रविवार, 8 जनवरी 2012

प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब

"तू रोज़ इधर ही सोता है?"

ये पहला सवाल तो नहीं हो सकता जो कोई किसी से पूछता हो। लेकिन ये मुंबई है और यहां इतना वक्त नहीं कि लंबी-चौड़ी भूमिका के साथ कोई बातचीत शुरू की जाए।

स्टूडियो के रिसेप्शन पर कोने में लगे लाल रंग के सोफे पर करीब-करीब पसरती हुई रोहिणी ने अपनी आंखें बंद कर लीं, बिना जवाब का इंतज़ार किए। रोहित को सूझा नहीं कि क्या कहे। तंग जीन्स और आधी कटी बाजू वाली टॉप से झांकती रोहिणी की उम्र की ओर ठीक से ताका भी नहीं जा रहा था। बॉस ने उसे नाइट शिफ्ट लगाने की हिदायत दी थी, मंगल-बुध की डबल छुट्टी के वादे के साथ। वादा पूरा होना ना था, लेकिन स्टूडियो में रुके रहने का कोई मौका वो खोना नहीं चाहता था। एक तो जुलाई की उमस भरी गर्मी से निजात और दूसरा, नाइट शिफ्ट की आदत तो उसे पड़नी ही चाहिए। दो साल में एसिस्टेंट एडिटर बन जाना है और पांच साल में एडिटर। बिना दिन-रात स्टूडियो में मेहनत किए ये मुमकिन ना था।

"तू जाग रहा है अबतक?" रोहिणी फिर जाग गई थी। "मेरा एडिटर तो सो गया रे। अपन के पास कोई काम भी नहीं। चल लोखंडवाला क्रॉसिंग से और सिगरेट लेकर आते हैं।"

रोहित की नज़रें अपनेआप दूर दीवार पर टिक-टिक करती चौकोर घड़ी की ओर घूम गईं।

"नया है क्या इधर? जानता नहीं, इधर रात नहीं होती? तेरे को डर लगता है तो मैं लेकर आती है। तू इधर ही बैठ, डरपोक कहीं का। मेरा एडिटर उठ जाए तो उसको बोलना मैं पंद्रह मिनट में आएगी।"

"नहीं मैम, मैं चलता हूं ना साथ में। आप अकेले ऐसे कैसे जाएंगी?"

"तू कोई सलमान खान है जो मेरा बॉडीगार्ड बनेगा?"

"नहीं मैम।"

"कुछ खाया कि ऐसे ही पड़ा है इधर? ढाई बज रहे हैं। भूख लगी हो तो नीचे वटाटा-पाव भी मिलेगा।"

"खाया मैम।"

"ऊपर जाकर उस घोड़े को बोलकर आ, हम दस मिनट में लौटेंगे। ये फालतू में नाईट लगाते हैं हम। काम तो होता नहीं कुछ, स्साली नींद की भी वाट लगती है।"

"जी।"

"तू क्या सीधा लखनऊ से आया इधर? ऐसे बात करेगा तो इधर सब तेरा कीमा बनाकर डीप फ्रीज़र में डाल देंगे और टाईम टाईम पर स्वाद ले-लेकर खाएंगे। चल अब, बोलकर आ ऊपर। फिर हम तफ़री मारकर आते हैं थोड़ी।" रोहिणी फिर सोफे पर लुढ़क गई थी।

सीढ़ियों से चढ़ते हुए उसने रोहिणी की ओर देखा, इतनी रात गए वाकई ये बाहर जाएगी? एडिटर अस्तबल के सारे घोड़े बेचने में लगा था। बोलियां ऐसी लग रही थीं कि खर्राटों की आवाज़ साउंडप्रूफ रूम के बाहर तक सुनाई दे। एफसीपी पर टाईमलाईन सुस्त लेटी पड़ी थी, जैसे उसे भी सिंकारा की ज़रूरत हो, या फिर शायद स्मोक की। ये फिल्म स्मोक पर जाएगी, ऐसा बॉस कल ही बोल रहे थे। ज़रूरत भी है, पहला ही शॉट कितना डल है। उसने टाईमलाईन को प्ले करके देखा। अभी तो चार सीन्स भी एडिट नहीं हुए थे कल के बाद। ये नाईट लगाकर करते क्या हैं आखिर? इतना टाईम एक सीन एडिट करने में लगता है? शॉट्स की बेतरतीबी देखकर वो कुछ देर उन्हें करीने से सजाने के लिए मचलता रहा, फिर किसी के काम में दखलअंदाज़ी ना करने की बॉस की हिदायत को  याद करके वो वापस एक किनारे खड़ा हो गया। देर तक खड़े रहने के बाद भी वो तय नहीं कर पाया कि एडिटर को जगाए या वापस लौट जाए। वैसे स्टूडियो की चाभी निकाल कर बाहर से लॉक करने का भी एक विकल्प था। जो एडिटर उठ भी गया तो रोहिणी को फोन तो करेगा ही। वैसे उसकी नींद देखकर लगता नहीं था कि अगले दो घंटे गहरे शोरवाली सांसों को छोड़कर उसका बदन कोई और हरकत भी करता। जो यमराज भी आते तो डरकर लौट जाते।

स्टूडियो को बंद करके रोहित रोहिणी के पीछे-पीछे चलता रहा। एक तो सिगरेट के धुंए से परेशानी होती, फिर उसके साथ चलते हुए बातचीत करने की अतिरिक्त सज़ा कौन भुगतता। चौथे माले से सीढ़ियों से उतरकर दोनों लोखंडवाला क्रॉसिंग की ओर मु़ड़ते, उससे पहले रोहिणी सड़क के किनारे फुटपाथ पर बैठ गई। रोहित खड़ा रहा और उसके शरीर की हरकतों को अनिश्चित आंखों से पढ़ता रहा। पहले रोहिणी ने दाहिने हाथ से बाईं ओर का स्लीव खींचकर कंधे तक चढ़ाया, फिर बाएं हथेली में रखे सिगरेट के डिब्बे को देर तक देखती रही। दाहिने हाथ की उंगलियों से एक सिगरेट निकाला, डिब्बे पर उसे तीन बार ठोंका, जीन्स की जेब में हाथ डालकर लाइटर निकाली और एक गहरे कश के साथ सिगरेट जलाकर वापस बैठ गई... सिगरेट कम फूंकती हुई, किसी गहरे ख़्याल में डूबी हुई।

"तू कहां से आया रे इधर?" रोहिणी के अप्रत्याशित सवाल से रोहित की तंद्रा टूटी और वो घबराकर वापस सड़क की ओर देखने लगा।

"मैं पूछ रही हूं कि तू आया किधर से। बंबई का तो नहीं लगता।"

"जी, इलाहाबाद से।"

"भागकर आया?"

"जी? जी नहीं।"

"फिर लड़कर आया होगा।"

रोहित ने नज़रें झुका ली।

"अरे इसमें गिल्टी फील करने का क्या है। बंबई भागकर आओ तभी लाईफ बनती है इधर। सिगरेट पिएगा?"

रोहित ने सिर हिलाकर मना कर दिया। कोई लत लगे, इसके लिए चंद लम्हे बहुत होते हैं। खुद को बुरी आदतों से बचाया रखा जा सके, इसके लिए पूरी ज़िन्दगी भी कम पड़ जाती है।

"मैं भी भागकर आई। ज्यादा दूर से नहीं। इधर ही, रतलाम से। वेस्टर्न रेलवे की सीधी ट्रेन आती थी इधर। आई थी हीरोइन बनने, और देख क्या बन गई।"

"वैसे दीदी, आप करती क्या हैं?"

"तूने तो दस मिनट में रिश्ता भी बना लिया। बड़ी तेज़ चीज़ है। खाली रिश्ते गलत बनाता है," रोहिणी की बात सुनकर रोहित झेंप गया और दो कदम पीछे हटकर वापस सड़क किनारे पेट्रोल पंप पर खड़ी गाड़ियों के मॉडल पहचानने की कोशिश करने लगा।

"गर्लफ्रेंड है?"

"जी?"

"गर्लफ्रेंड? उधर इलाहाबाद में?"

"जी। है।"

"गुड। जीने की वजह है तेरे पास फिर तो। क्या पूछा तूने, क्या करती हूं? पूछ क्या नहीं करती।"

"जी?"

"सब स्साले कंगना रनाउत की किस्मत लेकर थोड़े आते हैं इधर? मैं देखने में कैसी लगती हूं रे?"

"जी?"

"एच... आई... जे... के... अंग्रेज़ी इतनी ही आती है तुझको?"

"जी नहीं। जी, मतलब... इससे ज्यादा आती है।"

"तो अंग्रेज़ी में बोल, कैसी दिखती हूं मैं?"

"जी, ब्यूटीफुल।"

"बस? दो-चार वर्ड और गिरा मार्केट में।"

"प्रीटी... अम्म... लवली... अम्म..."

"अबे, सेक्सी बोल सेक्सी। शर्म आती है बोलने में? बोल, सेक्सी दिखती हूं, बॉम टाईप।"

"जी, वही।"

"तेरा कुछ नहीं हो सकता। गर्लफ्रेंड को कैसे पटाया रे?"

"वो तो अपने आप प्यार हो गया," लतिका का सोचकर रोहित अपने आप मुस्कुराने लगता था।

रोहिणी के ठहाके ने उसे फिर एक बार लिंक रोड की सख़्त सड़क पर पटक दिया।

"नया मुर्गा है। तेरे हलाल होने में टाईम लगेगा अभी। एनीवे, मैं इधर हीरोईन बनने को आई लेकिन अब जो करा ले, सब करती हूं। प्री प्रोडक्शन, पोस्ट प्रोडक्शन, प्रोडक्शन कंट्रोल और ज़रूरत पड़ी तो कास्टिंग काउच की सेटिंग भी। ये प्रोडक्शन वालों ने इतना बेवकूफ बनाया कि सोच लिया, प्रोडक्शन करूंगी और सबकी मां-बहन करूंगी। अब पूरा बदला लेती हूं। तू मेरी गालियों से डरता तो नहीं?"

"जी नहीं। हमारे यहां भी बोलते हैं लोग ये सब। हमारे घर में अच्छा नहीं मानते।"

"मेरे यहां भी नहीं मानते थे। घर छोड़ा तो तमीज़ भी छोड़ आई। तू भी स्साला सुधर जाएगा। चल अभी, तेरे को बरिस्ता में कॉफी पिलाती है।"

"जी, मैं कॉफी नहीं पीता।"

"तो ज़िन्दगी में करता क्या है, प्यार करने के अलावा?"

"एडिटिंग सीख रहा हूं।"

"सीख ले। फिर बताना। काम दिलाऊंगी तेरे को। बिना किसी फेवर के। तू अच्छा लगा मुझे।"

"अभी तो टाईम लगेगा। बेसिक्स पर हाथ साफ कर रहा हूं।"

"कॉन्फिडेंस से बोल, सब कर लूंगा। तब काम मिलेगा। मेरे एडिटर को नहीं देखा? स्साला एक शॉट अपनी अक्ल से नहीं लगाता। छोड़ दो तो दो शिफ्ट की एडिट में पंद्रह दिन लगाएगा। माथे पर चढ़कर काम कराती हूं। कमबख्त शक्ल अच्छी है उसकी, वरना रात में नींद खराब करने का कोई और मतलब ही नहीं बनता था।"

"जी?"

"जी क्या? नहीं जानता वो मेरा नया बॉयफ्रेंड है? प्रोडक्शनवालों को एडिट पर बैठे देखा कभी? तूझे वाकई टाईम लगेगा। तेरे तो बेसिक्स भी क्लियर नहीं रे।"

बॉयफ्रेंड की बात सुनकर रोहित के कानों में दमदार खर्राटों की आवाज़ लौट आई थी। वो अब ऐसे गहरे सदमे में था कि उसकी ज़ुबान तालू से चिपक गई थी शायद और उसकी आंखों के आगे एडिट सुईट के बाहर लटकता 'प्लीज़ डू नॉट डिस्टर्ब' का बोर्ड झूल गया था।

5 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

हा हा.....लगता है मुम्बईया जबान ने आप की लेखन शैली पर असर डालना शुरू कर दिया है :)

डॉ .अनुराग ने कहा…

रोज सुबह एक कैनवास है ...कई किरदार फेंकती है कुछ किरदार सोचते है वे दुनिया से काफी आगे है या दुनिया के साथ आकर खड़े है पर दरअसल वे खुद एक पेंडुलम पर खड़े होते है ..दूसरे वे जो सिर्फ रास्ता तय कर रहे होते है बिना किसी तय मंजिल के

rashmi ravija ने कहा…

जब तक बेसिक्स क्लियर नहीं होंगे..ऐसे शॉक मिलते रहेंगे..रोहित को...
बड़ी बेरहमी से सब कुछ सिखाता है यह शहर.

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट है... रोहित को लगभग वैसी ही सलाह दी जा रही थी.. जैसे मुझे दी गयी है यहाँ... :)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

नयी जगह, नये नियम, सफलता के...सुन रहे हैं स्वेट मार्टिन।