ये कहने की बात नहीं है कि मैं अपने बाबा के बारे में सबसे ज़्यादा सोचती हूं। ये भी कहने की बात नहीं है कि मेरी ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों, सही और ग़लत, जीने के तरीकों, निस्बत निभाने और तोड़ने की रस्मों का आधार रहे हैं बाबा।
दो दिन से मैं बिस्तर का एक कोना और एक लैपटॉप पकड़े बैठी हूं। गले से आवाज़ नहीं निकल रही, जिसका फ़ायदा ये है कि बोलना - बच्चों से, या किसी और से - आपकी मजबूरी नहीं। आप किसी से फ़ोन पर बात नहीं कर सकते। आप किसी से न मिलने जा सकते हैं, न बुलाने आ सकते हैं। तबीयत ठीक न होने का बहाना है, इसलिए नहाना, खाना, कपड़े धोना, दूध और सब्ज़ियों की चिंता करना, बच्चों के पीटीएम के बारे में याद रखना, होमवर्क कराना - ये सारे काम यकायक बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी हो जाते हैं। जब ज़रूरी काम बेमानी हो जाएं तो ज़ाहिर है, ग़ैर-ज़रूरी कामों को तवज्जो दिया जाना चाहिए। इन ग़ैर-ज़रूरी कामों में ये सोचना कि मुझे कई महीनों से पार्क में बैठने की फ़ुर्सत नहीं मिली, भी एक है। इन्हीं ग़ैर-ज़रूरी कामों में बेवजह अपनी ज़िन्दगी के बारे में सोचना, चिंतन करना भी एक है।
मैं आजकल बहुत काम करने लगी हूं। बहुत सारे काम। ऐसे कि जैसे उन गुज़रे हुए सालों की भरपाई करनी है जब बच्चों को बड़ा करते हुए काम से ख़ुद को बहुत दूर रखा था। ऐसा लगता है जैसे सिर पर जुनून सवार है कोई। इतनी मेहनत का हासिल क्या है, ये सोच ही रही हूं कि अचानक बाबा का ख़्याल आता है। बाबा का, और मम्मी का क्योंकि मेरी ज़िन्दगी पर इन्हीं दो लोगों का सबसे गहरा असर रहा है।
मुझे एक वाकया याद आ रहा है। मेरे बाबा को गठिया की बीमारी थी, इतनी ही भयंकर कि सूजे हुए पांवों की तकलीफ़ चलना-फिरना तक मुश्किल कर दिया करती थी। उनकी सुबहें पांवों की सिंकाई से होती और उनका इतवार शहर के दूर-दराज़ कोनों में जाकर वैद्य-हकीमों से दवाईयां लाने में गुज़रता। लेकिन इतने दर्द के बावजूद मुझे कम से कम अपने होश में तो याद नहीं कि बाबा ने छुट्टी ली हो, या काम पर नहीं गए हों। उनमें ग़ज़ब की सहनशक्ति थी।
ख़ैर, हुआ यूं कि बाबा के बाएं पांव में फ्रैक्चर आ गया, बस ऐसे ही चलते-चलते। डॉक्टरों ने प्लास्टर लगा दिया और कहा कि गठिया की वजह से हड्डी कमज़ोर हो गई होगी, इसलिए फ्रैक्चर हो गया। फ्रैक्चर था जो छह हफ्ते उन्हें आराम करना चाहिए था। बाबा फिर भी काम पर, अपनी फैक्टरी जाते रहे। एक दिन तो हद ही हो गई। बाबा ठीक साढ़े सात बजे ऑफिस के लिए निकल जाया करते थे। आंधी-तूफान, जाड़ा-गर्मी, ईद-दीवाली - कोई भी बहाना साढ़े सात का पौने आठ नहीं कर सका। उस दिन बाबा का ड्राईवर वक़्त पर नहीं आया। प्लास्टर लगे हुए पांव से लंगड़ाते हुए बाबा गाड़ी तक पहुंचे, और उन्होंने वैसे ही गाड़ी निकाल ली। सब बदल सकता था, काम पर जाने का वक़्त नहीं बदल सकता था।
पूरी ज़िन्दगी हमने बाबा को ऐसे ही काम करते देखा है। वो धुनी थे, जुनूनी। जो ठान लेते थे, करते थे। बातें बहुत कम करते थे, काम बहुत ज़्यादा करते थे। बारह सौ लोगों के कारखाने में लगी असेम्बली लाइन्स की मशीनें नाम और मैन्युफैक्चरिंग डेट से याद दी उन्हें। ख़राब, बंद पड़ी मशीनें उन्हें नापसंद थीं। हर मशीन का सुचारु रुप से चलते रहना अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी मानते थे।
कमाल है कि वर्कॉहोलिक होते हुए भी हमें अपनी ज़िन्दगी के जो सबसे ख़ुशनुमा लम्हे मिले, वो बाबा से ही मिले। पिकनिक्स, रोड-ट्रिप्स, छुट्टियां, होली-दीवाली की शॉपिंग, पार्टियां, स्कूल फंक्शन्स में बाबा की उपस्थिति, बीमार होने पर उनके पेट का तकिया... मेरी सारी यादों में बाबा ही हैं। ये भी याद है कि मुझे पहली बार चम्मच पकड़ना भी उन्होंने ही सिखाया और vowel-consonant में अंतर भी। मुझे ये भी याद है कि फैक्ट्री जाने से पहले बाबा अपनी चाय में बिस्कुट डुबो-डुबोकर खिलाते थे और उसके बाद मुझे नहलाकर, स्कूल के लिए तैयार कर काम पर जाते थे। ये भी याद है कि फैक्ट्री से आने के बाद एक उन्हीं के पास मेरे दिन का लेखा-जोखा सुनने के लिए वक्त होता था। ये भी याद है कि मैंने सबसे ज़्यादा फिल्में बाबा के साथ देखीं, और सबसे ज़्यादा लोगों से उन्हीं की बदौलत मिली।
कैसे करते थे ये सब बाबा? लेकिन करते थे। हर साल दिवाली पर घर की सफाई के बाद पहले फैक्ट्री जाते थे, फिर वापस लौटकर पंजाब स्वीट हाउस (और बाद में स्वीटको) से मिठाई पैक कराकर शहर के दूसरे कोनों में रहने वाले अपने करीबी दोस्तों के घर जाते थे और फिर लौटकर हमारे साथ पटाखे भी खरीद आते थे, दिए भी लगा दिया करते थे। बाबा के जितने दोस्त, जानकार, चाहने वाले थे उनके लिए उन्हें वक़्त कैसे मिलता था, पता नहीं। लेकिन हर शादियों का न्यौता कर आते थे। किसी का आमंत्रण नज़रअंदाज़ नहीं करते थे कभी। और ये सब पंद्रह-सोलह घंटे काम करने के बाद! घर में सब्ज़ी है या नहीं, किसे डॉक्टर के पास जाना है और किसके जूते छोटे हो गए हैं, ये भी एक बाबा को ही पता रहता था। मेरी सहेलियों के नाम और उनके घरों के पते भी एक उन्हीं को मालूम थे।
अब ऐसे किसी सुपर-ह्युमन ने आपको पाल-पोस कर बड़ा किया हो, ऐसा कोई इंसान आपका वजूद हो, ऐसे किसी इंसान की पहचान आपकी रगों में बहता हो तो आप ख़ुद उतने ही जुनूनी, फ़ितूरी, पागल नहीं होंगे?
मैं अक्सर सोचती हूं कि इतनी मेहनत करने का क्या फ़ायदा होता है? आख़िर एक दिन सबकुछ छोड़कर चला तो जाता है इंसान। क्या रख जाता है पीछे? ये इतनी हाय-तौबा किसलिए है? इस हाय-तौबा का हासिल क्या है? मैं क्यों पागलों की तरह अपने सिर पर लादे रहती हूं एक हज़ार काम? रोज़ी-रोटी तो कतई वजह नहीं है।
फिर बाबा का ही जवाब याद आता है जो एक दिन छत पर धूप सेंकते हुए, तिलकुट का टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा था उन्होंने, "ये दुनिया वैसी की वैसी ही रहेगी चाहे हम काम करें या कामचोरी, चाहे हम अपनी ज़िन्दगियों को बदलें या जैसे थे, वैसे ही रहें। बदलता कुछ और थोड़े है? हम किसी और के लिए काम थोड़े न करते हैं? हम अपने लिए काम करते हैं। हम यहां इस नश्वर दुनिया में कुछ जोड़ना चाहते हैं, इसलिए काम करते हैं। मरना तो हर हाल में है। ज़रूरी ये है कि आपने ज़िन्दगी जी किस तरह। तुम तय कर लो कि तुम कैसे जीना चाहती हो।" मुश्किल ये है कि मैंने बड़ी छोटी उम्र में ही बाबा की तरह जीना तय कर लिया था अपने लिए।
काम तो एक बहाना है। ख़ुद को कारगर बनाए रखने का एक सबब भर है। अहम बात ये है कि आपने क्या-क्या बदला। अपने इर्द-गिर्द ही नहीं, अपने भीतर भी। आपने कौन-कौन सी चुनौतियां स्वीकार कीं। आपने हर रोज़ ख़ुद को ज़ाया होने से कैसे बचाया। आप ख़ुद के प्रति कितने ईमानदार रहे।
ये भी नहीं कि जीने का यही एक तरीका सही है और बाकी सारे ग़लत। मुश्किल ये है कि मैंने जीने का यही एक तरीका सीखा है। और ये भी समझ गई हूं कि हम जब कुछ भी नहीं कर रहे होते न, तब भी कई ज़रूरी काम कर रहे होते हैं। बाबा के सिखाए हुए ज़िन्दगी के फ़लसफ़ों में से अपने काम की चीज़ें निकाल कर रख लेना भी तो एक बेहद ज़रूरी काम है!
3 टिप्पणियां:
व्यस्त रहे जो, मस्त रहे वो।
निश्चय ही अनुकरणीय जीवन।
बहूत खूब, उनका जीवन वाकई प्रेरणात्मक है।
aapke baba ke baare me jaankar jindgi jeene ka ik naya nazariya mila............thanks for such a lovely inspirations
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