बेटी ने पूछा है, “मम्मा, ये फूल कहां से आए हैं?”
“ऊपरवाले ने बनाया।“
“और पेड़?”
“वो भी।“
“गाय-भैंस-बकरियां-चिड़िया?”
“उन्हें भी ऊपरवाले ने रचा।“
“आसमान-सूरज-चांद-तारे?”
“वो भी बेटा।“
“और हम? हम कहां से आए?”
“हमें भी ऊपरवाले ने ही रचा।“
“गॉड ने डिसाईड किया कि आप ही मेरी मम्मा होंगी?”
“हां बेटा।“
“और मम्मा, गॉड ने ही डिसाईड किया कि ये ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ी आंटी भीख मांगेगी?”
“शायद, बेटा।“
“गॉड ने डिसाईड किया कि मैं लड़की, आदित लड़का?”
“हां, बेटा।“
मैं अब उसके सवालों से परेशान होने लगी हूं। मेरी बेटी को जिरह करने की आदत है, पांच साल की उम्र में ही, और कई बार उसके तर्कों और सवालों का जवाब होता नहीं मेरे पास। कोई गोरा, कोई काला क्यों होता है? लोग गरीब क्यों? किसी का घर छोटा, किसी का बड़ा कैसे? हम सबको जब गॉड ने बनाया तो हमें इतना अलग-अलग कैसे कर दिया?
आदू, आप बड़ी होंगी तो समझेंगी धीरे-धीरे, मैंने बात टालने की कोशिश की है। लेकिन उलझी हुई हूं खुद से। वाकई, इतने सवालों का जवाब है किसी के पास? अच्छे और बुरे कर्मों का फल है, उससे कहूं या गीता के अध्यायों का सार सुनाऊं उसे? कैसे कहूं कि ऊपरवाले ने सबकुछ रचा और रच दिए इंसान, उसे दे दी समझ और उस समझ का इस्तेमाल करने की बेजां ताक़त। कैसे कहूं कि उसे बेजां ताकत के दम पर इंसान ने ख़ुद को बेजुबां जानवरों पर हावी बनाया और फिर धीरे-धीरे प्रकृति को नोचा-खसोटा-मोड़ा-मरोड़ा। कैसे कहूं कि उसी बेजां ताक़त के दम पर रच दी सत्ताएं और बना दिए शोषक और शोषितों के अलग-अलग तबके। कैसे कहूं कि ये बेजां ताक़त कभी ज़मीन के नाम पर इस्तेमाल हुई, कभी धर्म और जाति के नाम पर। कैसे कहूं कि दरअसल इंसान मकड़ियों की तरह खुद ही मायाजाल रचता है और उसी में घुटकर मर जाया करता है एक दिन। और ये भी कैसे कहूं कि उसी मायाजाल में लिपटे हम इंसान अपने-अपने कर्मों को भोगने के लिए कई और तरह के जाल रच लेते हैं। कैसे कहूं कि इस चक्रव्यूह से निलकने का रास्ता नारायण ने बताया तो था नर को, लेकिन नर इसमें घूमते रहने के लिए अभिशप्त है।
मेरे सिरहाने ज्ञान का अथाह भंडार है। कुछ लेखकों, कुछ कवियों-दार्शनिकों-समाजशास्त्रियों की कच्ची-पक्की समझ के पन्ने हैं किताबों के रूप में। इनकी खाक छानूंगी तो भी आद्या के यक्षप्रश्नों का जवाब नहीं ढूंढ पाऊंगी, इसका पुख्ता यकीन है मुझे। फिर भी इंसान और इंसानियत पर यकीन बना रहे, इसकी कोशिश करती रहूंगी। तमाम भेदभावों के बावजूद ये दुनिया हसीन है, कहूंगी उससे। बताऊंगी कि हम उस शहर के वाशिंदे हैं जहां लड़कियों और औरतों को आठ बजे के बाद घर से बाहर ना निकलने की सलाह दी जाती है, लेकिन फिर भी हिम्मत टूटती नहीं, ज़िन्दगी थमती नहीं और किस्म-किस्म की दरिंदगियों के बावजूद हम अपना यकीन बचाए रखते हैं। सच भी कहूंगी उससे कि हम ऐसे लोकतंत्र के अनुगामी है जहां सबकी अपनी ढफली, अपना राग है, जहां किसी के राजा होने से हालात नहीं बदलते, जहां भ्रष्टाचार और बेईमानी उत्तरजीविता का मूलमंत्र है। लेकिन कहूंगी उससे कि यहां हमें सवाल पूछने की और ऊंचा बोलने की भी स्वतंत्रता है। सिखाऊंगी उसको कि पोएटिक जस्टिस हाइपोथेटिकल ही सही, लेकिन एक ख़ूबसूरत भरोसा है। कहूंगी कि यकीन मानो, प्रकृति अपना संतुलन बना लिया करती है।
अपने भरोसों की चादर खींचकर लंबी कर ली है, कटे-फटे हिस्सों को रफू कर लिया है और जहां मुमकिन हो सका है एपलिक वर्क से सजा दिया है उसको। वो विरासत में सौंपूंगी बच्चों को। कुछ तो मैं और पापा, मामी और मामा, दादी और बाबा, नानी और नाना और बाकी दोस्त सिखाएंगे तुमको। कुछ अपनी समझ का सिरा तुम खुद विकसित करोगी। सही-गलत, छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, ज़िन्दगी औऱ मौत से जुड़े सवाल पूछती रहोगी, आवाज़ उठाती रहोगी, वक्त का पहिया घूमता रहेगा, तुम्हारी समझ तुम्हें हर रोज़ नई सीख और सिद्धांत देती रहेगी और गुलशन में फूल खिलते रहेंगे इसी तरह, साल-दर-साल।
7 टिप्पणियां:
सच में जिंदगी इतनी नाउम्मीद भी नहीं है। आपका लेखन उसी की तस्दीक कर रहा है। मजा आया पढ़कर। पोस्ट के लिए वधाई।
इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने आज मनुष्य को जगजेता बना दिया है और अब यही वामन आकाश को मापने पर उद्यत है !
एक भावपूर्ण उम्दा सृजनात्मक लेखन का नमूना!आप हिन्दी और अंगरेजी में इतने सामान अधिकार से कैसे उत्कृष्ट लेखन कर लेती हैं ..कैसे? कैसे?
हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार निराला को एक बार लोगों ने बंद कमरे में रोषपूर्ण वार्ता करते सुना -खिड़की से कुछ उत्सुक लोगों ने देखा तो वे गोस्वामी तुलसी दास की फोटो को देख देख गुस्से में लगातार बोले जा रहे थे ..तुमने तो हम कवियों के लिए कुछ छोड़ा नहीं ,कहीं का न रखा -अब हम क्या लिखें? तुम्हारे लिखे के आगे हमारा लिखना तो बिना मतलब का है ,निस्तेज है !
आपके लेखन पर ऐसे हे भाव मन में उमड़ते हैं -सो मैंने आपकी कितनी पोस्ट पढी ही नहीं :(
जिंदगी के भेद, ज्यों चिलमन से लगे बैठे हों...
जीवन के ये मूल प्रश्न कौन सुलझा पाया है भला।
Another Wonderful Post from you!
कुछ सवाल हज़ारों साल से लाजवाब हैं जबकि कुछ सवाल ऐसे हैं कि यदि ठान लिया जाये तो शायद एक पीढी के समय में ही ग़ायब हो जायें!
भोले बचपन का कौतूहल भला कौन शान्त कर पाया ,अभी तो उसके लिये सब सहज और सुन्दर रहने दीजिये -आगे की आगे देखी जायेगी !
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