मैं सुबह-सुबह उठ गई हूं, बच्चों के जागने से बहुत पहले। कुछ लिखने का काम मिला है, और उसका बोझ टूटे-फूटे सपने में लगातार आ रही किसी बेतरतीब छवि की तरह मेरी नींद में भी खलल डालता रहता है। क्या कहूं कि ऐसे ही करती हूं मैं काम! हर सुबह एक लंबी टू-डू लिस्ट के साथ बैठती हूं। ऊपर से जितने कामों पर सही का निशान लगता जाता है, नीचे से वो लिस्ट उतनी ही लंबी होती चली जाती है। जैसे मेरी हथेली पर हर वक़्त रक्खी होती है वो छोटी-सी टैबलेट, जिसमें आग लगा दो तो नकली सांप बनकर फैल जाएगी खुलकर। मेरे कामों की लिस्ट वही टैबलेट है। डेडलाईन आग लगाती रहती है। डायरी में वो टैबलेट खुलकर बिखरता जाता है... खुलता जाता है कि अजगर की तरह।
मुझे इस बात का आभार मानना चाहिए कि जिस देश में बेरोज़गारी दर 3.8 प्रतिशत है, और जहां काम करने वाली आबादी का 94 प्रतिशत वर्कफोर्स अभी भी अनौपचारिक तौर पर यानी सिर्फ कहे भर जाने के लिए काम कर रहा है, वहां मेरे पास कई काम हैं। इनमें कई कामों को मुकम्मल नाम तक नहीं दिया जाता। अपनी मर्ज़ी से अपनी गति से फ्रीलांस तरीके से काम कर रहे लोगों की यही त्रासदी होती है कि उनके कामों में आधे से ज़्यादा अमूर्त होता है, intangible. हम जैसे लोग लगातार प्रोपोज़ल बना रहे होते हैं, लगातार नए विचारों, नए ideas पर काम कर रहे होते हैं, इस उम्मीद में कि कहीं एक दिन कभी कोई लॉटरी ही लग जाएगी, या मरते हुए काम का वॉल्युम देखकर ये सुकून होगा कि दिन ज़ाया नहीं गए, कुछ करते ही रहे हम।
फ्रीलांस काम करे रहे लोगों की एक और त्रासदी है - क्लायंट। ये जो 'क्लायंट' नाम का जंतु होता है न, उसका काम ही आपकी ज़िन्दगी बर्बाद करना, आपके सुख-चैन को नेस्तनाबूद कर देना होता है। क्या कहें, कि ये क्लायंट की कुर्सी ही ऐसी होती है। मुसीबत तो तब होती है कि जब दोनों ओर से ईगो नाम की बंदूक उठाए बैठे हों लोग। एक तरफ से काम करके देते जाओ, दूसरी तरफ से फीडबैक का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला जारी रहे। दोनों पार्टियां एक-दूसरे की जानी दुश्मन, लेकिन एक के बग़ैर दूसरे का गुज़ारा कैसे हो?
मुझे कई साल लग गए 'क्लायंट' को समझने में। मुझे कई साल ये भी समझने में लग गए कि किसी फीडबैक को अपने अंह पर लेकर अपनी निजी प्रतिभा पर सुना दिया गया आख़िरी फ़ैसला नहीं मानना चाहिए। फिर भी काम के दौरान कई बार ऐसा होता है कि कोई एक चीज़ दिमाग की वायरिंग का शॉर्ट सर्किट कर देने के लिए काफी होती है।
अलग-अलग किस्म के लोगों के साथ काम करते हुए मैं एक और चीज़ भी सीख रही हूं।
मुमकिन है कि जुनूनी लोग काम और निजी ज़िन्दगी के बीच की लकीर को इतनी धुंधली रखते हों कि दोनों के बीच कोई फ़र्क़ न होता है। कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है। मेरा काम मेरा वजूद का एक बड़ा हिस्सा है। मेरे बच्चे तक जानते हैं कि मां के लिए मां होना जितना ज़रूरी है, उससे थोड़ा सा ही कम ज़रूरी एक राइटर या कन्सलटेंट होना भी है। हमारे घर में हमेशा लिखने-पढ़ने की बात होती रहती है। हम एक-दूसरे को कहानियां सुना रहे होते हैं, hypothesis और imagination में बात कर रहे होते हैं। खेल-खेल में मम्मा उनकी कल्पनाओं से किरदार और हालात चुन रही होती है, और खेल-खेल में वो मम्मा के लंबे, complicated वाक्यों से हिज्जे और व्याकरण सीख रहे होते हैं।
हम अपने खेल को, एक-दूसरे को, एक-दूसरे के काम, एक-दूसरे के बेतुके और नामुमकिन दिखने वाले सपनों को बहुत संजीदगी से लेते हैं।
बावजूद इसके अपना होश-ओ-हवास बचाए रखने के लिए ये ज़रूरी होता है कि अपनी सीमाएं और ख़ुद पर दूसरों के 'feedback' से पड़ने वाले असर को ख़ुद ही तय किया जाए। खेल-खेल में काम करते रहना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी काम को खेल समझना भी होता है कई बार।
मैं पिछले कुछ महीनों में बहुत बदली हूं। अपने वक़्त के ख़त्म होते जाने का जिस गहरी समझ के साथ मुझपर असर पड़ा है, उसका असर निजी ज़िन्दगी पर भी पड़ा है। हर रोज़ यूं लगता है कि जैसे जिए जाना मशीनी तौर पर नहीं हो सकता, और उस दिल और दिमाग का भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिसे ऊपरवाले ने इंसानी शरीर को बख्शते हुए एक सीधी रेखा और उनकी जगह भी मुकर्रर कर दी। कोई तो वजह रही होगी कि दिमाग को सबसे ऊपर का खाना दिया गया, नहीं?
क्लायंट्स के साथ काम करते हुए, कई किस्म के लोगों से हर रोज़ संवाद करते हुए जो मैंने सीखा है वो यहां सहेजकर रख देना चाहती हूं। अव्वल तो, काम हमारे वजूद का बड़ा हिस्सा ज़रूर होता है, लेकिन काम इकलौता वजूद नहीं हो सकता। दूसरा, कोई भी दफ़्तर, कोई भी काम, कोई भी असाईनमेंट चुनौतीपूर्ण न हो तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। चुनौतियां आपको अपनी समझ के विस्तार का रास्ता बताती हैं। तीसरा, हम अपनी सीमाएं और अपनी प्राथमिकताएं ख़ुद तय करते हैं, और उन्हें बदलने का हुनर भी ख़ुद ही सीखते हैं। परिस्थितियों का रोना रोना आलस्य का सबसे मूर्त और स्पष्ट रूप है। कोई परिस्थिति आसान नहीं होती, कोई काम आसान नहीं होता। लेकिन कोई काम इतना भी मुश्किल नहीं होता। आपमें रुचि और जुनून बचा रहना चाहिए बस।
एक और चीज़ जो मैं ख़ुद को भी याद दिलाना चाहती हूं - बदलते हम नहीं हैं। सिर्फ हालात को, हमसे परे और हमारे भीतर की चीज़ों को देखने का नज़रिया बदलता है। ये नज़रिया हमारी ही तरह अपरिवर्ती हो जाए तो सबसे ज़्यादा नुकसान हम ख़ुद को पहुंचा रहे होते हैं। इसलिए, विस्तार में सुख है। बदलाव में सुख है। सीखते जाने और करते जाने में सुख है। क्लायंट के साथ रोते-रोते भी पार लग जाने में सुख है। एक-एक करके काम निपटाने जाने में सुख है।
क्या मेरा कोई क्लायंट मेरी ये पोस्ट पढ़ रहा है? फिर जाते-जाते अपने नाम का थैंक यू भी पढ़ते जाईए। :-)
2 टिप्पणियां:
स्वयं के मन से कार्य करने और दूसरे के मन से कार्य करने में बहुत अन्तर है। सुबह उठकर जो मन करे वह लिखा जाये, या कुछ भी न किया जाये, बस बैठकर बाहर निहारा जाये।
आपको व्यस्तता से निपटने के लिये शुभकामनायें।
हाय रे हम बेचारे फ्रीलांसर :). और क्लाइंट अंग्रेज हो तो यह समस्या मीठी छुरी सी हो जाती है :)
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