणियां:

Neeraj ने कहा…

समझने वाले बिना कहे भी समझ जाते हैं, फिर कह के क्या फायदा |

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते... यह गजल याद आ गई।

के सी ने कहा…

कविता जितनी सहज होती है, भीतर उतनी ही आसानी से पहुँचती है.

मेरे अंदर का सब
जब यूं ही
छलक आता है
बार-बार,
तो फिर क्या कहूं मैं?
और ये तो सबसे सुंदर

शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं

बहुत सुन्दर ..

Manoj K ने कहा…

यह ज़हर ना बने और शीतल होकर आँखों से बह जाए...

सुन्दर रचना के लिए बधाई

मनोज

Kailash Sharma ने कहा…

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

बहुत कोमल भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति

Manish Kumar ने कहा…

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

बिल्कुल सही कहा आपने..

Anupama Tripathi ने कहा…

संवेदनशील रचना है आपकी -
आपकी लेखनी में एक आकर्षण है -
शुभकामनाएं

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

शिकवों का लफ्ज़ों में
बाहर आना
ज़हर उगलना ही तो है।
शिकवे आंखों से
बहते हुए ही
कोमल लगते हैं।

सहज सरल भाषा भी आंसू जैसे सरलता से के दिल तक पहुँचती है
latest post होली

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

चेहरा आईना... आँखें.. दिल की ज़ुबान...
~सादर