शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

एक गीत पुराने पन्नों से

मैं बोलूं कुछ, तुम कुछ सोचो
हम साथ बहें पर साथ नहीं
तुम हमसाए हो, मेरे साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.

तेरे कांधों पर रखकर सर
पलकों की थिरकन गिनते थे
जब गर्म हथेली में अपनी
तकदीर की सर्दी भरते थे
वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.

हमने सीखा है तुमसे ही
उम्मीद के बोझ लिए चलना
और गीली आंखों के पीछे
ख़ुश रुख़सार लिए मिलना
लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं

9 टिप्‍पणियां:

Manish Kumar ने कहा…

"तेरे कांधों पर रखकर सर
पलकों की थिरकन गिनते थे
जब गर्म हथेली में अपनी
तकदीर की सर्दी भरते थे

वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं."


वाह ! क्या पंक्तियाँ हैं ..मन खुश कर दिया आपने

rashmi ravija ने कहा…

लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं

यही तो बात है कि अब ऐसी कोई बात नहीं....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रभावित कर गयी पूरी रचना..

Madhuresh ने कहा…

हमने सीखा है तुमसे ही
उम्मीद के बोझ लिए चलना
और गीली आंखों के पीछे
ख़ुश रुख़सार लिए मिलना

सुन्दर उत्कृष्ट रचना!

Aditya ने कहा…

//वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं

//लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं

behtareen.. mazaa aa gaya.. :)


kabhi samay mile to mere blog par bhi aaiyega.

palchhin-aditya.blogspot.in

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

जैसी सुकुमार अनुभूति ,वैसी ही सहज अभिव्यक्ति - अनायास ही मन तक पहुँच जाती है !

विभूति" ने कहा…

बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति..