रविवार, 22 जनवरी 2012

रांची डायरी 4: इस अंजुमन में हम मेहमां ही अच्छे

दर्द की पराकाष्ठा क्या होती होगी, ये पिछली रात जान गई थी। घुटनों में पेट दबाए बिस्तर पर पड़े हुए दर्द के एपिसेंटर को समझने की पूरी रात की कोशिश नाकाम गई। पीठ था या पेट, पैर या कमर, या दर्द से फटता सिर, अबतक समझ नहीं पाई। ये घर है मेरा, यहां ज़िन्दगी के सत्रह साल गुज़ारे। इस कमरे की गंध से वाक़िफ़ हूं, लेकिन सूझता नहीं कि इस दर्द में आवाज़ किसको दूं, सुकून कहां ढूंढू, किससे कहूं कि मुझसे अब उठा नहीं जाएगा और मेरा जिस्म थाम लो। उसपर बाबा को जीभर कर याद करना मेरी सुबह को ख़ास खुशनुमा नहीं बना रहा। फोनबुक में नंबर स्क्रोल करती रही हूं। रांची में कितने लोग हैं जिन्हें आवाज़ दे सकूंगी? घबराकर मैंने दिल्ली अपनी दोस्त को फोन लगाया है जो डॉक्टर है। उसकी आवाज़ सुनते ही मैं रो पड़ती हूं।

यू ओके?”

पेनकिलर बताओ जो ओवर द काउंटर ले सकूं, और ट्रैंक्वलाइज़र भी। आंसुओं में घुली गुज़ारिश से भी वो संगदिल नहीं पिघलती।

मर जाओगी दवा फांकते फांकते। मैं कोई दवा नहीं बता रही। गो फॉर एन अल्ट्रासाउंड।

आई कान्ट, आई वोन्ट। अगर चाहती हो कि तुम्हारे पड़ोस में लौट सकूं तो अभी बताओ कि क्या फांक लूं?”

ज़हर, ज़हर मिलता है कहीं आस-पास? वो ले लो।

ओवर द काउंटर लूं या तुम्हारे नाम के फोर्ज्ड प्रेसक्रिप्शन पर?”

तुम नहीं सुधरोगी। मैं मनीष को फोन करूं?”

नहीं, किसी को भी नहीं। मैं कर लूंगी। तुम दवा बताओगी या मैं ब्रूफेन की दो गोलियां ले लूं?”

मेरी कोई पेशेन्ट ऐसी नहीं जो मुझे इमोशनली ब्लैकमेल भी करती हो।

अभी लौट आने और आते ही मिलने की हिदायत के बाद वो फोन रख देती है। मेरा दिमाग फिर खाली है। मैं ऑफिस जा सकती हूं, इसी हालत में। कम-से-कम वक्त कटेगा। अपोलो पास है, ज़रूरत पड़ी तो मेरे क्लायन्ट्स मुझे अस्पताल तक पहुंचाने की ज़हमत भी उठा ही लेंगे। उनका अपना लो कॉस्ट हाई क्वालिटी अस्पताल है जिसके लिए मुझे होर्डिंग डिज़ाईन करने को कहा है। कहूंगी, मेरी डिज़ाईनिंग फ़ीस मत दो, डॉक्टर को ही दिखा दो। मुझे इस वक़्त किसी के साथ की सख़्त ज़रूरत है। कमाल है कि मेरे ही शहर में ऐसा कोई नहीं जिसके पास बैठा जा सके, जिससे बत्ती बुझा देने के अनुरोध के साथ सिर में तेल लगा देने को भी कहा जा सके। जिन लोगों के पास भागकर जाना चाहती हूं, वो दो लोग भी दिल्ली के हैं। मेरी ज़िन्दगी से मेरा शहर इस क़दर अजनबी हो जाएगा, सोचा ना था। मैं कबसे अपने शहर में भी दिल्ली ढूंढने लगी?

दर्द के रेशे चुनकर लैपटॉप बैग में पैक कर लिया है और गाड़ी के आने के इंतज़ार में दो पेनकिलर्स भी खा चुकी हूं। एक मेसेज है मोबाइल में, मुझे रुलाने का एक और सबब। हाय, वेन आर यू बैक? मिसिंग यू टेरिबली। मेरी पड़ोसन है। दोस्त भी कह सकती हूं अब तो, कि मेरी गैरहाजिरी में याद करती है मुझको।

मुझे लौट आने की ऐसी बेचैनी कभी नहीं हुई। दिल्ली की ज़मीन छूते ही हड्डियों को छेदनेवाली कंटीली हवा स्वागत करती है, मैं फिर भी परेशान नहीं हुई। रात के साढ़े दस बजे टैक्सी में बैठते हुए डर नहीं लगा कि यहां से नोएडा तक के हर मोड़ को पहचानती हूं अब। टैक्सी की खिड़की से बाहर साठ की रफ्तार से सरपट भागता शहर हैरान नहीं करता कि अब मैं भी वैसी ही तेज़चाल चलती हूं आजकल। फोन फिर से बजता है। डॉक्टर है।

आई या नहीं वापस?”

अभी अभी।

कोई पिकअप करने गया था।

सभी ईज़ीकैब्स वाले ड्राइवर दोस्त हैं मेरे, चिंता मत करो।

मुझे कहा होता। तुम आओगी मिलने या मैं आऊं?”

सुबह। इस वक्त नहीं।

आर यू ओके?”

हां, नाउ दैट आई नो आई एम होम...

घर के पते बदले हैं, शहर बदला है लेकिन सबसे ज़्यादा मैं बदल गई हूं।  
   

5 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दर्द बड़ा पलायनवादी बना देता है, वर्तमान से भागने को विवश कर देता है। थोड़ा जूझ कर देखिये, दर्द वहीं दम तोड़ देगा।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

गज़ब की लेखन शैली

Pallavi saxena ने कहा…

किसी भी दर्द से जूझना आसान नहीं होता मगर सच यही है एक बार जूझ कर तो देखिये दर्द वहीं दम तोड़ देगा। बहुत ही उम्दा आलेख ...

Rahul Singh ने कहा…

स्थिर चित्‍त ही अपना बदलाव देख पाता है.

Ramakant Singh ने कहा…

there is no comfort in the pain.
always it happenslike this.
stable can watch the change