ना, छूना ना उस गिरह को।
जो पिघला कहीं अगर तो
बह पाओगे तुम कहां तक
कि बंद है उस जगह पर
इक सोता है कि समंदर
हमको भी ख़बर नहीं है।
कोई नीला नहीं था गुबंद
जो थी बस एक ख़ला थी।
ये आई कहां से बारिश,
और गुज़रा है जो बरसकर
अब्र था कि मन हमारा,
हमको भी ख़बर नहीं है।
इस आतिश-फिशां को हमने
सालों से छुपा रखा था
और इस्मत ही अपनी हमने
मेहंदी-सा सजा रखा था।
जो उतरेगा एक रंग तो
क्या आतिश का रंग चढ़ेगा
हमको भी ख़बर नहीं है।
2 टिप्पणियां:
कई शब्दों के अर्थ नहीं मालूम पर मुकम्मल गजल अच्छी है
मन में उधाते भावों की कश्मकश उकेर दी है नज़्म में ..
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