“शनि की साढ़े साती चल रही है ना, इसीलिए मीकू का काम नहीं हो रहा है,” बड़की दीदी ने फोन पर बताया था शीतल को। स्वामी जी ने कुंडली में कई और दोष बताए थे, जिसके लिए शनि महाराज की पूजा के साथ-साथ रूद्राभिषेक कराना होता।
“गर्मी छुट्टी में बच्चों को लेकर यहीं आ जाना, सिटी काली मंदिर में मुख्य पुजारी से स्पेशल टाईम लेकर पूजा-पाठ करवा लेंगे,” दीदी ने हिदायत दी थी। बच्चों को दीदी के ससुराल लेकर जाने की ज़िम्मेदारी अकेले शीतल पर आ गई। राहुल को वक्त नहीं था, ऑफिस से छुट्टी नहीं मिली। अब अपने मीकू के लिए बड़की दीदी इतने साधु-संतों-मंदिरों-पंडितों के चक्कर लगा रही थीं पिछले छह महीने से, तो पत्नी होने के नाते शीतल का इतना तो कर्तव्य बनता ही है कि वो दीदी के पास जाकर पूजा का संकल्प ले और पति की मनोकामना पूर्ण होने के लिए यज्ञ पूरा करवाने में सहयोग दे!
अपने दो बच्चों के साथ शीतल बड़की दीदी के ससुराल आ गई, पूर्णियां। ट्रेन से पहले कटिहार आना होता, वहां से 20-22 किलोमीटर का रास्ता टैक्सी में। ट्रेन सिर्फ आठ घंटे की देरी से पहुंची थी कटिहार। भूखे-प्यासे बच्चों के साथ जून की गर्मी में पूर्णियां पहुंचते-पहुंचते तो शीतल को लगा कि कठिन निर्जल व्रत की शुरुआत तो यात्रा के माध्यम से ही हो गई।
अगले दिन तड़के नहा-धोकर सिटी काली मंदिर जाने की बात थी। शाम को ही बड़की दीदी पूजा के सभी सामान ले आई थी – कुलथी, काला तिल, काला कपड़ा, सरसों तेल और काला खड़ाऊं। दीदी राहुल के लिए काले घोड़े के नाल की अंगूठी भी बनवा लाईं थीं। कल संकल्प लेने के बाद जप-मंत्र “ऊं ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय नमः” का 23 हज़ार बार पाठ किया जाना था।
“23 हज़ार बार? दीदी, इतनी देर तक कौन जप कर पाएगा? इतनी कठिन तपस्या?”
“तुम भी ना शीतल। कुछो नहीं करना चाहती हो, कोई मेहनत नहीं। हम इतने बुरबक थोड़े हैं कि तुम ही को बोल देंगे - लो कर लो 23 हजार बार पाठ।”
“नहीं, मैं तो ये कह रही थी कि पंडित लोग पाठ तो करेंगे ठीक से...,” शीतल ने बात संभालने के लिए कह दिया।
“नहीं करेंगे तो उनको ही पाप चढ़ेगा। हम अपनी तरफ से कोई कमी थोड़े छोड़ रहे हैं? पईसा-वईसा भी दे दिए हैं एडवांस में। पंडितजी से सब बात हो गया है। 23 गो पंडित लोग बैठेंगे पाठ के लिए। आठ-नौ घंटा में पाठ खत्म, उतनी देर में हवन-उवन भी हो जाएगा। मंदिर में पंडित लोग को खाना भी खिलवा देंगे हमलोग।”
ये अच्छा था। पाठ ठीक से होता तो मीकू बाबू के हिस्से और बिगड़ने का पाप पंडितों के हिस्से! लेकिन शीतल ने इस बार कुछ नहीं कहा।
वो बड़की दीदी की तैयारी देखकर हैरान थी। वाकई दीदी ने राहुल के लिए बड़ी मेहनत से पूजा-पाठ की सभी व्यवस्था कर रखी थी। कोई सामान ना छूटे, इसके लिए शाम से दो बार पूजा रूम में जाकर एक-एक सामग्री को भली-भांति देख-परख आई थीं। पूजा की लिस्ट अपने आंचल में बांधकर घूम रही थीं वो। इसलिए राहुल ने शीतल को चलते समय पैसे का लिफाफा देते हुए कहा था, “जितने पैसे लगें, पूजा ठीक से हो जानी चाहिए। इतने में भी ना हो तो दीदी से कहना कि वो अपनी ओर से खर्च कर दें। मैं उनके अकाउंट में डलवा दूंगा। पूजा ठीक से निपट जाए बस। क्या पता रास्ते का यही रोड़ा हो?”
राहुल की आस्था को देखकर शीतल ने कोई बहस नहीं करनी चाही थी। विश्वास वाकई बड़े-बड़े पहाड़ धराशायी कर देता है, समंदर के ऊपर से पत्थरों का पुल गुज़र जाया करता है, बंज़र ज़मीन सोना उगलने लगती है। दीदी की प्रार्थनाओं में ज़रूर कुछ ना कुछ होगा। शीतल बड़की दीदी जैसी पुजारिन नहीं तो नास्तिक भी नहीं।
दीदी सुबह तीन बजे से ही उठकर पूजा की तैयारी करती रहीं। शीतल उठकर बच्चों के लिए दूध लेने गई रसोई में तबतक सबके लिए नाश्ता बन चुका था और दीदी किसी पाठ के लिए बैठ गई थीं। दीदी का आठ-दस साल का नौकर वीरू लगा हुआ था रसोई में। उतने छोटे बच्चे को पांच किलो आटा गूंधते देखकर शीतल का मन भर आया। “हट जाओ वीरू, मैं कर देती हूं,” शीतल ने साड़ी का पल्ला बगल में खोंसते हुए कहा। “भाभी जी! उठि गईले छै? बच्चा सब दूध पीतै कि? दूध फ्रिजे में छै।“ वीरू के हाथ आटे से सने थे और माथे पर कोई शिकन ना था। “मेरा बड़ा बेटा इससे दो-एक साल ही तो छोटा होगा,” शीतल का मन फिर से भारी हो गया। इस बार वीरू को ज़र्बदस्ती परे हटाकर वो आटा गूंधने लगी। वीरू बेचारा बार-बार बोलता रहा, “अपने जियय। हम करबै।”
पूजा रूम से दीदी ने करीब-करीब चीखते हुए आवाज़ लगाई, “वीरू, रे बीरूआ। बहरा हो गया है क्या? सुनाई नहीं देता? कब से चार ठो फूल मांग रहे हैं। आधा घंटा में मंदिर जाना है। भाभी और बच्चा लोग को देख लेना कि उठा है सब कि नहीं।”
“हम सब उठ गए हैं दीदी। बच्चों की दूध दे देती हूं। आप चाय पिएंगी क्या?” शीतल पूजा रूम के बाहर आकर खड़ी हो गई थी। काली नाइटी के ऊपर रामनामी अंगोछा डाले दीदी एक हाथ से पूरे पूजा रूम में लगी तकरीबन पच्चीस तस्वीरों को एक-एक कर फूल चढ़ा रहीं थीं और दूसरे हाथ से मोबाईल पर किसी का नंबर मिला रहीं थीं।
“ये जगनवा भी ना, एकदम टाईम पर अपना फोन बंद कर देता है। हम कल ही बोल दिए थे उसको कि सब लोग बड़का गाड़ी से मंदिर चलेंगे भोरे-भोरे। इसलिए पांचे बजे आकर गाड़ी-उड़ी साफ कर दे। अभी तक नहीं आया है बेहूदा।” दीदी के मुंह से ऐसी बोली सुनकर शीतल घबराकर वापस जाने लगी।
“और सुनो शीतल, चाय-वाय मत पी लेना तुम। संकल्प तुमको ही लेना है। और थोड़ा अच्छा लाल-पीला साड़ी-कपड़ा पहन लेना। अब मंदिर में दो-चार लोग देखेंगे कि नहीं कि मीकू की कनिया आई है।”
सिर हिलाते हुए शीतल पूजा रूम के सामने से तो हट गई लेकिन वापस कमरे में जाकर धप्प से बिस्तर पर बैठ गई। अब क्या करूं? सामान की लिस्ट में दीदी ने लाल साड़ी तो लिखवाई ही नहीं थी। वो तो दो-तीन दिनों के हिसाब से सिर्फ हल्की साड़ियां ही लेकर आई थी।
दीदी ने शीतल को नहीं बख्शा। लंबे-चौड़े भाषण का कलफ़ लगाकर उन्होंने अपनी एक लाल साड़ी शीतल को पहनने के लिए दे दी, साथ में सिंदूर की डिब्बी, बिंदी, मंगलसूत्र, कान के झुमके और कंगन भी दे गईं। ये पूजा के लिए जाना था या किसी शादी-पार्टी के लिए? शीतल हैरान थी। जिरह करने का वक्त नहीं था, ना हिम्मत थी। बच्चों को तैयार कर साड़ी में लदी-फदी शीतल खुद को और बच्चों को संभालती दीदी की स्कोर्पियो में बैठ गई।
ऐसा लग रहा था जैसे पूरा परिवार किसी पिकनिक पर जा रहा हो। दीदी ने एक गाड़ी में पूजा का सामान, फूलों की टोकरी और ज़मीन पर बिछानेवाली चटाईयां भिजवा दीं। पंडितों के लिए खाना भी गाड़ी में लाद लिया गया। बड़की दीदी की भजन मंडली की महिलाओं को भी मंदिर में पूजा में आने का निमंत्रण था, सो अड़ोस-पड़ोस के घर से दो-चार भाभियां, चाचियां भी आ गईं। बड़ी गाड़ी में सबको लादकर दीदी ने ड्राईवर जगन को चलने का निर्देश दिया ही था कि अचानक उन्हें वीरू याद आ गया।
“बीरूआ कहां है रे? रे बीरूआऽऽऽऽऽ। सो गया है क्या रे ऊपर? चल गाड़ी में बैठ। सामान-उमान रख दिया है ना सारा कि कुछ बाकी छोड़ दिया? कुछो छूटा तो बड़ी मार मारेंगे, कह देते हैं।” गाड़ी के गेट के बाहर खड़ा वीरू खिसियानी हंसी हंसता रहा।
“इस गाड़ी में तो जगह नहीं है दीदी। वीरू कहां बैठेगा?” शीतल ने डरते-डरते पूछा।
“यहां, पैर के पास, नीचे बीच में बैठ जाएगा। अब माथा पर तो बईठा कर नहीं ना ले जाएंगे।”
शीतल चुप हो गई। वीरू ने भी बड़ी आराम से दीदी के चरणों में जगह खोज ली। वहीं बैठे-बैठे शीतल की गोद में बैठी नन्हीं रिया की पायल के साथ खेलता रहा। जाने कैसे-कैसे मुंह बनाता रहा कि रिया उसकी शक्ल देख-देखकर पूरे रास्ते खिलखिलाती रही। शुक्र था कि मंदिर का रास्ता दस-पंद्रह मिनट में ही तय हो गया, वरना शीतल पैरों के पास किसी तरह कसमसा कर बैठे वीरू को देखकर उसे अपराध-बोध सा होता रहा।
मंदिर के बाहर गाड़ियों की कतार लगी थी। “आज गंगा दशहरा है ना, इसीलिए,” दीदी के साथ आई एक महिला ने कहा। दूसरी ने दीदी की सराहना की, “बड़ा अच्छा दिन पर पूजा करवा रही हो ममता। अब आजकल भाई के लिए कोई इतना करता है क्या?”“तुम बड़ी खुशकिस्मत हो कनिया कि मां समान बड़ी ननद मिली। सास की कमी महसूस नहीं होने देती है तुमको, है कि नहीं?” शीतल सबकी बातें सुन-सुनकर मुस्कुराती रही और दीदी अपनी तारीफें सुनकर फूली नहीं समा रही थीं।
सिटी काली मंदिर के ठीक बगल में एक छोटी-सी नदी थी जिसे जेठ की गर्मी ने बेजान कर दिया था। उसी सूखी-सी मरियल नदी के एक किनारे सीढ़ियां बनी हुई थीं और एक तरह महिलाएं और दूसरी तरफ पुरुष स्नान-ध्यान करने में लगे थे। नदी की हालत ऐसी जैसे किसी नाले में कहीं का गंदा पानी खोल दिया गया हो। ऊपर से तैरतीं दो-चार बकरियां भी चली आ रही थीं, दूसरे किनारे पर भैंसें गंगा दशहरा के दिन पवित्र स्नान का पुण्य कमाने के लिए चलीं आईं थीं।
दीदी और उनके साथ आईं बाकी महिलाएं अपनी-अपनी साड़ियां उतार पानी में उतर गईं। शीतल घबराई-सी देखती रही, फिर जल्दी से सबकी साड़ियों को तह लगाने का काम करने लगी। कम-से-कम व्यस्त और इन्वॉल्वड तो नज़र आती ऐसे। वरना उसके चेहरे के भाव पढ़ लेना दुनिया का सबसे आसान काम है। बच्चे सीढ़ियों पर बैठकर मिट्टी से खेलते रहे, शीतल एक के बाद एक साड़ियां तह करती रही, पानी में उतरी महिलाएं डुबकियां लगाती रहीं, तपते सूरज का गुस्सा अपने अर्घ्य से देकर शांत करने की कोशिश करतीं रहीं। वीरू कभी पंडितों के पास सामान पहुंचाता रहा, कभी पानी में उतरी अपनी मालकिन की गालियां सुनने के लिए वापस आता रहा।
पानी से निकलने के बाद विधिवत पूजा करने में अगले आधे घंटे गुज़र गए। तबतक बच्चों को भूख लगने लगी थी। लेकिन शीतल ने दीदी से डर के मारे कुछ कहा नहीं। अभी तो पूजा की प्रक्रिया का सबसे मुश्किल हिस्सा बचा था। ये झटका दीदी ने दिया था फिर से, “शीतल, मंदिर के पीछे जाकर एक ठो बकरी का बच्चा पसंद कर आओ। बलि का काम भी शुरू करवा ही देते हैं।”
शीतल को काटो तो ख़ून नहीं। ये भी करना पड़ेगा? बच्चों को दीदी के पास खड़ाकर शीतल मंदिर के पिछवाड़े तो चली आई, लेकिन वहां का नज़ारा देखकर उसे एक कोना ढूंढना पड़ा। बलि के स्थान से होकर बहती रक्त-धारा और सुबह से खाली पेट होने का मिला-जुला असर ये हुआ कि शीतल को जीभर कर उलटी हुई। वहीं दीवार का सहारा लेकर दो मिनट तक खड़े रहने के बाद शीतल ने चापाकल चलाकर मुंह-हाथ धोया और वापस लौट आई।
दीदी अब पंडितों की पूजा के निरीक्षण में लग गई थीं। एक-एक पंडित के पास झुककर उनका पाठ सुनतीं, तसल्ली होती तभी आगे जातीं। बाकी महिलाएं शिव-पूजन में लग गईं थीं। अगरबत्तियां जलाने, धूप दिखाने, जल चढ़ाने और फूल अर्पित करने की होड़ लग गई थी जैसे। रूद्राभिषेक तो अभी शुरू भी नहीं हुआ था। जाने ये पूजा और कितनी देर चलती?
शीतल ही जब भूख से बेहाल हो रही थी तो बच्चों को जाने कैसा लग रहा होगा! मंदिर की सीढ़ियों पर आम के पेड़ की छांव के नीचे बच्चे शांति से बैठे थे, अब उनमें खेलने-कूदने की हिम्मत भी बाकी नहीं थी। बच्चों से थोड़ी दूर वीरू खड़ा था, धूप में, क्योंकि मंदिर में घुसने की अनुमति उसे नहीं थी। सुबह काम की हड़बड़ी में नहाकर जो नहीं आ सका था।
शीतल थोड़ी देर उन तीनों को देखती रही, फिर रिया को गोद में उठाकर उसने ऋषभ का हाथ पकड़ा और वीरू को इशारा कर बाहर की ओर बुला लिया। सब्र का बांध टूट गया था और भूख ने शीतल को करीब-करीब बाग़ी बना दिया। शीतल तेज़ी से मंदिर के अहाते से बाहर निकल गई। ऋषभ और वीरू भी खिंचते हुए चले आए। मंदिर के बाहर एक छोटी-सी दुकान में शीतल ने बच्चों को बिठा दिया और वीरू को भी बैठने को कहा। वीरू खड़ा ही रहा, बैठा नहीं। ऋषभ के बैठने की जगह को जल्दी से उसने अपनी हथेली से झाड़कर साफ ज़रूर कर दिया।
शीतल ने माज़ा की चार बोतलें और चार समोसे मंगवा लिए। बच्चों के सामने समोसे और बोतलें रखकर उसने वीरू की ओर एक प्लेट बढ़ा दी। वीरू कुछ देर तक प्लेट की ओर देखता रहा, फिर धीरे से बोला, “अपने के खईए। हमे मलकिनी के खईला के बाद खईबे...”
4 टिप्पणियां:
'काली नाइटी के ऊपर रामनामी अंगोछा' वाह, क्या सीन है.
चलिए पटाक्षेप हुआ !
Aisa laga jaise ki yein ek sachi kahani hoon. bahut acha likha apne. it feels like more of a incident narration then fictional story.
वीरू ने समोसा खाया के नहीं.
आडम्बरों की खूब बखिया उधेड़ी आपने.
एक टिप्पणी भेजें