आद्या की दवा लाने के लिए नीचे उतरी हूं। सीढ़ियों पर ही बदलते मौसम की आहट छेड़कर गई है। निचली मंज़िल की चहारदीवारी पर लटकते सुर्ख लाल बुगनवेलिया के फूलों में हवा फंस-फंसकर रह गई है जैसे! फूलों को छेड़ूं और हवा को खोलूं? मौसम बदलने लगा है। मुझे यमुना के किनारे निकले सफ़ेद कास के फूल याद आ गए हैं।
गाड़ी की चाभी वापस पॉकेट में ़डाल मैंने डॉक्टर के चेंबर तक पैदल जाना तय किया है। मन बदलेगा, और ख़्यालों में बातें हो सकेंगी। ख़ुद से ख़ुद की बातों का अलग सुख होता है।
याद आया है कि सितंबर का महीना है ये। पहले क्यों नहीं सोचा था? त्यौहारों के मौसम उतरने को हैं। पहले क्यों नहीं सोचा था? बारिश थमी है, ज़मीन सूखी है, पांवों के नीचे पीले पत्तों का शोर कह रहा है - पतझड़ है, पत्ते गिरेंगे, नई कोंपलें भी लटक जाएंगी डालों पर... ये पहले क्यों नहीं सोचा था?
सबकी ज़िन्दगी में एक पैटर्न होता है, एक तरह का सर्कल जो मौसमों और महीनों के साथ ख़ुद को दोहराता रहता है साल-दर-साल। मेरी ज़िन्दगी का भी एक पैटर्न है, कम-से-कम पिछले पांच सालों से तो है ही। इस तयशुदा पैटर्न के मुताबिक सितंबर बीमारियों का महीना होता है। मेरी सारी परेशानियां इस महीने में बला की हद तक बढ़ जाया करती हैं। मौसम बदलने का मतलब वायरल और तमाम तरह की बीमारियों का घर में घुसना भी होता है जो बारिशें पीछे से अक्सर छोड़ जाया करती हैं। मौसम बदलने का मतलब सीली हुई दरो-दीवार के साथ-साथ रंग-बिरंगे कपड़े, कंबल, तकिए, चादर, तौलिए धूप में डाल आना होता है। मौसम बदलने का मतलब आधी कटी बांहों को बक्सों में डालकर पूरी बांहें ओढ़ लेना होता है। क्या पता फिर कितनी ठंड कहां-कहां पसरे।
मौसम बदलने का मतलब ख़ुद को आनेवाले दिनों के लिए पूरी तरह तैयार कर लेना भी होता है। इसी प्रीएम्प्टेड तैयारी के अभाव में तो ये हश्र हुआ है - मन का भी, शरीर का भी। सितंबर हमेशा ऐसे ही चुपचाप चला आया करता था हर साल उथल-पुथल मचाने। भादो की धूप चुभती और शाम को हवा का रूख बदलता तो याद आता, अब तो वायरल आने को है।
इस साल सितंबर नए रंग में आया है - उम्मीद के रंग में। इस साल मौसम बदलने का अफ़सोस नहीं ज़रा भी। तैयारी भी पुरज़ोर है। आओ, कि हम लाल चूनरी से माता का श्रृंगार करेंगे और रावण के पुतले जलाएंगे - अंदर भी, बाहर भी। आओ, कि नई रंगोलियां फर्श पर बिखरेंगी, फूलों के वंदनवार होंगे, कंदीलों और दीयों की कतारें होंगी। आओ, कि नर्म गुलाबी धूप ओक में भरकर डिब्बों में उलीच देंगे हम और तुम। क्या पता दिसंबर का कोहरा रौशन करने का दारोमदार हमारे ही माथे आ पड़े फिर से!
और ऐसे ही टहलते हुए साधारण सी शक्ल-सूरत और बहुत प्रेडिक्टेबल आवाज़ वाली स्वीडिश पॉप सिंगर का सुपरहिट ट्रैक याद आया है। ना ना। कोई तारत्म्य नहीं है - ना ख़्यालों के बहने में ना इस गीत में। लेकिन फिर भी शेयर करने की बीमारी है जो फेसबुक से चलते हुए यहां ब्लॉग तक आ पहुंची है। वायरल का असर मानकर मुआफ़ी दे दी जाए...
You never heard me break your heart
You didn't wake up when we died
Since I was lonely from the start
I think the end is mine to write
Forever and ever, life is now or never
Forever never comes around
People love and let go
You'll never see me again
So now who's gonna cry for you?
You'll never see me again
No matter what you do...
10 टिप्पणियां:
संक्रामक है यह बुखार, बिना देर किए लग जाने वाला.
ब्लॉग को फालो करने का लाभ हुआ। अच्छी पोस्ट पढ़ने को मिली।
तन मन के बदलते मौसम की गाथा अच्छी भी लगी, कही उदास भी किया!
सितम्बर के अब कुछ ही दिन शेष हैं. पूरे भारत में वाइरल ने हाथ पाँव पसार लिए हैं. फिर हम आप कैसे अछूते रह सकते हैं. बेहतरीन पोस्ट. "रावण के पुतले जलाएंगे - अंदर भी, बाहर भी"
लेखन वही श्रेष्ठ जो समष्टि (mass )से तादात्म्य (identify ) करे ...बहुत कुछ ऐसा ही लगा -अंगरेजी गीत मारक है !
Tum hamesha kuchh likhti ho,main hamesha kahta hun ki bahut achchha likha. Aaj bhi wo hi dohra raha hun. Amiya Mohan.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ख़ूबसूरत लिखा है..
सितम्बर मुझे भी बहुत सताता है, बीमारियों की वजह से.
वैसे शेयर करने की बीमारी अच्छी है, वो कोई भी मौसम हो :)
Di aapne to Sitambar to Sitamgar sabit kar diya, itna bhi bura nahin hai bechara, I love it most coz i was born in Sept :-)
Aapki writing ka asar to aisa hai ki padhne walon ko ... aur padhne ke liye kheench leta hai aapke blogs ki taraf... Uff ye infection ! :-)
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