रात के डेढ़ बजे लैंडलाईन पर आज तक कभी कोई फ़ोन नहीं आया।
लेकिन २३ मार्च की रात को सुकून की ख़ामोशी ओढ़े घर को नींद से घनघनाते फ़ोने ने जगाया था। ऐसे मौकों पर अंदेशे बिल्कुल साफ़-सुथरे होकर आधी नींद में भी सोचने-समझने की ताक़त को घेर लेते हैं।
“पापा कहीं चले गए हैं,” फ़ोन उठाते ही मां
ने कहा और फिर उनकी रुलाई फूट गई। मां और पापा, यानी मेरे सास-ससुर होली हमारे साथ मनाने के लिए कटिहार से दिल्ली डिब्रूगढ़ राजधानी में आ रहे थे और ऐसे कई सफ़र दोनों साथ-साथ साल में कई बार करते हैं। मुश्किल ये है कि आठ साल पहले सिर पर लगी
एक चोट की वजह से अब याददाश्त कई बार पापा को तन्हा छोड़ने लगी है और थोड़ी देर के
लिए वो ये भूल जाते हैं कि वो कहां हैं, किसके साथ हैं और उन्हें जाना कहां है।
पापा ६५ साल के हैं, और हमारे देश के जीवन-दर के लिहाज़ से उन्हें बहुत
उम्रदराज़ नहीं कहा जाएगा। लेकिन कुछ उम्र का असर था, और कुछ बढ़ती दिमागी बीमारी का
प्रभाव और कुछ उनकी बैचैन फ़ितरत कि उस रात ट्रेन के मुग़लसराय स्टेशन पर रुकते ही आधी रात को पापा ट्रेन से
मंज़िल के आने से पहले ही उतर गए।
मां की नींद खुली तो ट्रेन प्लैटफॉर्म से खिसकने
लगी थी और पापा सामने की सीट पर नहीं थे। ट्रेन रुकवाकर अपने पति को खोजने की मां
की सारी कोशिशें नाकाम गईं और उस नाकामी का अपराधबोध और डर हिचकियों में फोन पर निकला।
डेढ़ बजे रात से पापा को खोजने की कोशिश शुरू हो गई। हम कई सौ किलोमीटर दूर
थे। मुग़लसराय में हम किसी को जानते तक नहीं थे। लेकिन पैंतालीस मिनट के भीतर आधी
रात होने के बावजूद देश के सबसे बड़े जंक्शनों में से एक मुग़लसराय में पैंसठ साल
के एक लापता आदमी को खोजने का काम शुरू हो गया।
मां ट्रेन में थीं, हम दिल्ली में
और पापा गुमशुदा थे। हमें रेलवे, पुलिस और मीडिया में बड़े ओहदों पर बैठे कुछ दोस्तों
का सहारा था। बावजूद इसके एक ऐसे बुजुर्ग को खोजना मुश्किल था जो भूल जाने की हालत
में अपना नाम और घर का पता तक नहीं बता पाते। मुमकिन था कि उन्होंने कोई दूसरी
ट्रेन ले ली हो। ये भी मुमकिन था कि वो मुग़लसराय शहर में कहीं खो गए हों।
मुग़लसराय से उस वक़्त होकर गुज़रने वाली सभी ट्रेनों और उन सभी स्टेशनों पर
गुमशुदगी की रिपोर्ट पहुंचा दी गई जहां पापा के उतरने की संभावना थी। वाराणसी,
इलाहाबाद, कानपुर, दिल्ली और हावड़ा के रूट में गया, धनबाद, गोमो, आसनसोल और
हावड़ा तक आरपीएफ़ को इत्तिला कर दिया गया। दिल्ली और आस-पास के शहरों से परिवार
के लोग मुग़लसराय तक पहुंच गए। घर-परिवार, दोस्त-यार, अनजान लोग तक मदद के लिए आगे
आए, सांत्वना दी, फोन करके हिम्मत बंधाते रहे। मनीष को सुबह साढ़ चार बजे एयरपोर्ट के लिए टैक्सी में बिठा आने के बाद से फ़ोन बजना बंद नहीं हुआ।
स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दोस्त, आईआईएमसी के दोस्त, एनडीटीवी के दोस्त, ब्लॉगर दोस्त, ऑनलाईन दोस्त, भूले दोस्त, बिसरे दोस्त, नए दोस्त, पुराने दोस्त... मुसीबत के कुछ घंटों में अपनी ख़ुशकिस्मती का अहसास हुआ। जिसने सुना, मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जैसे बन पड़ा, मदद की भी। जहां रहे, हाथ थामे रखा और सहारा देते रहे।
फिर भी अगले कई घंटों तक पापा की कोई
ख़बर नहीं आई। स्टेशनों, बाज़ार और गलियों में ढूंढने की नाकाम कोशिश के बाद
अस्पतालों के चक्कर भी लगाए गए। शाम तक हम उनके मिलने की उम्मीद खो चुके थे।
हमारे देश में हर साल तक़रीबन पांच लाख लोग गुम हो जाते हैं, यानी हर रोज़
१३७० लोग और हर घंटे पचास से ज़्यादा। इनमें से एक फ़ीसदी से भी कम की ख़बर मिल
पाती है। गुमशुदगी की वजहें कई होती हैं – मानसिक तनाव, घर छोड़कर चले जाना, ह्यूमन
ट्रैफिकिंग यानी मानव तस्करी, अपहरण, दुश्मनी या फिर पापा की तरह भूलने की बीमारी।
फिर भी हमारे देश में ऐसी कोई भी केन्द्रीकृत व्यवस्था नहीं है जिससे गुमशुदा की
तलाश करना आसान बनाया जा सके। एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी में पांच लाख गुम भी
हो जाएं तो इससे देश को बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता, उस परिवार और समाज को ज़रूर पड़ता
है जो अपने किसी प्रिय के खो जाने का ग़म लिए पूरी ज़िन्दगी जीता है। ना लौट आने
की उम्मीद होती है, ना उसके मर जाने पर यक़ीन करने का मन होता है।
रात घिरने लगी और उत्तर प्रदेश के एक बड़े पुलिस अधिकारी ने मुझे फोन पर कहा, “मैं आपको झूठी दिलासा नहीं
दूंगा। पुलिस के हाथ में कुछ नहीं। जो है, ऊपरवाले के हाथ में है। हिम्मत बनाए
रखिए और दुआ कीजिए कि आपके ससुर जहां हों, ठीक हों।” पूरे बीस घंटे में उस
लम्हे मैं दूसरी बार फूट-फूटकर रोई थी। पहली बार तब टूटी थी जब मां ने बताया कि
पापा अपना फोन और पर्स तक भूल गए हैं। उन्हें लौटकर आने का इकलौता ज़रिया बंद हो
गया था। लेकिन इंतज़ार ख़त्म नहीं हुआ था। मुझे यकीन था कि हमारे आस-पास अच्छे लोग
ज़्यादा हैं, जो मुसीबत में दर-ब-दर भटकते किसी बुज़ुर्ग को देखकर उनकी मदद ज़रूर
करेंगे, और पापा को देर-सबेर ही सही, अपना नाम और पता ज़रूर याद आ जाएगा। लेकिन
मुग़लसराय जैसे एक जंक्शन से गुम होने की चुनौती ये थी पापा देश के किसी शहर में
भी हो सकते थे।
ठीक यही हुआ। इक्कीस घंटे के इंतज़ार के बाद हमारे पास कोडरमा से किसी का फोन
आया। पापा कोडरमा स्टेशन से पंद्रह-अठारह किलोमीटर दूर एक गांव पहुंच गए थे। ये
गांव कई मुसलमान परिवारों की एक बस्ती थी – चाराडीह नाम की।
टुकड़ों-टुकड़ों में
पापा के गुम होने और हम तक उनकी ख़बर आने के बीच की जो कहानी हम तक पहुंची, वो कुछ
यूं थी – मुग़लसराय स्टेशन पर उतरने के बाद रात में ही पापा स्टेशन से बाहर चले
गए। उन्हें याद नहीं था कि जाना कहां है और आए कहां से हैं। शहर में भटकने के बाद
जब ट्रेन में बैठे होने की याद आई तो वापस लौट गए और जो पहली ट्रेन दिखी, उसपर बैठ
गए। ट्रेन में नींद आ गई और नींद खुली तो कोडरमा में थे। वहीं उतरकर उन्होंने चलना
शुरू कर दिया और धूप के चढ़ने के साथ भूखे-प्यासे रास्ते पर चलते रहे। उन्हें ना
कोई नंबर याद था ना जगह की सुध थी। शाम होने लगी तो वो मुस्तफ़ा नाम के एक आदमी के
घर के बाहर पड़ी कुर्सी पर बैठ गए और कहा, ये मेरा घर है। मुस्तफ़ा वहीं नमाज़ पढ़
रहे थे। नमाज़ अता करने के बाद मुस्तफ़ा ने बस्ती के और लोगों को आवाज़ दी और पूछा
कि कोई इस बुज़ुर्ग को जानता था क्या। बस्ती के लोगों ने पापा से बात करने की
कोशिश की। धूप, थकान और घबड़ाहट से बेहाल पापा वहीं गश खाकर गिर गए जिसके बाद
मुस्तफ़ा ने मोर्चा संभाल लिया। उन्हें होश में लाने से लेकर उन्हें खाना खिलाने
और आराम करने देने की जगह देते हुए उस फ़रिश्ते सरीखे इंसान ने एक बार भी ना सोचा
कि ये नया आदमी कौन और इससे मेरा नाता क्या, या फिर इसकी धर्म-जात क्या। पापा ने
टुकड़ों-टुकड़ों में अपना परिचय दिया और मुस्तफ़ा बस्ती के लड़कों के साथ मिलकर
फोन और इंटरनेट कैफ़े की मदद से उन जानकारियों के आधार पर पापा के घर का पता करने
की कोशिश करते रहे। आख़िर में पापा को पटना में रहनेवाले अपने एक बचपन के दोस्त का
नाम और घर का आधा-अधूरा पता याद आया। मुस्तफ़ा और बस्तीवालों ने गूगल पर वो आधा
पता डाला और कई कोशिशों के बाद पापा के दोस्त से बात करने में क़ामयाब हो गए।
बाकी की कहानी लिखते हुए मेरे हाथ ये सोचकर कांप रहे हैं कि अगर मुस्तफ़ा ने
पापा को अपने घर से निकाल दिया होता तो? या फिर लावारिस समझकर पुलिस के हवाले कर
अपने कर्तव्य की इतिश्री ही समझ ली होती? या फिर एक गांव में बैठे हुए तकनीक का
इस्तेमाल कर एक भूले हुए आदमी का पता खोजने की नामुमकिन-सी कोशिश ही ना की होती
तब?
बाकी, पापा को हर रोज़ थोड़ा और बूढ़े होते देखना, थोड़ा और निरीह होते देखना और उनकी सलामती के लिए हर पल सज्दे में बैठी मां को देखना है वो तकलीफ़ है जो न कही जाए तो ही अच्छी।
(रिपोर्ट के रूप में ये पोस्ट पहले गांव कनेक्शन में प्रकाशित हुई।)
28 टिप्पणियां:
puraa padhnae kae baad bas yahii keh rahee hun
Oh My God
Thanks God
एक अनदेखे अजनबी ने सहृदयता का जो पाठ पढ़ाया है, वो भी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सबक है।
.... बिल्कुल सच कहा आपने
मैं क्या कहूँ...पिछले कुछ सप्ताह तो किसी की भी खबर नहीं थी..हाँ कुछ दिन पहले आपके फेसबुक स्टेट्स से आपके पापा के मिलने की खबर पता चली थी....लेकिन ज्यादा कुछ पता नहीं था..अभी पढ़ रहा हूँ...
पिताजी मिल गये, सब लोग जिन्होंने प्रयास किया और सहृदय व्यक्तियों ने जिन्होंने उन्हे दिया, सब मिल एक उदाहरण बनाते हैं, एक जीवन्त समाज का। सबको हृदय से आभार।
आपने ठीक कहा, कुछ अच्छे लोग ज़्यादा हैं हमारे आस पास...
मुस्तफ़ा और उनके जैसा जज़्बा रखने वालों को सलाम.
बहुत ही ज़रूरी बात उठाई है आपने इस संस्मरण के ज़रिये.
आज भी इंसानियत ज़िन्दा है …………आपने के जरूरी विषय पर रौशनी डाली है।
बहुत ही मार्मिक संस्मरण,इस दुनियां में भी कुछ नेक बंदे है,उन नेक बन्दों को मेरा सलाम.
बिछड़े को मिलानेवाले का शुक्रिया। ये घटना कब की है?
बहुत ही प्रेरक पोस्ट।
इंसानियत अभी बाकी है. और उसे बचाए रखना हम सब की जिम्मेदारी.
थैंक गोड.
जब तक पापा के सही सलामत होने की खबर नहीं मिली होगी तब तक क्या गुज़री होगी यही सोच रही हूँ .... अभी भी इंसानियत ज़िंदा है ....शायद तभी यह दुनिया जीने लायक है ।
उफ़,कैसे बीता होगा इतना समय-जैसी उनके साथ हुई ऐसी सबके साथ हो और उनके जीवन और परिवार सुरक्षित रहें !
thank God !! it is because of people like Mustafa that our belief in goodness and humanity is still strong.
All is well that ends well!
पढ़ते -पढ़ते कई बार goose bumps आये आये. और मन श्रद्धा से भर गया, उस अनजान के प्रति.
फेसबुक पर आपके पापा के खो जाने की खबर देखकर मैं भी बहुत परेशान हो गयी थी. उनकी फोटो को भी शेयर किया था और जब वो मिले तो बहुत सुकून मिला.
ये बात सही है कि हमारे देश में खो जाने वाले लोगों को ढूँढने के लिए किसी व्यवस्था का अभाव है, लेकिन मेरे ख़याल से तकनीक ने ये कमी कॉफी हद तक पूरी कर दी है, खासकर इंटरनेट और सोशल मीडिया ने.
शेष, जब जीवन में अच्छे लोग मिलते हैं और दोस्त मुसीबत में मदद करने की पूरी कोशिश करते हैं, तो मानवता पर विश्वास और गहरा होता जाता है.
पूरा हाल पढ़कर मुस्तफा जैसे लोगों की मौजूदगी पर गर्व भी हुआ और खोये हुए लोगों के बारे मेन कोई व्यवस्था न होने का अफसोस भी। सचमुच अपने बारे मे कुछ भी न बता पाने वाले लोग खोने के बाद न जाने कहाँ और किस हाल में रहते होंगे। खुशी की बात है कि आधुनिक तकनीक के सहयोग ने इस कहानी को सुखांत बनाया। शुभकामनायें!
सुप्रभात सहित प्रणाम स्वीकारें ....माँ बाप सहित अपनों के लिये यही सम्मान और प्रेम हमें विश्व में महान बनाता है मुस्तफा भाई को सलाम ये प्रेम बना रहे. अच्छा संस्मरण
कल रात यह संस्मरण पढ़ा। मुस्तफ़ा सरीखे लोग दुनिया में अभी भी हैं और विश्वास है कि हमेशा रहेगें कम से कम तब तक तो रहेंगे ही जब तक यह दुनिया है। बहुत अच्छा लगा सब कुछ पढ़ना। बेहतरीन संस्मरण।
इसकी चर्चा आज चिट्ठाचर्चा में की:
फ़रिश्ते सरीखे मुस्तफ़ा और खोना-मिलना पापा का
अनु अच्छा लगा, ये संस्मरण पढ कर. शुक्रिया, मुस्तफा जी ने इंसानियत की जो प्रेरणा दी है, शायद ये शिक्षा अच्छा इंसान बनने में सहायक होगी.
पापा की बेटी ....
बधाई !
मुस्तफ़ा ने अपना नाम सार्थक किया। वह वाकई पैगम्बर बनकर आया!
..अब बहुत अच्छा लग रहा है पढ़कर।
अल्लाह अपने बन्दे किसी न किसी रूप में ज़रूर भेजता है कोई भी धर्म हो वो यही सिखाता है की मुसीबत के वक़्त दुसरे की मदद करनी चाहिए।
"मुझे यकीन था कि हमारे आस-पास अच्छे लोग ज़्यादा हैं, जो मुसीबत में दर-ब-दर भटकते किसी बुज़ुर्ग को देखकर उनकी मदद ज़रूर करेंगे"
विश्वास कभी ज़ाया नहीं जाता।
बढ़िया रहा आपका संस्मरण...!
अच्छा लगा पढ़ कर...सुखद अनुभूति!!!
बधाई!!!
अनु
अन्त भला तो सब भला... किन्तु इस प्रकार की समस्याएं भी हर बार रुप बदल-बदलकर सामने आती तो रहेंगी ।
मुफ्तासा येक सहृदय आदमी निकला,बहुत अछ्छा हुआ.
तेरे दीदार को भटका , मैं पागल दर-ब-दर कब से ,
न जाने कौन से दर पे , तेरा दीदार हो जाये |
.
अगर कोई जरूरत पड़ने पर आपकी मदद करता है , यकीन मानिये वो भगवान ही है | और शायद आपको भगवान के दर्शन हो भी गए |
असीम शुभकामनायें , पोस्ट पढ़कर वाकई बहुत अच्छा लगा (खासकर अंत पढ़कर)|
सादर
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