मैं बोलूं कुछ, तुम कुछ सोचो
हम साथ बहें पर साथ नहीं
तुम हमसाए हो, मेरे साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.
तेरे कांधों पर रखकर सर
पलकों की थिरकन गिनते थे
जब गर्म हथेली में अपनी
तकदीर की सर्दी भरते थे
वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं.
हमने सीखा है तुमसे ही
उम्मीद के बोझ लिए चलना
और गीली आंखों के पीछे
ख़ुश रुख़सार लिए मिलना
लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं
9 टिप्पणियां:
"तेरे कांधों पर रखकर सर
पलकों की थिरकन गिनते थे
जब गर्म हथेली में अपनी
तकदीर की सर्दी भरते थे
वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं."
वाह ! क्या पंक्तियाँ हैं ..मन खुश कर दिया आपने
लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
यही तो बात है कि अब ऐसी कोई बात नहीं....
प्रभावित कर गयी पूरी रचना..
हमने सीखा है तुमसे ही
उम्मीद के बोझ लिए चलना
और गीली आंखों के पीछे
ख़ुश रुख़सार लिए मिलना
सुन्दर उत्कृष्ट रचना!
//वो नर्म-नर्म से दिन छूटे
और साथ मुलायम रात नहीं
//लेकिन बांटें हम चुपके से
अब ऐसी कोई बात नहीं
तुम हमसाए हो, साथी हो
फिर भी हाथों में हाथ नहीं
behtareen.. mazaa aa gaya.. :)
kabhi samay mile to mere blog par bhi aaiyega.
palchhin-aditya.blogspot.in
सुन्दर प्रस्तुति
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
जैसी सुकुमार अनुभूति ,वैसी ही सहज अभिव्यक्ति - अनायास ही मन तक पहुँच जाती है !
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति..
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