बुधवार, 18 जनवरी 2012

रांची डायरी 2: बकरी के मेमनों-सा उजला दिन

मुझे अपने बेसलीका, बेतरतीब, बेढ़ब, बिना किसी लीक के होनेवाले काम से बेइंतहा मोहब्बत है। कोई पूछता है कि क्या करती हो तो मैं ठीक-ठीक बता नहीं पाती। फिल्ममेकर, राइटर, कम्युनिकेशन्स कन्सलटेंट और गेस्ट फैकल्टी के बीच कुछ हूं, और इसे किसी एक ख़ास टर्म में बांधना मुश्किल है। अच्छा, फ्रीलांसर हो? हम्म... ये सबसे आसान तरीका हो सकता है मेरे काम को बांधने का, लेकिन ना, वो भी नहीं हूं।

बहरहाल, काम से मोहब्बत इसलिए है कि ऐसे उजले दिन कई बार इसी की बदौलत नसीब होते हैं। रुक्का, बूंडू या पतरातू के आस-पास बसे गांवों में आने की कोई और वजह ज़िन्दगी में कभी बन पाती, मुझे लगता नहीं। मैं यहां झारखंड की एक बड़ी स्वंयसेवी संस्था को लिखने का सलीका सिखाने आई हूं। फैंसी शब्दों में इसे कॉन्टेन्ट स्ट्रैटेजी कह सकते हैं। कितना लिख पाऊंगी, और कॉन्टेन्ट कैसे जेनरेट होगा, ये तो बाद की बात है। फिलहाल इस कैंपस से प्यार कर बैठी हूं।

साल, सागवान और सखुआ के जंगलों के बीच से एक कच्चा रास्ता यहां तक आता है। दूर से रुक्का डैम का ठहरा हुआ पानी धान के कटे हुए खेतों के बीच आराम फ़रमाता नज़र आता है। कहीं हलचल है तो सरसों के खेतों में है। हवा का रुख बदला है और मदमस्त सरसों के सिक्के हसीन मौसम पर फिदा इठला-इठलाकर रह जाते हैं। मैं गाड़ी रुकवा सकती हूं, लेकिन नज़रों के आगे से किसी वृत्तचित्र की तरह सरकते ये नज़ारे ऐसा करने नहीं देते। कैंपस में उतरते ही मौसमी फूलों की क्यारियों ने गुड मॉर्निंग कहा है। बगल में एकड़ों में पसरे बेबीकॉर्न, ब्रॉकोली, मटर, टमाटर के खेत हैं। मुझे ग्रीनहाउस में लगाया गया बेलपेपर सबसे ज़्यादा लुभाता है। हरे पत्तों के बीच से येलो बेलपेपर ने एक परफेक्ट कॉन्ट्रास्ट दिया है। फोटो खींचो तो फोटोशॉप की ज़रूरत नहीं होगी।

मुझे  टीम के एक-एक सदस्य से मिलना है और मैं सबको छत पर धूप में बैठकर बात करने का न्यौता देती हूं। कुछ मान जाते हैं, कुछ भौंहें चढ़ाते हैं लेकिन मैं बाज़ नहीं आती। एनआरएम और विलेज डेवलपमेंट जैसे विषयों पर भारी-भरकम जार्गन्स को रिकॉर्ड करते हुए भी मेरा ध्यान सामनेवाले के कंधे के पार दूर टीक के पेड़ पर फुदकती कोयल की ओर है। बया है, तोते भी। मैंने नीलकंठ और कठफोड़वे की भी पहचान कर ली है। वूमेन इमैन्सिपेशन और ओवरऑल चाइल्ड डेवलपमेंट पर बातचीत बदस्तूर जारी है। यहां ऐसा एक लम्हा जी लेने के लिए तो मैं किसी भी एक्सटेम्पॉर में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो जाऊंगी।

हम खेतों तक नहीं  जा सकते? क्यों नहीं? वो भी आपके फील्ड विज़िट का हिस्सा है। डेयरी, प्रोसेसिंग प्लांट, ग्रीनहाउस और हाइब्रिड टमाटरों की और बेहतर नस्ल के लिए किया जा रहा पॉलिनेशन, सब दिखाया जाएगा। लेकिन सबसे पहले डेयरी और बायोगैस प्लांट। आपको गंध से कोई उलझन तो नहीं? है तो, मैं गंध को लेकर हाइपरसेंसिटिव हूं, लेकिन कुछ ख़ास तरह की खुशबुओं को लेकर। मन में सोचती हूं कि गोबर उनमें से एक नहीं है, शुक्र है। दोपहर का ये वक्त गायों के क्लासिकल संगीत सुनने के लिए मुकर्रर है। आर यू सीरियस? ऑफ कोर्स। गौशाला में खंभों से बंधे स्पीकरों से वाकई ज़ाकिर हुसैन तबला बजाते सुनाई देते हैं। क्या मैंने वाकई गायों को झूमते देखा?  मेरे ख़्याल का एक टुकड़ा कहीं दूसरी दुनिया में घुंघराले बालों के साथ झूमते, तबले पर अपनी उंगलियां थिरकाते ज़ाकिर मियां तक पहुंच गया है और वहीं टुकड़ा स्कॉटलैंड के किसी मेडो में नाचती उजली, काली, धूसर, धवल, चितकबरी गायों के बारे में सोच-सोचकर प्रफुल्लित है।

तेज़पत्ता, दालचीनी, ऐलो वेरा, गेंदे और जाने कितनी औषधियों के बगीचे से होकर हम  अमरूद, पपीते, आम और लीची की सीधी पंक्तियों को पार करते हैं। फलों के बगानों से पार टमाटर के खेत हैं। झुंड की झुंड महिलाएं पॉलिनेशन का काम कर रहीं हैं। मैं उछलते-कूदते एक महिला पर सवालों का टोकरा उलीच देती हूं। बड़े सब्र के साथ वो मुझे पॉलिनेशन की प्रक्रिया समझा रही हैं। बेख्याली में मैंने टोकरी में रखे कुछ फूल उठा लिए हैं। ऐसे नहीं दीदी, पराग झर जाएगा, फूल बेकार हो जाएंगे, वो मुझे थोड़ी सख़्ती से कहती है। मैंने उससे चिमटी मांग ली है और फूल को चश्मे के आगे लाकर देखती हूं। या ख़ुदा, तेरी दुनिया मुझे हैरान कर देना कब बंद करेगी?

टमाटर के खेतों से निकलकर हम कैंपस की चहारदीवारी के पार डैम की ओर बढ़ जाते हैं। झुंड के झुंड साइबेरियन क्रेन्स ठहरे हुए पानी को सताने पर आमादा हैं। मछलियां तैरकर खुद ही ऊपर आतीं तो कितना अच्छा था। नीले अंबर के नीचे नीला पानी लेटे-लेटे अपनी महबूबा से मिलने के ख़्वाब सजा सकता था। कमबख्त क्रेन इसे जीने नहीं देंगी, हलचल मचाती ही रहेंगी। अचानक मैं साइबेरियन क्रेन होना चाहती हूं अगली ज़िन्दगी में। कुछ ताउम्र साइबेरिया से गर्म देशों की ओर सफ़र  करने का लालच है, कुछ ठहरे हुए पानी में हलचल मचाने की तमन्ना।

दूर बकरी के साथ दो रुई-से सफेद मेमने नज़र आते हैं। मैंने ऐसे बच्चे कभी नहीं देखे। जाकर पूछते हैं तो पता चलता है, एक घंटे पहले पैदा हुए हैं। मुझे अचानक अपने जुड़वां बच्चे याद आते हैं। यहां होते तो बौरा जाते, अपनी मां की तरह। मेरे साथ आई वसु बच्चों को गोद में लेने लगती है और मां डरकर मिट्टी उड़ाने लगती है। मैं उसे बच्चे को वापस देने को कहती हूं। आई नो द फीलिंग। दे लुक लाइक माई ट्विन्स। मेरा इतना कहना है कि अगले दो घंटे तक सबके सामने मेरा मज़ाक बनता रहता है।

लेकिन उजले मेमनों के ख़्याल और उन जैसे उजले एक दिन ने मेरा होना सार्थक कर दिया है।

13 टिप्‍पणियां:

P.N. Subramanian ने कहा…

बेहतरीन आलेख. "साइबेरियन क्रेन्स ठहरे हुए पानी को सताने पर आमादा हैं" बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.

डॉ .अनुराग ने कहा…

स्वामी विवेकानंद ने कही कहा था "कभी गाय को झूठ बोलते सुना है "..जिंदगी ऐसी ही है ..इस पाले की टीम को उस पाले में जाना होता है ओर उस पाले की टीम को यहाँ ,ओर हाँ कई जगह कुदरत बायस है फोटोशॉप की ज़रूरत नहीं देती .

love your post.....

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपका लिखा पाठक को बाँध लेता है .. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

सागर ने कहा…

Be-misaasl

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बचपन का मन,
फैला उजलापन,

Madhuresh ने कहा…

कई दिनों बाद वही खुशबू मिली है आपके आलेख से जिसके लिए कितनी दफा तरसता भी हूँ मैं! बहुत धन्यवाद!

Madhuresh ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
vidya ने कहा…

बह गए प्रवाह में...
बढ़िया.

सदा ने कहा…

बहुत ही बढि़या ... भावमय करती प्रस्‍तुति ।

Unknown ने कहा…

bahut sundar aalekh. Bandhe rakhne me kaamyab..

Saadar..

Pallavi saxena ने कहा…

आज पहली बार हलचल के माध्यम से आपके ब्लॉग पर आना हुआ सचमुच बहुत ही अच्छा सदा लिखती हैं आप बहुत खूब समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है :-)

कौशल किशोर ने कहा…

अच्छा चित्रण....
बधाई ...
मेरी नयी कविता तो नहीं उस जैसी पंक्तियाँ "जोश "पढने के लिए मेरे ब्लॉग पे आयें...
http://dilkikashmakash.blogspot.com/

Rahul Singh ने कहा…

हकीकत में कहानी के कितने रंग घुले होते हैं!