रविवार, 3 जुलाई 2011

कुछ यूं गुज़रे लम्हे

इस आभासी दुनिया में अपने पेज, अपने ब्लॉग, अपनी पहचान के एक हिस्से पर लौटना एक किस्म की घरवापसी जैसा है। मुझे ठीक इस वक्त, लिखते हुए, अपने ब्लॉग पर अपना लिखा हुआ देखते हुए कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है जैसा रांची के घर की ठंडी फर्श को अपने पैरों के नीचे महसूस कर होता है। मेरे पास फिलहाल लिखने को कुछ नहीं। जहां थी, वहां ना कंप्यूटर था ना इंटरनेट कनेक्शन। अख़बारों, समाचार चैनलों से पिछले दो महीने से मैंने जान बूझकर को कोई वास्ता नहीं रखा। ये एक किस्म का 'सेल्फ-इम्पोज़्ड एक्ज़ाइल' था। एक किस्म का ग्रीष्मस्वापन, एक किस्म का ठहराव, जिसकी मेरे मन, मेरे शरीर को सख्त ज़रूरत थी। इस मौन ने मुखर होने के कई तरीके खोले हैं। इस चुप्पी के बाद मुझमें अपने मन की बात ज़्यादा हिम्मत और विश्वास के साथ कहना आया है। अगले कुछ दिनों में इस बात का यहां पुख्ता सबूत देने की कोशिश करूंगी।

फिलहाल दो महीने क्या किया, चलते-चलते ये बता दूं। दशहरी, आम्रपाली और मालदह आम खाने के अलावा पेड़ से लाल लीचियां तोड़कर खाईं। कुछ चीकू, कुछ जामुन का स्वाद लिया। दालचीनी, आंवला और नीम के पेड़ देखकर तरोताज़ा हुई। गुलमोहर की डालियों पर फूलों के गुच्छों की गिनती की। इससे वक्त मिला तो बच्चों के साथ मिट्टी के खिलौने बनाए और उनमें रंग भरे। उससे फुर्सत मिली तो छत पर लेटकर हम तीनों ने तारों की बारात निकाली और चांद की सोनपरी से शादी रचाई। जब ये करते-करते भी थक गए तो बारिश की बूंदें ओक में भरकर अपनी छोटी-छोटी बाल्टियां भरीं। दादी से गांव की कई कहानियां सुनीं - उस ज़माने के बारे में सुना जब लोग अपने घोड़ों पर बैठकर पूर्णियां जाया करते थे, जब कोसी का पानी गांव के गांव लील जाता था, जब दादी की ननद के ससुराल में पूरा का पूरा गांव नदी के धारा के बदलने से लापता हो गया था, जब सोना किलो के भाव से मिलता था, जब कहानियां चादर पर रेशम की कढ़ाई में उतरती थी, जब लकड़ी और उपलों पर बने खाने में कढ़छुल से शुद्ध घी उंडेला जाता था, जब अनाज की बोरियां बाईस-पच्चीस बैलगाड़ियों पर लादकर शहर जाती थीं, जब पानी खूब पड़ता था - इतना कि कुंए में ठहरता था, आंखों में रुकता था।

उससे मन भर गया तो हम तीनों (मैं और आद्या-आदित) ने कई सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की। कुछ के जवाब मिले, कुछ के नहीं। इनमें से किसी सवाल का जवाब आपको मिले तो हमें ज़रूर बताएं। हम तीनों आपके आभारी होंगे।

1. लीची के पेड़ आम के पेड़ से, आम के पेड़ जामुन से, जामुन के नीम से और नीम के आंवले से अलग क्यों होते हैं?

2. सूरज थककर कहां बिस्तर लगाता है? चांद रात में ही क्यों आता है?

3. बड़े बाबा, बड़े नाना, बड़ी दादी, सब कहां चले जाते हैं? भगवान उनको क्यों बुलाते हैं?

4. किसी का रंग गोरा, किसी का काला क्यों?

5. मछली पानी में ही क्यों रहती है? चिड़िया आसमान में ही क्यों उड़ती है?

6. जिराफ की गर्दन इतनी लंबी? हाथी की सूंड लटकती हुई? ऐसा क्यों?

7. टॉम और जेरी दोस्त क्यों नहीं बनते? इतनी लड़ाई अच्छी बात है क्या?

8. भगवान कहां रहते हैं? 'हमारे मन में' नहीं  बोलना मम्मा। मन भी तो दिखाई नहीं देता।

(ऊपरवाली तस्वीर परोरा की है, आदित और आद्या के पुश्तैनी घर की)

4 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सशक्त अभिव्यक्ति ... ऐसे प्रश्न तो न जाने कितने बच्चों के मन में उठते हैं ..और वो बच्चे आज बूढ़े हो चुके हैं उत्तर ढूँढते ढूँढते

vandana gupta ने कहा…

अरे इन सवालो के जवाब ढूँढते हुये सवाल खुद बूढे हो गये हैं।

Arvind Mishra ने कहा…

वाह कित्ते मासूम से सवाल न ....लगता है ऐसे सवाल बस सुनते ही जायं -अब भला इनका भी कोई इसी मासूमियत के साथ कभी जवाब दे पाया है ! यह गृह विरही और आकाश कुसुम पा जाने की चाहत लिए मन .....बचपन में लौट चला है और पाठकों भी उसी युग का आमंत्रण दे रहा है !
आपका ब्लॉग पहली बार देखा ...सुन्दर शैली ,मनभावन शब्द चयन ..कमल करती हैं आप :) बन गया फालोवर!

Anupam ने कहा…

Good!! keep writing..