अंतिम दिन सुबह की ज़ोरदार बारिश में सबकुछ धुल जाने का डर था - दिग्गी पैलेस में सजे मंच और कुर्सियां तो शायद बेअसर भीगती रहतीं, जेएलएफ में आनेवालों का उत्साह जनवरी की इस ठंड में पहले जम जाता। लेकिन मेरी आशंका निराधार रही। सुबह दस बजे अशोक वाजपेयी और यतीन्द्र मिश्र के साथ "कविता की कहानी" पर जो चर्चा होनी थी, वो बिना एक मिनट की भी देरी से, अपने तय वक़्त पर दिग्गी पैलेस के एक छोटे से कमरे में शुरू हो चुकी थी। हम दस मिनट की देरी से पहुंचे, और उतनी ही देर में पूरा कमरा ठसाठस भर गया था और बिना माइक्रोफोन और स्पीकरों के भी सुननेवाले बड़े ध्यान से अशोक वाजपेयी की "कविता की कहानी" पर कविता-सी चर्चा सुन रहे थे!
थोड़ी ही दूर एक दूसरे कमरे में ग्लोरिया स्टेनेम अमेरिकी सिविल राइट्स मूवमेंट में महिलाओं की भूमिका को हिंदुस्तान के संदर्भ में देखने के लिए प्रेरित कर रही हैं। ठंड में उंगलियों ने हरकत करना बंद कर रखा है तो क्या, दिमाग के लिए ढेरों काम है। आख़िरी दिन भी कीचड़ सने रास्तों से होकर दिग्गी पैलेस में आने वालों का तांता रुका नहीं। कहने वालों का कुछ नहीं जाता, सुनने वाले कमाल करते हैं!
सुनने वालों और गुनने वालों की ये भीड़ हर साल जमा होती है यहां। मैं इस बार पांचों दिन रुककर देखना चाहती थी कि वो क्या चीज़ है कि जिसे देखो वही जयपुर जाने को बेताब रहता है। मैं देखना चाहती थी कि जयपुर के नाम का ये 'स्टेटस सिंबल' है, या वाकई पांच दिनों तक यहां की हवा में कोई सुरूर होता है जिसकी कशिश से खिंचकर लोग जाने कहां-कहां से होते हुए जयपुर पहुंच जाते हैं।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन के ओपनिंग एड्रेस - उद्घाटन भाषण - में वो जवाब मिल गया। जब एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अपने देश के लिए सात ख़्वाहिशें बयां करते हुए ये कहे कि काश, मेरा देश विज्ञान के ऊपर कला और समाजशास्त्र (आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटिज़) को तरजीह दे तो जवाब वहीं मिल जाता है। जाने क्यों अमर्त्य सेन को सुनते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी का लिखा स्कूल में पढ़ा हुआ निबंध 'गेहूं और गुलाब' दिमाग में घूमता रहा।
"गेहूं बड़ा या गुलाब? हम क्या चाहते हैं - पुष्ट शरीर या तृप्त मानस? या पुष्ट शरीर पर तृप्त मानस?"
मानव को मानव बनाया गुलाब ने! उस गुलाब ने जो साहित्य और संस्कृति का प्रतीक है। उसी गुलाब की ख़ुशबू में खींचे, थोड़ी देर के लिए अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के उद्देश्य से, अपने तंग समझ की गोल धरती को आकाश बनाने के लिए ऐसे साहित्योत्सवों में पहुंचते हैं लोग। इन लोगों में लिखने वाले या कभी लिखने की ख़्वाहिश रखने वाले ज़रूर होते होंगे शायद। लेकिन इन लोगों में ज़्यादातर जिज्ञासु, न बुझनेवाली प्यास लिए चलनेवाले होते हैं। अपने भीतर की प्यास को बुझा पाने की थोड़ी-सी उम्मीद सुननेवालों को ऐसे महाआयोजन में खींच लाती है।
और कहनेवालों के पास तो कई वजहें हैं। उनके पास कहने, अभिव्यक्त करने को इतना कुछ था,इसलिए उन्होंने किताबें लिखीं। फिल्में बनाईं। गीत और संगीत का ज़रिया चुना। अभिव्यक्त कर चुकने के बाद संवाद की कभी न मिट पाने वाली प्यास कहने वालों को मंच पर ले जाती है, उन लेखकों-कवियों-चिंतकों-दार्शनिकों के भीतर का वक्ता बाहर ले आती है। यूं भी अपनी कहानी सुनाने, अपने अनुभव बांटने की कला में हम सब माहिर होते हैं।
फिर एक बिज्जी पर बात करने के लिए इरफ़ान ख़ान की ज़रूरत क्यों पड़ती है? क्यों कोई स्टार ओमप्रकाश बाल्मिकी की पिछड़े हुए लोगों पर लिखी पिछड़ी हुई कविताएं पढ़ता है तभी कविता अचानक 'ग्लैमरस' लगने लगती है? बेस्टसेलर कौन होता है? पॉपुलर को तवज्जो दी जाए लिटररी को?
जवाब भी इरफान ख़ान की ओर से ही आता है। बिज्जी को शाहरुख या इरफ़ान की ज़रूरत नहीं। बॉलीवुड को बिज्जी की है, क्योंकि बिज्जी पारसमणि थे। तालियां नीरव पटेल के लिए भी बजती हैं, और सीपी देवल के लिए भी। अगर सुननेवाले राज कुंद्रा के थ्रिलर की रचना-प्रेरणा के बारे में जानना चाहते हैं, तो उतने ही सवाल जॉनथन फ्रैनज़न के लिए भी बचाकर रखे जाते हैं।
आख़िर वो कौन सी कड़ी है जो इन सबको जोड़ती है?
एक दिग्गी पैलेस। कुल पांच दिन। 240 से ज़्यादा वक्ता। कुल 175 सत्र। छह अलग-अलग मंच। क्या सुनें और क्या छोड़ें। फिर समझने की शक्ति की भी तो अपनी सीमाएं हैं!
लेकिन उस जगह का प्रताप है कि अपनी तमाम सीमाओं को थोड़ा और धक्का लगाते हुए, खुद को थोड़ा और प्रोत्साहित करते हुए मेरे जैसे हज़ारों सुनने वाले कभी लोकतंत्र पर गहन चर्चा का हिस्सा बने हैं तो कहीं विलुप्त होती भाषाओं पर सिर धुन रहे हैं। हर ओर एक मुद्दा है, हर तरफ उठती,बाहर निकलती आवाज़ें हैं। और ये मलाल भी, कि हर आवाज़ किसी निष्कर्ष पर पहुंचे, ये ज़रूरी नहीं।
इसलिए बिना किसी अपेक्षा के किसी सत्र में बैठ जाने पर बाहर निकलते हुए झोली के भर जाने जैसा गुमां हुआ है। कभी मैंने ये नहीं सोचा था कि अंडमानी भाषा पर गूगल करके गीत सुनूंगी कभी, लेकिन अन्विता अब्बी को उनके शोध के बारे में बोलते हुए सुनकर विलुप्त होती ऐसी भाषाओं की चिंता सताती है। थोड़ी देर के लिए ही सही, समझ में आता है कि गुम होती भाषा कैसे एक समाज को गायब कर सकती है। प्रसून जोशी के बगल में बैठे शेखर पाठक को राग पहाड़ी गुनगुनाते देखकर अफ़सोस होता है कि नानी जो झूमर गाया करती थीं, उसको रिकॉर्ड नहीं किया। तब समझ में आता है कि गीत की एक कॉपी का गुम हो जाना एक परिवार का निजी नुकसान ही नहीं होता, भाषा को भी उससे झटका लगता है।
गूगल के इस दौर में पर्यावरण की चिंताओं पर बहस के लिए मुद्दे खोजने के लिए इंटरनेट बहुत है। लेकिन जब एक मंच पर सुमन सहाय और शेखर पाठक के साथ एक पाकिस्तानी पर्यावरणविद् अहमद रफी आलम को बोलते सुनते हैं तब समझ में आता है कि नदियों, जंगलों, ज़मीन, आसमानों से जुड़ी हुई चिंताएं न सरहदों में बांधी जा सकती हैं न किसी समाजविशेष की जागीर होती हैं। साहित्य के मंच पर पर्यारवरण जैसा मुद्दा क्यों? इसलिए क्योंकि साहित्य रचना सिर्फ ख़ूबसूरत शब्दों में छंदों, कथाओं को बांधना नहीं होता, अपने दौर के पुख़्ता और सटीक दस्तावेज़ तैयार करना भी होता है।
अपने समय और समाज के दस्तावेज़ों के ज़रिए दुनिया भर में पहुंचनेवाले अंतरराष्ट्रीय लेखक 'द ग्लोबल नॉवेल' पर बात करते हुए भी कई-कई समाजों को बांधने के लिए अनुवाद की ज़रूरत पर ज़ोर देते हैं तब समझ में आता है कि ग्लोबल नॉवेल भी दरअसल अंग्रेज़ी का मोहताज नहीं। एक नॉवेल तभी ग्लोबल होता है, जब वो 'यूनिवर्सल' होता है - अपने देशकाल, वातावरण और पात्रों में किसी समाज विशेष की परछाई होते हुए भी अपने कथानक और भावों में पूरी तरह 'यूनिवर्सल।'
सरोकार कई हैं, चिंताएं कईं। विषय कई हैं, बोलनेवाले कई। पक्ष में कई, विपक्ष में कई। लेकिन बहस, विरोध, विवाद, प्रलाप - ये सब एक स्वस्थ समाज की निशानियां हैं। जब कई सारी विचारधाराएं कई सारी भाषाओं और कई सारे विचारों से होती हुई किसी एक मंच पर पहुंचती हो तो उम्मीद बंधाती है कि हर आवाज़ के लिए वक़्त देने वाला ये समाज विकसित होता - इवॉल्व होता समाज है। जो समाज किताबें पढ़ता है, सोचता है, बिना विरोध या नतीजे की चिंता किए अभिव्यक्त करता है, उस समाज को देखकर उम्मीद बंधती है। और ये उम्मीद टोलियां बना-बनाकर घूम रहे स्कूली बच्चों को देखकर और पुख़्ता हो जाती है जो न सिर्फ झोले भर-भरकर किताबें खरीद रहे हैं बल्कि उन किताबों को लिखनेवालों से मुश्किल सवाल भी पूछ रहे हैं। जयपुर साहित्योत्सव का कोई और उद्देश्य हो न हो, इस महाआयोजन की सार्थकता इन बच्चों को देखकर सिद्ध हो जाती है।
ज़रूरी नहीं कि हम हर बात से सहमत ही हों - वर्तिका नंदा की उन कविताओं से भी, जो उन्होंने सुनंदा पुष्कर को श्रद्धांजलि देते हुए आख़िरी दिन के एक सत्र में पढ़ा। लेकिन इन सहमतियों और असहमति के बीच से जो निकलता है, एक बीच का रास्ता है। इस बीच के रास्ते का नाम साहित्य है।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन की दुआओं के पूरा हो जाने की दुआ मांगने में मेरा भी एक स्वार्थ निहित है। "अब गुलाब गेहूं पर विजय प्राप्त करे! गेहूं पर गुलाब की विजय - चिर विजय!" और ये गुलाब सिर्फ सौंदर्यबोध का प्रतीक न हो। ये गुलाब सूक्ष्म भावनाओं का प्रतीक हो, संतुलन का प्रतीक हो। ये गुलाब आज़ाद अभिव्यक्ति का प्रतीक हो।
किसने कहा कि एक साहित्योत्सव समाज बदल देगा। लेकिन एक साहित्योत्सव अपने-अपने समाजों में बदलाव की कहानियां लिख रहे लोगों को ज़रूर जुटा देगा हमारे-आपके लिए!
(ये पोस्ट मूलतः 'जानकी पुल' पर प्रकाशित हुई)
1 टिप्पणी:
साहित्य के इस महाकुम्भ ने न जाने कितनों को प्रेरित किया होगा।
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