हम तीन जनों के बीच में डेढ़ सीटें हैं - आरएसी वाली। बच्चों के साथ ट्रेन में सफ़र करने का मेरा अनुभव शायद ही कभी खराब रहा है, इसलिए मैं एक मिनट के लिए भी परेशान नहीं होती। कुछ न कुछ हो ही जाएगा। लोग इतने भी उदासीन नहीं कि दो बच्चों के साथ अकेली चलती मां के लिए जगह न बना सकें।
अगस्त क्रांति राजधानी में बैठते हुए समझ में आया है कि एक मैं ही नहीं, एसीटू की इस बोगी में कुल मिलाकर दस लोग ऐसे हैं जो आरएसी में हैं। इनमें से तो एक बिचारी लड़की को छोड़ने आए मां-बाप इतना घबराए हुए हैं कि अंधेरी से बोरिवली तक उसके वेटलिस्ट एक टिकट को किसी तरह कन्फर्म कराने की नाकाम कोशिश करते हुए बोरिवली में मायूस उतर गए हैं। लड़की फिर भी दिल्ली जाने पर अड़ी हुई है। सोमवार से उसका कॉलेज खुल रहा है शायद।
सामान कहीं, मैं कहीं, बच्चे कहीं।
लेकिन ये अव्यवस्था कुल मिलाकर बीस मिनट की ही है। मेरे साथ की सीट वाले सज्जन अपनी पत्नी और एक बेटी की परिवार को लेकर बगल की सीट में एडजस्ट हो गए हैं और उन्होंने अपनी एक सीट हमारे लिए छोड़ दी है। अब हमारे पास पूरी दो सीटें हैं, वो भी ऊपर-नीचे की।
बच्चों ने इतनी ही देर में अपना सामान खोल लिया है और ऊपरवाली सीट पर ऐसे जा बैठे हैं कि ये उनका रोज़-रोज़ का काम है - मुंबई सेंट्रल से बोरिवली तक रोज़ आते-जाते राजधानी लेने वाले चंद रेलवे कर्मचारियों की तरह, जिनके लिए यही ट्रेन दफ़्तर जाने का साधन है।
वो लड़की भी कहीं जगह बनाकर बैठ ही गई है। मेरे सामने वाली सीट पर एक और लड़की है, जो फोन पर अपनी मां से पहले उड़िया में बात करती है और उसके बाद अपने भैया से हिंदी में - झारखंडी हिंदी में। मैं ये जानने के लिए उत्सुक हूं कि ये लड़की रांची या बोकारो या जमेशदपुर से है क्या? ट्रेन में लोगों से बात करने और दोस्त बनाने की यूं भी बीमारी है मुझे।
लेकिन हम किसी से कुछ नहीं कहते और मेरी आंखें सिडनी शेल्डन के उस थ्रिलर में जा घुसी हैं जो घर से निकलते हुए मेरी भाभी ने मुझे पकड़ाया था - सफ़र बैठकर काटना पड़े तो उसके लिए।
नाश्ता आता है, खाली ट्रे वापस लौटा दी जाती हैं। ट्रेन में एक ख़ास किस्म की ऊर्जा होती है, एक ख़ास किस्म का माहौल। आवाज़ें, गंध, हलचल, बोलियां, गतिविधियां - सब एक ख़ास किस्म की। हमारे व्यक्तित्व के वो हिस्से रेल यात्राओं में बाहर निकलकर आते हैं जिनपर हमने भी शायद कभी ध्यान दिया हो।
मसलन, सामने बैठी उस लड़की ने शायद ही कभी सोचा हो कि मदद करना उसका स्वभाव है। वो बड़ी आसानी से दे सकती है, मदद कर सकती है, खुल सकती है किसी अजनबी से। होता यूं है कि वेटिंग में सफ़र कर रही लड़की को वो अपनी सीट पर बुला लेती है, और कहती है कि डोंट वरी, हम दोनों रात इसी सीट पर काट लेंगे। सफ़र करो तो इतना एडजस्ट करना ही पड़ता है!
मैं इस बातचीत से हैरान किताब से आंखें निकालकर उसकी ओर देखने लगती हूं। बीस-बाईस साल की उम्र में हम ज़्यादा समझदार होते हैं। हमारे दिलों का आकार वक़्त के साथ-साथ संकुचित होता चला जाता है शायद।
बच्चे नीचे उतर आए हैं और उनकी ज़िद है कि मैं बगल वाली महिला से इसलिए दोस्ती कर लूं ताकि उनके बच्चों के साथ खेलने का मौका उन्हें मिल सके।
"मम्मा, आपने बैंगलोर जाते हुए भी तो सजीव की मम्मा से दोस्ती कर ली थी। कितना मज़ा आया था! आप प्लीज़ बात करो न बगल वाली आंटी से। आपको भी तो एक नई फ्रेंड मिलेगी।"
लेकिन मेरे पास करने को कई काम हैं और एक रात के लिए दोस्ती करने की प्रेरणा भी नहीं रही अब। (मैंने कहा था न कि उम्र के साथ-साथ दिल भी छोटे होने लगते हैं!)
बच्चे अब मेरी पहल का इंतज़ार नहीं करते और पास बैठे देव और उसके बड़े भाई से दोस्ती कर लेते हैं। थोड़ी ही देर में किताबें, क्रेयॉन्स और सादे काग़ज़ के पन्नों के साथ-साथ सीटों की भी अदला-बदली हो चली है।
बच्चों का ऊधम चालू है, लेकिन सफ़र करने वालों में शायद बहुत सारा सब्र भी आ जाता है।
अचानक मुझे इस बात का फ़ख़्र हो आता है कि हम इतना सफ़र करनेवालों में से एक हैं। मुझे इस बात की खुशी होती है कि हम घुमंतू हैं, और पैरों में पहिए हैं हमारे।
अरी ओ किस्मत, हमें घुमंतू ही बनाए रखना।
घुमंतू ही बनाए रखना ताकि हम खिलौनों और चीज़ों की बजाए ऐसे बेमानी लम्हों के अनुभवों को संभालना सीखें। घुमंतू बनाए रखना ताकि हम बांटना सीखें - अपनी चीज़ें भी, अपनी सीटें भी।
घुमंतू बनाए रखना ताकि सफ़र हमारे लिए जितना अहम हो, उतनी तवज्जो हम मंज़िलों को कभी न दें। सफ़र में रहें हम, और ये ज़िन्सदगी सफ़र में ही गुज़र जाए।
घुमंतू बनाए रखना ताकि हैरत भरी नज़रों से नए लोगों, नई जगहों, नए शहरों, नए ठिकानों को देखते रहें हम, उनसे अपने वजूद में कुछ न कुछ लेते रहे हम और कभी जड़ न बनें - न शरीर से, न विचारों से।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दूर-दूर जाकर हम दरअसल बाहर कुछ और नहीं खोज रहे होते। ये सफ़र हमें आत्मान्वेषी बनाते हैं।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी फेसबुक पर हमारे दोस्तों की संख्या में इज़ाफ़ा हो सकेगा, फोनबुक में और नंबर जुड़ सकेंगे, अपनी दुआओं का दायरा बढ़ा सकेंगे हम।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि यूं इस तरह एक घंटे में ज़िन्दगी भर के लिए दोस्त बना सकने का मौका ज़िन्दगी किसी और तरह से नहीं देती।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हमारे भीतर का कौतूहल तभी ज़िंदा रहेगा और दिलों का आकार तंग न होता जाए, इसके लिए ऐसी यात्राओं पर बने रहना ज़रूरी है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि सुख 'कम्फर्ट ज़ोन' में बने रहने में नहीं होता। घुमंतू बनाए रखना ताकि कह सकें हम - बहुत ख़ूबसूरत है लत्ताओं, पत्तियों की झांझरी है, लेकिन हमें हमारा सफ़र प्यारा है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि जीवन सफ़र में चलने का नाम होता है तो घूमते रहने से बेहतर जीने का और तरीका क्या होगा?
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि हम नदी की वो धारा बने रहना का सुख चाहते हैं जो बहती रहती है। यूं भी नदी अपने स्रोत से जितनी दूर होती है, उतनी ही लंबी होती है और उतने ही ज़्यादा किनारों को पाटती है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी हम (और ख़ासकर बच्चे) हर हाल में मज़ा करना सीखेंगी - चाहे इसके लिए तंग सीटों और गंदे टॉयलेट्स से भी क्यों न समझौता करना पड़े।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी ज़िन्दगी से शिकायतें कम होंगी और बाहर की दुनिया को देखने के नज़रिए में करुणा, प्यार, दरियादिली और समझ घुलेगी।
घुमंतु बनाए रखना क्योंकि जो बाहर की दुनिया जितना ही ज़्यादा देखते हैं, दुनिया पर भरोसा भी उतनी ही आसानी से करते हैं। यही भरोसा दुनिया को जिलाए रखता है।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि दुनिया के बारे में जितना ज्ञान अख़बारों और क़िताबों से नहीं मिलता, उतना मुसाफ़िरों के फ़लसफ़ों, उनकी टिप्पणियों से मिलता है।
घुमंतू बनाए रखना हमें क्योंकि हमारी यही फ़ितरत जितनी आसानी से जुड़ना और प्यार करना सिखाती है, उतनी ही आसानी से जाने देना और पीछे से दुआ का एक क़लमा पढ़ने की हिम्मत भी देती है। घुमंतू बनाए रखना क्योंकि विदाई का, जुदाई का सदमा कम होगा फिर।
मैं जीना चाहती हूं और चलते रहना चाहती हूं। इसलिए अरी ओ किस्मत! पैरों में पहिए और घुमंतुओं की ऐसी सोहबतें मेरे लिए भी बचाए रखना, मेरे बच्चों के लिए भी।
6 टिप्पणियां:
"घुमंतू बनाए रखना हमें क्योंकि हमारी यही फ़ितरत जितनी आसानी से जुड़ना और प्यार करना सिखाती है, उतनी ही आसानी से जाने देना और पीछे से दुआ का एक क़लमा पढ़ने की हिम्मत भी देती है।"
कितना सच... कितना सुन्दर!
वाह!
"घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी ज़िन्दगी से शिकायतें कम होंगी और बाहर की दुनिया को देखने के नज़रिए में करुणा, प्यार, दरियादिली और समझ घुलेगी।"
सुन्दर लिखा!
सच ही लिखा है आपने उम्र के साथ शायद दिल वास्तव में सिकुड़ जाते हैं। इसलिए ज़िंदगी जीने का सही अर्थ यह सफर ही सीखते हैं। सार्थक भाव अभिव्यक्ति।
Lovely!
हमारे बच्चे तो बिना पूछे ही दोस्ती गाँठ आते हैं, ऐसे ही आनन्द में घूमती रहिये।
घुमंतू बनाए रखना क्योंकि तभी ज़िन्दगी से शिकायतें कम होंगी और बाहर की दुनिया को देखने के नज़रिए में करुणा, प्यार, दरियादिली और समझ घुलेगी।
बढ़िया।
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