स्कूल रिक्शे से जाया करती थी। चौथी या पांचवीं में पढ़ती थी तब। न जाने कैसे कविताएं लिखने का शौक सवार हो गया। आड़ी-तिरछी, बेतुकी लेकिन तुकवाली कविताओं से स्कूल की कॉपियों के पिछले पन्ने भरने लगे। कुछ अपनी कविताएं होतीं, कुछ नंदन-चंपक में छपी कविताओं की नकल होती। लेकिन शौक़ था और ख़ूब था। घर में किसी को मेरा ये फ़ितूर समझ में नहीं आता था। या शायद समझ में आता भी हो तो इसका क्या किया जाए, ये समझ में नहीं आता होगा। बहरहाल, मैं आड़ा-तिरछा लिखती रही।
एक दिन रेडियो पर संडे की सुबह 'बाल सभा' के नाम का कार्यक्रम क्या सुन लिया, शौक़ को तो पंख ही लग गए। अगले ही दिन स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते में रिक्शा रुकवाया, सड़क पार करके रेडियो स्टेशन के गेट के पास पहुंच गई। चौकीदार से कहा, बाल सभा वालों से मिलना है। चौकीदार ने वापस लौटा दिया और मैं अगले दिन फिर लौटने का अनकहा वादा करके रिक्शे पर बैठकर घर लौट आई। तीन दिन में ही चौकीदार ने हथियार डाल दिए और मुझे बाल सभा की प्रोड्युसर से मिलने के लिए भीतर भेज दिया। अगले संडे मैं रेडियो पर थी, अपनी वही आड़ी-तिरछी कविताएं पढ़ती हुई और फिर वो सिलसिला चल पड़ा।
मुद्दा ये नहीं कि मैं कविताएं लिखती थी और रेडियो स्टेशन पर पढ़ती थी। (मैं तब भी बहुत ख़राब कविताएं लिखती थी और अब तो उससे भी ख़राब लिखती हूं) मुद्दा ये है कि पहले महीने मुझे साठ रुपए का एक चेक मिला था। उस चेक को घर लाते हुए जितनी ख़ुशी हुई थी, उतनी इतने सालों बाद उसके बारे में सोचकर अब भी होती है। उससे ज़्यादा ख़ुशी इस बात की हुई थी कि बाबा ने तुरंत मम्मी को कहा था कि मुझे बैंक लेकर जाएं और एक ज्वाइंट अकाउंट खुलावाएं मेरा और मम्मी का। अब तो ये हर महीने साठ रुपए लेकर आया करेगी, उनके चेहरे पर फख़्र था।
जिस दिन बाबा के चेहरे पर, मम्मी की आंखों की चमक को मैंने फ़ख्र का नाम दे दिया था, ठीक उसी दिन मेरी बर्बादी शुरू हो गई थी, जो आज तक रुकी नहीं।
कल पूरी शाम परेशान रही। मैं कहीं और थी, ध्यान कहीं और। दस साल की उम्र में कैसी बेचैनी थी ये? मैं क्या बदलना चाहती थी, और क्यों? मेरी उम्र के बाकी बच्चे तो कुछ और कर रहे थे मेरे आस-पास। मैं नॉर्मल क्यों नहीं थी? हर बार अपने हालात बदलते जाने की ये कैसी बेतुकी ज़िद थी? नियति स्वीकार क्यों नहीं कर लिया करती थी? सवाल क्यों पूछती थी इतना? क्या बदलना चाहती थी? किसे बदलना चाहती थी?
शांति से न बैठने की ज़िद दस साल के बाद भी कम नहीं हुई, बढ़ती चली गई। मैं हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ती थी, और दोनों भाई इंग्लिश मीडियम में। पता नहीं किससे स्पर्धा थी, लेकिन मैं सुबह नौ बजे से पांच बजे तक स्कूल में होने से पहले साढ़े सात से साढ़े आठ अंग्रेज़ी सीख रही होती थी - बक़ायदा क्लास में बैठकर। उस क्लास में सबसे छोटी थी - दस साल की। बाकी सारे कॉलेज में पढ़ रहे थे। स्कूल से लौटने के बाद होमवर्क और अपनी पढ़ाई करने के बाद मैं भाई की किताबें पढ़कर, लाइब्रेरी से किताबें लाकर अंग्रेज़ी पढ़ा रही होती ख़ुद को। मेरे लिए हर रोज़ एक चुनौती होता था। मैं हर रोज़ ख़ुद से बेहतर होना चाहती थी।
मेरी बर्बादी का ग्राफ ऊंचा चढ़ता रहा, और ऊंचा...
दसवीं के इम्तिहानों के बाद मेरे आस-पास के लोग छुट्टियां मना रहे थे और मैं सुबह साढ़े आठ से साढ़े बारह एक नर्सरी स्कूल में पढ़ा रही थी - ढाई सौ रुपए की तनख़्वाह पर। बारहवीं के बाद सब आराम फ़रमा रहे थे। मैं बेवकूफ़ कलकत्ते जाकर अमेरिकन लाइब्रेरी की खाक छान रही थी और पता करने की कोशिश कर रही थी कि सैट या टोफ़ल - बाहर की यूनिवर्सिटी में दाख़िले का रास्ता क्या होता है।
कॉलेज फर्स्ट ईयर के बाद की गर्मी छुट्टियों में आराम नहीं किया, रांची एक्सप्रेस में डेढ़ महीने डेस्क की नौकरी की। सेकेंड ईयर के बाद उसी इंस्टीट्यूट में कॉलेज के बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ायी, जहां से ख़ुद अंग्रेज़ी सीखी और पढ़ी थी। थर्ड ईयर के बाद रांची से कलकत्ता इसलिए चली गई क्योंकि मुझे हर हाल में आईआईएमसी और टिस का एंट्रेंस एक्ज़ाम क्लियर करना था। आईआईएमसी के बाद मुंबई चली गई, बाईस साल की उम्र में, क्योंकि तब तक फिल्में कैसे बनती हैं, ये जानने का भूत सवार हो गया था सिर पर।
मेरी बर्बादी उस समय चरम पर थी।
फिर कई सारे छल मिले, कई बार औंधे मुंह गिरी। हर बार पता नहीं कौन सी ज़िद आगे का रास्ता ख़ुद ही तलाश करने के लिए ले जाती रही, वो भी मेरे कान पकड़कर। मुझे हार में भी चैन नहीं था। काश कि तब हार मान ही ली होती। बर्बादियां यहां तक तो लेकर न आई होतीं मुझे!
कल बच्चों और पति के साथ बाज़ार में थी। सामने नारंगी रंग की साड़ी में एक महिला अपने पति और बच्चों के साथ जूते खरीद रही थी। उस महिला को देखकर बड़ी देर तक सोचती रही कि ये मेरी तरह जी से बर्बाद है या आबाद? कितने औरतें हैं इस दुनिया में जिन्होंने मेरी तरह बर्बादी का रास्ता अख़्तियार कर लिया और हमेशा ख़ुद से उलझती रहती हैं? कितनी औरतें हैं जिन्हें अपने हालात पर संतोष नहीं, और उन हालातों को बदलने की कोशिश में ख़ुद को घिसती चली जा रही हैं वो? पितृ-सत्तात्मक समाज ने कितनी तो आसान सीमा-रेखाएं खींच रखी हैं। उन्हें क्यों नहीं मान लेती ये बर्बाद महिलाएं? अपनी सीमाओं में रहतीं तो ज़्यादा ख़ुश न रहतीं? ये किस तरह का पागलपन है, जो चैन से रहने नहीं देता? मैं भी हाथ में कॉलिन लिए घर की सफ़ाई करते हुए ख़ुश क्यों नहीं रह सकती?
लेकिन नहीं। ज़िद है कि अपनी कविताएं रेडियो स्टेशन में ही सुनाएंगे। अपने हुनर का सदुपयोग करेंगे। हालात से कभी समझौता नहीं करेंगे और हालात की बेहतरी के लिए लड़ते रहेंगे, हाथ पर हाथ धरे बैठेंगे नहीं। बेचैन रहेंगे और बेचैन रखेंगे। बस यूं समझ लीजिए कि बर्बाद होंगे और होते रहेंगे।
मुझे बिगाड़ने और बर्बाद करने में मेरे घरवालों का भी ख़ूब हाथ रहा। उन्होंने तभी पंख कतर दिए होते तो यहां तक पहुंची न होती। यहां तक पहुंची न होती तो अपने साथ-साथ अपने आस-पास कई लोगों का जीना आसान कर दिया होता। लेकिन मुझ जैसे बर्बाद लोगों को आसानियों से ही उलझन है।
कल रात से सोच रही हूं कि बर्बाद न होती तो क्या होती? लम्हा-लम्हा संघर्ष करने का ये जुनून न होता तो कैसा होता? हर रोज़ ख़्वाबों को पाला-पोसा न होता और पहली बार में ही उनका गला घोंटकर आसानी से अपनी किस्मत स्वीकार कर लेती तो कितना अच्छा होता। इतनी मेहनत, इतना संघर्ष किसलिए है आख़िर? मैं किसके लिए लड़ रही हूं, और किससे? ये जुनून और दीवानगी क्या है कि कल कुछ और बेहतर हो। मैं क्या बदलना चाहती हूं? इसी एक ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलूंगी?
लेकिन बर्बादी जब शुरू ही हो गई तो संतोष कैसे हो? जिसका दस साल की उम्र में आग़ाज़ हुआ था, उसे मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाना भी तो होगा। इसलिए पूरी तरह से बर्बाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत। करती रहो। उलझती रहो ख़ुद से। जो ठहर गई तो नदी कैसी? याद रखना कि बहता हुआ पानी ही साफ़ और प्यास बुझाने लायक होता है। याद रखना कि एक पीढ़ी को आबाद करने के लिए एक पीढ़ी को पूरी तरह बर्बाद होना पड़ता है।
10 टिप्पणियां:
आबाद और बर्बाद, समय-सापेक्ष होता है :)
इसलिए पूरी तरह से बरबाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत।
इसलिए पूरी तरह से बर्बाद हो जाओ अनु सिंह। रुको मत। करती रहो। उलझती रहो ख़ुद से। जो ठहर गई तो नदी कैसी?
प्रणाम
एक समय जो रुझान खुद के लिए प्रेरणा बना, बाद में उसमें अगर दार्शनिक उलझन बढ़ गई है तो इसका निराकरण खुद में ही खोजा जाना चाहिए। आपकी दृष्टि को जो चुनौतियों, कारण, विभेदीकरण असहज कर रहे हैं वे मानवीय युग के प्रारम्भ से ही मौजूद हैं। अपने तय जीवन-समय में आपको अपने जीने लायक आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं उसमें गनीमत नहीं मना सकते आप जैसे लोग यह जानता हूँ, पर इस तरह पराभूत होकर स्वयं के आत्मस्वरूप को कष्ट देना, यह तो पितृसत्तात्मकता को अदृश्य रूप से खाद-पानी उपलब्ध ही करा रहा है।
बर्बाद न होती तो क्या होती? लम्हा-लम्हा संघर्ष करने का ये जुनून न होता तो कैसा होता? हर रोज़ ख़्वाबों को पाला-पोसा न होता और पहली बार में ही उनका गला घोंटकर आसानी से अपनी किस्मत स्वीकार कर लेती तो कितना अच्छा होता। इतनी मेहनत, इतना संघर्ष किसलिए है आख़िर? मैं किसके लिए लड़ रही हूं, और किससे? ये जुनून और दीवानगी क्या है कि कल कुछ और बेहतर हो। मैं क्या बदलना चाहती हूं? इसी एक ज़िन्दगी में क्या-क्या बदलूंगी?
बहती रहे निर्बाध यह धारा...!
अनंत शुभकामनाएं!
http://www.parikalpnaa.com/2013/12/blog-post_8.html
:)
कुछ कुछ अपनी कहानी सी लगती है !!
phoenix
जीवन की व्यस्तता में आनन्द ढूढ़ती आपकी कहानी।
सुंदर अभिव्यक्ति। जीवन एक संघर्ष है। जीत आपकी होगी।
एक टिप्पणी भेजें