इस शहर से मुझे बेइंतहा मोहब्बत है। यहां आते ही सपनों को पर लग जाते हैं, हर नामुमकिन ख्वाब पूरा होता दिखाई देता है। इस मायानगरी की सारी माया के बीच सबसे बड़ा सच एक ही है – माद्दा रखो, मुश्किल ज़रूर है लेकिन किसी ख्वाब, किसी फंतासी, किसी परिकथा, कैसे भी अफ़साने को यहां रंग-रूप दिया जा सकता है। आवाज़ लगाओ तो सपने बोलेंगे, सुर डालो तो गीतों की बारिश होगी और रंग भरो तो स्क्रीन जगमगा उठेगा।
पिछले कुछ दिन एक सपने को एडिट मशीन की टाईमलाईन पर सहेजने में बीते हैं। ये पहली कड़ी है क्योंकि यहां से आगे के रास्ते का कुछ पता नहीं। लेकिन दिल-ओ-दिमाग के एक कोने में सब्र के साथ पिछले डेढ़ साल से बिठाकर रखे ख्वाब ने रंग दिखाना क्या शुरू किया है, कई अनचीन्हे सपनों ने आवाज़ लगा दी है फिर से। सो, आज शाम फिर से हमने दाल, रोटी और ऑमलेट का ज़ायका उन्हीं सपनों से बातें करते हुए बढ़ाया ।
हम भोजपुरी फिल्में बनाना चाहते हैं, ‘गर्दा उड़ा देब’ और ‘उठाईल घूंघटा चांद देख ल’ टाईप की। ‘बहकल बा नजर आ बिगड़ल बा चाल, तू ही त बनवले बाड़ू हमार ई हाल’ और ‘करिया चश्मा लगईबू त नज़रिया कैसे लड़ी राजा’ टाईप के गानों की लिरिक्स हाथ के हाथ लिख ली जाती है। हम भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री के रामगोपाल वर्मा बनकर ‘शिवा’ और ‘रंगीला’ का भोजपुरी एडैप्टेशन बना देना चाहते हैं। हर निवाले और हंसी के ठहाकों के साथ ‘पिक्चर के हिट होने’ का पुख्ता यकीन होता है, जो बात पचती नहीं उसे पानी पीकर हलक के नीचे ठेल दिया जाता है। सब मुमकिन है, एवरीथिंग इज़ पॉसिबल, मैं कान से कान तक मुस्कुराते हुए खुद को यकीन दिलाती हूं।
ये पोस्ट एक साउंड स्टूडियो में रतजगे के बाद बैठकर लिख रही हूं। सुबह के इस वक्त पूरब में सूरज की पहली किरण फूट रही होगी कहीं। यकीन करना अब भी मुश्किल है कि बैकग्राउंड में चलनेवाला गाना ऐसी ही किसी सुबह बच्चों के बीच सोते हुए से उठकर लिख दिया था। ये भी यकीन दिला रही हूं खुद को कि हम वाकई मुंबई में हैं, उस एक कॉन्सेप्ट को अमली जामा पहनाने के लिए, जो एक शाम व्हिसकी की ख़ुमारी में पतिदेव और भाई के बीच हुई बातचीत का नतीजा है। यानि रोटी-दाल के साथ होश में की गई बातचीत इतनी रंगीन ना हो ना सही, पौष्टिक और सुपाच्य ज़रूर निकलेगी।
अपने बच्चों को लेकर समंदर घुमाने के लिए निकली थी एक शाम। दोनों मेरे दोनों बाजुओं से चिपके हुए अपनी हैरत भरी आंखों से शहर को अपने सामने तेज़ी से गुज़रता हुआ देखते रहे। उनसे ज़्यादा हैरत में मैं थी। ऐसा नहीं कि जगमगाते मॉल नहीं देखे, ऑडी और मर्क जैसी चमचमाती गाड़ियां नहीं देखीं। ऐसा भी नहीं कि ग्लैमर या पैसे या रुतबे की कोई ख्वाहिश भी है। लेकिन पाली हिल के बंगलों के भीतर से आती रौशनी, बगल से गुज़रती फ़रारी के काले शीशे के पीछे बैठा सुपरस्टार या मन्नत, प्रतीक्षा और गैलेक्सी के सामने हाथ हिलाती भीड़ मुझे रेस कोर्स रोड और राजपथ से ज़्यादा मंत्रमुग्ध करते हैं। उससे कहीं ज़्यादा फैसिनेट पर्दे के पीछे लाइटमैन, स्पॉट बॉयज़, मेकअप दादा, साउंड इंजीनियर और जूनियर आर्टिस्ट की दुनिया करती है।
मुंबई मुझपर हावी होने लगी है, ऐसे कि मैं यहां से जाना नहीं चाहती। लेकिन यहां बसना भी नहीं चाहती। आवाज़ दो हमको दोस्त, कि ख़्वाबों ने आंखों के आगे सतरंगी झीने पर्दे डाल दिए हैं। आवाज़ दो हमको क्योंकि सूझता नहीं कि पलकें नींद से बोझल हैं या ख़्वाबों के बोझ से। आवाज़ दो हमको, कि रंगों का कारोबार कहीं उलझा ना ले, ख़्वाब देखते-देखते वहम ना पालने लगूं, किसी हीलियम बैलून की सवारी के लिए ना निकल पडूं कहीं।
भाई, ख्वाब तुम अपने फिर भी बचाए रखना। जो मुकद्दर के मरम्मत के लिए कहीं गुहार लगानी हो तब मुझे आवाज़ दे देना। हम साथ मिलकर मिसरों से काफिया मिलाएंगे, आसमांवालों को ज़मीं पर बुलाएंगे।
4 टिप्पणियां:
खूबसूरत कविता ! सीधी, सच्ची दिल से निकली हुई... नींद में बोझिल पलकों से इतना सुन्दर लिखना होता है ! वाह
मुंबई डायरी हमेशा आकर्षित करती है... एक ऐसे ही और हैं पिक्चर हौल वाले उमेश पन्त
भोजपुरी फिल्मों की गीतकार विश्वास नहीं हो रहा पर ठीक हैं मायानगरी में कहीं से शुरुआत होनी हे..
भगवान आपका सपना पूरा करे..
आमीन..... आपका सपना पूरा हो....
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