शनिवार, 17 सितंबर 2011

एक दिन यूं भी होगा...

बारिश गिरी नहीं कि बहाने ढूंढने लगते हैं हम - चाय-कॉफी, पकौड़ियों के, ट्रैफिक में अटकते-अटकते ही सही, लेकिन इंडिया गेट जाने के, कभी बारिश में भींगने के, कभी भींगने से बच जाने के....

आज इन सब बहानों को एक किनारे कर मैंने बारिश के बहाने तुम्हें ख़त लिखने का फ़ैसला किया है। लिखना चाहती हूं क्योंकि कह नहीं सकती। कहने का शऊर नहीं आता। वैसे तो लिखने का भी नहीं आता, लेकिन लिखे हुए को डिलीट करना नामुमकिन नहीं, कहे हुए को वापस लेना तो असंभव ही है ना।

नमनम ने तुम्हें पूरा बनाया है। नमनम ने मुझे भी एक मुकम्मल जगह पहुंचाया है। तीन साल की हो गई नमनम हमारी। तीन साल कम तो नही होते। और यूं तो पूरी ज़िन्दगी भी कम पड़ जाया करती है। जूझते-झगड़ते, हंसते-रोते, उलझते-सुलझते ये फ़ासला भी तय हो गया है। सफ़र के अगले मुकाम तक पहुंच ही जाएंगे हम। और एक दिन यूं भी होगा कि हमारे बच्चे बड़े हो जाएंगे, घर के दरवाज़ों पर सूनापन लटक जाएगा और दीवारें रंगीन होते हुए भी बेजान होंगी, फीकी सी। एक दिन यूं भी होगा कि हम तस्वीरों में उनका बचपन देखेंगे, और पूछेंगे ख़ुद से - हम थे ज़िम्मेदार इतनी ढेर सारी ख़ूबसूरती के?

लेकिन जब वैसा होगा तब होगा। अभी तो तुमसे ये कहना चाहती हूं कि तुम ना होती तो कैसे पता चलता कि मां हो जाना एक प्रोमोशन ही नहीं है? कैसे आता गीतों, कविताओं, लफ़्ज़ों, फ़सानों में बचपन भरना? कैसे जानती कि उलझे बालों को सुलझाने का वक्त ना भी हो तो आप बेहद ख़ूबसूरत लग सकती हैं, कुछ ना मिले तो बिटिया की लाल तितली-सा क्लिप सजा लो बालों में। ये भी ना पता चलता कि खुशियां ढूंढी थोड़े ना जाती हैं। खुशियां तो बसती हैं - आंखों में, बातों में, दरवाज़े पर लगे फूलों में, गुलमोहर के रंग में, घास की खुशबू में, नीम के पत्तों में, सेमल के फूलों में, और ग्रेटर नोएडा तक की ड्राईव में। इतनी-इतनी सी खुशियां बच्चों से बांट लेने पर दोहरी-तिहरी हो जाया करती हैं हर बार।

कैसे जानती मैं कि आंखों में बसनेवाली हसरतों के लिए सबसे अच्छी जगह कभी-कभी किचन के आले पर रखा डिब्बा होती है। अच्छा हो कि ख्वाबों को कसकर बांधकर डिब्बे में डाल दिया जाए और जब ज़रूरत पड़े, शाही पनीर की सीज़निंग कर दी जाए उससे। ख्वाब भी बचे रहेंगे, शाही पनीर का रंग भी निखरेगा।

जब ऐसी कई बारिशें गिर चुकी होंगी, ऐसी कई सालगिरहें गुज़र चुकी होंगी तब हम-तुम एक दिन चुराएंगे ज़िन्दगी से। पैरों के नाखूनों पर लाल पेंट लगाए लिंकिंग रोड की चमकी चप्पलें पहनकर किसी स्वीमिंग पूल के किनारे बैठेंगे एक दिन। पानी उजले पांवों के बीच होगा और Pina Colada हथेलियों के बीच। ऐसे ही किसी लम्हे को थामे हम कई सालगिरहों की बातें करेंगे - कुछ अपनी, कुछ बच्चों की।

उस दिन यूं भी होगा कि तुम्हें ग्रेटर नोएडा से गुड़गांव ले जाऊंगी मैं। हम ना राहत को रोकेंगे गाने से ना गीता दत्त को। एक KK से दूसरे KayKay के medley के बीच हम उन देशभक्ति के गीतों को भी याद करेंगे जो देश से भक्ति की कम, सीमा पर गोलियां चलाने की सीख ज़्यादा दिया करते थे हमारे बच्चों को। हम फैंसी ड्रेस के पहले की रातें याद करेंगे, पीटीएम के बाद का ज़ब्त किया हुआ गुस्सा भी निकालेंगे हंसकर। और हम उन सारी मेड्स को श्रद्धांजलि देंगे एक बार जिन्होंने हमको सिखाया कि नामुमकिन कुछ नहीं होता। माथे पर पड़े तो सब करना आ जाता है - चादरें तह करना भी, आलू की सब्ज़ी बनाना भी, सफ़र पर जा रहे मेहमानों के लिए लंच और डिनर पैक करना भी, एक साथ कई रंग के स्कूल ड्रेस आयरन करना भी और जूतों की पॉलिश की बदबू झेलना भी। 

एक दिन यूं भी होगा कि हम-तुम सिर्फ अनु और नताशा होंगे - सिर्फ इतना भर। वो एक दिन कब आएगा चलकर हमारे पास?

2 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

वाह, क्या बात है। बहुत खूबसूरती से मन के भावों को उकेरा है। शानदार!

Arvind Mishra ने कहा…

ऐसे भी लिखा जा सकता है देख-पढ़ कर भी विश्वास नहीं होता ......