शहर का कोलाहल भी, बदहवास भीड़ भी
बौराए आम के पेड़ों वाला गांव भी चाहता है।
कुछ बंधन ऐसे हों जो दिलों को बांध लें
मुक्त होकर थिरकते दो पांव भी चाहता है।
साहिल मिल जाए, ऐसी खुशनसीबी हो
लहरों से उलझती एक नाव भी चाहता है।
पूरे होते सपनों को गिनती रही उंगलियां
कभी खाली जेबों-सा अभाव भी चाहता है।
मिश्री हो गीतों में, शहद-सी हो बोलियां
कभी कान उमेठने वाला बर्ताव भी चाहता है।
खाली पन्नों-सा उलटो मुझे, कभी पढ़ा करो
कभी थोड़ी बेरूखी, थोड़ा भाव भी चाहता है।
4 टिप्पणियां:
वाह !!! बहुत सुन्दर.
खाली पन्नों-सा उलटो मुझे, कभी पढ़ा करो
कभी थोड़ी बेरूखी, थोड़ा भाव भी चाहता है।
सुदर गजल है।
आभार
चाहत भी कभी कभी दुविधा में डाल देती है।
शहर का कोलाहल भी, बदहवास भीड़ भी
बौराये आम के पेड़ों वाला गाँव भी चाहता है।
ये पंक्तियां कुछ ज्यादा ही अच्छी लगीं।
दरअसल हो भी यही रहा है। मन यह सभी चीजें चाहता है, कभी शहर का कोलाहल उसे अपनी ओर खेंचता है तो कभी गाँव का नॉस्टाल्जिया। इन सब के बीच बेचारा मन सेण्डविचा जाता है :)
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