इस शहर में सुबहें बड़ी खाली होती हैं। सड़कें खाली, रास्ते खाली, पार्क खाली, बसें खाली, लोकल ट्रेन खाली। खाली सड़कों पर बहुत देर तक तेज़-तेज़ चलते रहने के बाद भी आराम नहीं आता।
मैं इतनी बेचैन क्यों हूं?
जॉगिंग शूज़ पहनकर निकले इतनी सुबह निकले इतने सारे लोग बेचैनी कम करने के लिए बाहर निकले हैं या अपना वज़न कम करने के लिए?
ये शहर बेचैन लोगों का शहर है। सब बैचैन हैं। या मुझे ही बेचैन दिखते हैं लोग।
एक और बीमारी हो गई है आजकल। जिस औरत को काम पर जाते देखती हूं, उसके पीछे छूट गए घर के बारे में सोचती हूं। कब लौटती होगी वो? उसके बच्चे होंगे क्या? उनका होमवर्क कौन कराता होगा? सुबह कितने बजे उठकर खाना बनाया होगा? पार्क में बच्चों के साथ चलती मांओं को देखती रहती हूं। बच्चे को बड़ा करने के अलावा कोई और मकसद होगा क्या इनकी ज़िन्दगी का?
मैं पार्क के कोने में बेंच पर बैठने लगती हूं तो देखती हूं एक बुज़ुर्ग महिला अपने से भी कहीं ज़्यादा उम्रदराज़ शख़्स को धीरे-धीरे हाथ पकड़कर टहला रही हैं। जाने कौन किसको टहला रहे है, लेकिन इन दोनों को देखकर मैं बहुत बेचैन हो जाती हूं। इनका खाना कौन बनाता होगा? कैसे रहते होंगे इतने बड़े शहर में दोनों? दो लाचार लोग क्या साथ दे पाते होंगे एक-दूसरे का? इनका परिवार नहीं है? बच्चे होंगे या नहीं? इसी अकेलेपन और लाचारी से बचने के लिए तो हिंदुस्तान में लोग परिवार बनाते हैं, बच्चे पैदा करते हैं। बच्चे - बुढ़ापे का सहारा। बेटा - बुढ़ापे की लाठी। फिर भी अकेले रह जाते हैं लोग। बुढ़ापा किसी पर दया नहीं दिखाता। बीमारी किसी को नहीं बख़्शती। बेचारगी और अकेलापन अकाट्य सत्य है। अवश्यंभावी। किसी मां के लिए भी, और पिता के लिए भी।
गले में कुछ अटककर रह जाता है। ऐसे ही किसी लम्हे ने युवराज सिद्धार्थ को घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया होगा।
शाम की हवा भी सुकून नहीं लाती। मन है कि मधुमक्खियों का छत्ता हो गया है। कोई एक लम्हा फेंको नहीं इधर कि सवालों के झुंड डंक मारने को दौड़ते हैं।
हम किस तलाश में हैं?
ज़िन्दगी का हासिल क्या हो?
अगर यही लाचारी आख़िरी सच है तो फिर इतनी भागमभाग क्यों?
वक़्त मेरे नाम का बहीखाता खोलेगा तो क्या-क्या निकलेगा बाहर? बच्चों के बड़े होने जाने पर ऐसी ही तन्हाई मिलती है क्या? मैंने अपनी मां को कहां छोड़ दिया? मेरे बच्चे मुझे कहां छोड़ देंगे? मैं ंकिसके लिए कर रही हूं ये सब? ज़िन्दगी में आसानी चुनने से इतना परहेज़ क्यों?
मुझे इतनी घबराहट हो रही है कि लग रहा है कि जैसे पार्क की बेंच पर, यहीं बैठे-बैठे उल्टी हो जाएगी। अंदर कुछ है जो निकल पड़ने को व्याकुल है। ये नॉसिया उसी साइकोसोमैटिक डिसॉर्डर का नतीजा है। मैं इस लम्हे, ठीक इसी लम्हे, लौट जाना चाहती हूं। पता नहीं कहां, लेकिन लौट जाना चाहती हूं कहीं।
घबराकर फोन देखती हूं। किसको फोन करूं? किससे बात करूं? इन बेचैनियों को यूं भी शब्द नहीं दिए जा सकते। क्या कहूंगी, कि बच्चों को घर पर छोड़ आई और बाहर इसलिए भटक रही हूं क्योंकि सवालों की मधुमक्खियां पीछा कर रही हैं?
सोलह साल में ऐसी बेचैनी होती थी। इस उम्र में भी होगी? सोलह साल में भी इतने ही सवाल थे। बड़े होकर करना क्या है? ज़िन्दगी का मक़सद क्या हो? कमबख़्त ये सवाल ऐसा है कि अब भी पीछा नहीं छोड़ता। मेरी ज़िन्दगी का मक़सद क्या था? मैं कहां भटक गई?
फिर ताज़िन्दगी जवाब मिलते क्यों नहीं, कि हम किस चीज़ का पीछा कर रहे होते हैं। मर ही जाना है तो जीने के आरज़ू क्योंकर हो?
ये मैं नहीं, मेरे भीतर से कोई और बोल रहा है। मेरा उस आवाज़ पर कोई बस नहीं चलता और मेरी तमाम समझदारियों को वो एक आवाज़ अक्सर बेक़ाबू कर देती है।
फोन पर गूगल खुल गया है और मैं वर्किंग मदर्स गूगल करती हूं। पता नहीं क्यों? मेरे भीतर की सारी लड़ाई ही यही है। मां होने और प्रोफेशनल होने के बीच की। दोनों होने की कोशिश कई कुर्बानियां मांगती है। जब इतना ही मुश्किल है सबकुछ तो हार क्यों नहीं मान जाती मैं? आसानियों की राह चुन लेना मेरी भी ज़िन्दगी आसान कर देगा, और मेरे बच्चों की भी। शाम को उन्हें सुलाने के बाद देर रात तक लैपटॉप पर आंखें फोड़ने से मुझे निजात मिलेगा, और सुबह तक जलती बत्ती में सोने की मजबूरी से बच्चों को। उन्हें स्कूल से लौटते हुए ये डर नहीं सताएगा कि बस स्टॉप पर उन्हें लेने के लिए कोई होगा या नहीं। मुझे इस तनाव से छुट्टी मिल जाएगी कि बच्चे जिस दिन घर पर हों उस दिन मीटिंग के लिए कैसे जाऊंगी मैं?
मैं क्यों उलझ रही हूं इतना? क्यों ज़रूरी है काम करना?
जवाब ढूंढने के लिए मैं फोन पर फिर से सक्सेसफुल मदर्स टाईप करती हूं।
फिर पावर वूमैन।
मुझे आजकल उन तमाम औरतों की कहानियां आकर्षित करती हैं जो अपने-अपने स्तर पर अपनी-अपनी किस्मतों से अलग-अलग तरीके से संघर्ष कर रही हैं। अपने सपनों का पीछा करते हुए कड़ी आलोचनाओं और समाज के पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए कैसे बनाई जाती होंगी राहें? मां तो वो है न जो दूसरों के ख़्वाबों को पालती-पोसती हो - मेरी मां की तरह - ताकि उनके पति-बच्चे-परिवार अपनी ज़िन्दगियां, अपने ख़्वाब जी सकें।
अपनी मां के ज़रिए मैंने दूसरों का ख़्वाब जीने वालों को बहुत देखा है।
मैं औरतों के लिए गाली जैसा लगने वाला शब्द - 'ambitious' - महत्वाकांक्षी औरतों के बारे में जानना चाहती हूं।
कैसी औरतें होंगी जो घर और बाहर, सबपर काबिज़ दिखाई देती हैं? उनकी बेचैनियों के बारे में किसी ने तो लिखा होगा कहीं।
जवाब फिर भी नहीं मिलते, और नाम वही गिने-चुने - सिंडी क्रॉफर्ड, माधुरी दीक्षित, फराह खान, नैना लाल किदवई, लीला सेठ, सुष्मिता सेन, एंजेलिना जोली और बीच-बीच में कहीं मेरी कॉम, गीता गोपीनाथ...
मैं कई और बहुत सारी औरतों के बारे में सोचती हूं। अपनी मां के बारे में सोचती हूं।
गूगल ही मुझे टॉनी मॉरिसन के एक इंटरव्यू की ओर लेकर चला जाता है।
टोनी मॉरिसन। एक और मां। एक और वो मां, औरत, जिसने अपनी लेखनी के ज़रिए मदरहुड को नए सिरे से परिभाषित किया। टोनी की रची हुई मांएं मातृत्व के सारे स्टीरियोटाईप्स तोड़ती हैं। टोनी की रची हुई औरतें के परिवार समाज के तय किए हुए सभी मापदंडों की अ"द ब्लुएस्ट आई" टोनी मॉरिसन की पहली किताब थी जो मैंने आद्या और आदित के आने के दौरान पढ़ा था, जब मैटरनिटी लीव पर थी। फिर 'Beloved' पढ़ी, और फिर 'Sula'. दोनों नॉवेल्स के ज़रिए मातृत्व पर - मां होने पर - मां की भूमिका पर इन दोनों किताबों ने मेरे भीतर कई पैमाने तय किए थे।
टोनी मॉरिसन की रची हुई मांएं भी अलग-अलग किस्मों की होती हैं। उनमें सेथे जैसी मां होती है जो अपने बच्चों को इस हद तक प्यार करती है कि उन्हें अपनी निजी जागीर समझती है। उनमें बेबी जैसी मां भी होती है जो नाप-तौल कर अपने हिस्से के प्यार इस डर से अपने बच्चों को देती है कि कहीं उसके अपने ही बच्चे उसे बहुत कमज़ोर और बेचारी न बना दें। ये रंगभेद और नस्लभेद, गरीबी और गुलामी के बीच अपने बच्चों को पालने वाली मांएं हैं। ये वो मांएं हैं जो अपने बच्चों को बेचने की बजाए उन्हें मार डालना ज़्यादा उचित समझती हैं। ये वो मांएं हैं जो रचती भी हैं, विनाश भी करती हैं।
और इन सब किरदारों को रचनेवाली मां है टोनी मॉरिसन। टोनी ने जब अपनी पहली किताब - द ब्लुएस्ट आई - शुरू की, वो एक नौकरी करने के साथ-साथ दो बेटों को अकेले पाल रही थीं। नौकरी पर जाने से पहले हर सुबह चार बजे लिखने के लिए उठती थीं। बकौल टोनी, जब भी उनकी हिम्मत जवाब देने लगती, वो अपनी दादी के बारे में सोचतीं जो ग़ुलामी और बेइज़्जती की ज़िन्दगी से बचने के लिए एक दिन अपने सात बच्चों के साथ दक्षिण से भाग आई थी। तब पेट भरने का भी कोई साधन नहीं था उनके पास। लेकिन मां का एक रूप ये भी होता है कि वो हर हाल में अपने बच्चों के पेट भरने का इंतज़ाम कर ही लेती है, चाहे उसे कृपी की तरह दूध के नाम पर पानी में आटा ही घोलकर क्यों न पिलाना पड़े।
टोनी का इंटरव्यू पढ़ते हुए लगता है कि कोई तीसरी आंख है जो खुल गई है भीतर। मैं हर रोज़ तो देखती हूं ये, फिर इस बात का यकीन क्यों नहीं होता कि बच्चों की ज़रूरतें बहुत कम होती हैं। बच्चों की ज़रूरतों से ज़्यादा मां के ज़ेहन में उसे ही काट खाने को बैठा गिल्ट होता है। उससे भी बड़ी रोज़-रोज़ की जद्दोज़ेहद होती है।
जो मां कामकाजी या 'ambitious' होती है, उसके लिए ये संघर्ष और भी बड़ा हो जाता है क्योंकि मां के तौर पर आपके सिर पर रोल मॉडल बन जाने का दबाव भी होता है।
चाहे जो भी हो, मां हैं आप तो अपने बच्चों के सामने बिखर नहीं सकते। उनके सामने कमज़ोर नहीं पड़ सकते। आपको हारते-टूटते हुए देखना आपके बच्चों के लिए सबसे बड़ा सदमा होता है। आपके बच्चे आपको एक adult, एक समझदार adult के तौर पर देखना चाहते हैं। और बच्चों को याद नहीं रहता कि उनकी मां के बाल कैसे हुआ करते थे। उन्हें ये ज़रूर याद रहता है कि हर हाल में मां ने सेंस ऑफ ह्यूमर कैसे बचाए रखा था अपना। ये याद रहता है कि अपनी विपरीत परिस्थितियों से हंसते हुए कैसे जूझा करती थी मां।
बच्चे अगर मां की ज़िन्दगी के दिए हुए लम्हों का योग हैं, तो फिर उनकी ख़ातिर अपने सपनों को बचाए रखना और ज़रूरी हो जाता है। टुकड़ों-टुकड़ों में अपने सपने जीकर दिखाएंगे बच्चों को, तो उन्हें अपने नामुमकिन सपनों पर यकीन होगा। इसके एवज में कई छोटे-छोटे लम्हों की क़ुर्बानियां देनी होती हैं, जिनमें उनके लिए हर शाम ठीक पांच बजे आटे का हलवा बना पाने का संतोष भी होता है।
इसलिए, सारे सवाल बेमानी हैं।
मैं टोनी मॉरिसन को थैंक यू बोलने को उठने को ही हूं कि देखती हूं, वो बुज़ुर्ग महिला फोन पर हंस-हंसकर बात कर रही है। फिर वो फोन अपने साथ बैठे अपने पति की ओर बढ़ा देती है। उनके चेहरों पर आई चमक गौतम सिद्धार्थ ने देखी होती न, तो सिद्धि यहीं मिल गई होती। जरा, मरण और दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए जिस मार्ग की खोज में सिद्धार्थ ने घर छोड़ा, उसी घर में अपने नवजात शिशु को बड़ा करते हुए, अपने वृद्ध सास-ससुर की सेवा करते हुए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, अपनी परिस्थितियों के ठीक बीचों-बीच ज़िन्दगी से जूझते हुए साध्वी यशोधरा ने निर्वाण की राह ढूंढ ली। गृहत्याग तभी किया जब कर्तव्यों को पूरा कर लिया. अपने कर्मों को जी लिया।
अभी कुछ देर पहले तक जिसकी लाचारी ने भीतर तक परेशान किया था, उसी कर्मठ बुज़ुर्ग औरत के लिए बहुत सारा प्यार उमड़ आया मन में। बेचैनी और सुकून के बीच एक नैनोसेकेंड की दूरी होती है। सब खेल मन का है।
जवाब मिल गया है। अपने कर्मों को हर दिन जीने में। अपने हालातों को बदलने के लिए बेचैन होने से ज़्यादा उसी के बीच से रास्ता निकालने में।
अब मैं किसी सुपर सक्सेसफुल मदर के बारे में नहीं जानना चाहती।
ज़िन्दगी की जंग का फ़ैसला एक दिन, एक हफ्ते, एक महीने, एक साल में नहीं होता। ज़िन्दगी की जंग आख़िरी सांस तक लड़ी जाती है और ये जो जीत और हार का अहसास है न, वो व्यक्ति सापेक्ष होता है - सफलता की परिभाषा की तरह। और ये पैमाने हम तय करते हैं अपने लिए। कोई और नहीं करता।
6 टिप्पणियां:
छोटी छोटी जीत हर रोज़, ताजिंदगी आखरी सांस तक !!
ये बेचैनी बहुत दूर तक आपको ले जायेगी जब तक आप चल चल कर थक नहीं जाती.
सवालों की मधुमक्खियां शहद जैसा मीठा ही उत्तर देंगी आपको, क्या आपके लिए ये शुभकामना की जा सकती है?
हाँ शायद जीना इसी का नाम है क्यूंकि ज़िंदगी हर कदम एक नयी जंग है...
जीवन का दूसरा नाम संघर्ष अर्थात युद्ध ....हर दिन एक नया युद्ध लड़ना पढता है ..अलग अलग परिस्थिति में ....
नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट नया वर्ष !
नई पोस्ट मिशन मून
I simply love ur write ups Anu Di....feel someone is giving words to the suffocation I feel inside but can't express.
एक टिप्पणी भेजें