सोमवार, 5 अगस्त 2013

एक थी मनभर


अलवर शहर से कुछ साठेक किलोमीटर दूर एक सरकारी बालिका विद्यालय में मनभर देवी से मुलाक़ात होती है। मनभर मन भर हंसती हैं, मन भर हंसाती हैं। मन भर मन लायक बातें करती हैं - कुछ इस तरह कि उनके आस-पास गोल घेरे में बैठी लड़कियों का मन उनसे भरता ही नहीं। लड़कियों को उनसे और बातें करनी हैं, कुछ और कहानियां सुननी हैं। लड़कियों के पास सवालों का पिटारा है, मनभर किसी सवाल को नहीं टालतीं। 

स्कूल में सेल्फ-डिफेंस की क्लास लेने आईं मनभर देवी को देखकर लगता है कि किसी सशक्त महिला को ऐसा ही होना चाहिए। बल्कि हर महिला को ऐसा ही होना चाहिए। उनके चेहरे में अजीब-सी कशिश है। वे बातें कर रही हैं तो मैं ध्यान से उनकी बोली सुनकर ये समझने की कोशिश करती हूं कि दूध-सी गोरी और बेहद ख़ूबसूरत चेहरे वाली ये महिला कहां की होगी? कश्मीर की? या फिर पंजाब की? हालांकि मनभर पंजाबी नाम ज़्यादा लगता है, कश्मीरी कम। लेकिन उनमें कश्मीरी सौंदर्य ज़्यादा है, पंजाबी अल्हड़पन कम। 

हम बहुत देर तक बात नहीं करते। मैं उन्हें सिर्फ क्लास लेते हुए देखती हूं। उम्र का अंदाज़ लगाना मुश्किल है क्योंकि उनका छरहरा शरीर और मेहंदी रंगे बाल मेरे अंदाज़ के बीच का फ़ासला बन जाता है। ये महिला लड़कियों से हर तरह की बात करती हैं - सेक्स, यौन हिंसा, छेड़खानी, प्यार और समझौते, रिश्ते और नाते, शादी, बच्चे, घर में होने वाली मार-पीट और घर की चहारदीवारी के भीतर होनेवाला सेक्सुअल अब्युज़। मैं मनभर देवी की साफ़गोई और बात करने के तरीके की कायल होने लगी हूं। 
  
मनभर की कहानी जानने को बेचैन हूं। उम्र की समझदारी एक बात है, लेकिन ज़िन्दगी के अनुभव ही आपको इस क़दर 'वाइज़' (अंग्रेज़ी और उर्दू, दोनों) बना सकते हैं। 

मनभर देवी को क्लास के बाद खींचकर एक कोने में लेकर आई हूं। "अपने बारे में कुछ बताईए न", मेरी गुज़ारिश में बच्चों-सी ठुनक है लेकिन मैं उनसे इतनी लिबर्टी तो ले ही सकती हूं। 

"मेरे बारे में क्या सुनेंगी मैडम? मैं तो अंगूठा छाप। पढ़ना-लिखना भी नहीं जानती?"

"हैं, सच्ची?" मैं हैरान हूं। "आपको सुनकर और देखकर तो नहीं लगता।"

"वो तो सालों से घिस रही हूं न ख़ुद को, इसलिए ज़िन्दगी ने सब सिखा दिया। मेरी बेटी बहुत पढ़ी-लिखी है वैसे। एम ए किया है सोशल वर्क में। जयपुर में काम करती है। दामाद भी। दोनों बहुत ख़ुश हैं।"

"और आप? मैं उनसे पूछती हूं।"

"मेरे तो दिन ढल गए मैडम जी।"

"दिन के ढलने से पहले की कहानी सुनाईए न", मैं फिर एक बार कहती हूं। 


"हम जात के दर्ज़ी हैं - यहीं राजस्थान के (मेरा पहला अनुमान ग़लत साबित होता है)। मैं पांच बहनों के बीच की थी।"

"उम्र कितनी है आपकी?"

"साठ की होने वाली हूं।"

"रियली? आपको देखकर नहीं लगता।"

मनभर हंस देती हैं। अब देखती हूं कि उनके दाएं गाल पर गड्ढा बन जाता है हंसते हुए। 

"सास बहुत मानती होंगी", मैं गाल पर पड़ने वाले गड्ढे की ओर इशारा करती हूं। "मेरी सास ने मुझसे यही कहा था, और उनकी सास ने उनसे यही, एक अतिरिक्त जानकारी भी दे देती हूं उनको साथ में।"

"आप और आपकी सास खुशकिस्मत होंगे मैडम। मैं नहीं थी। छह साल की उम्र में शादी हो गई। दस साल बड़े लड़के से। मां-बाप के पास और बेटियां थीं, इसलिए गौना करने की जल्दी थी। शादी के बाद शरीर पर क्या-क्या गुज़री ये मत पूछो। बस इतना समझ लो कि कुछ समझ में भी नहीं आता था कि हो क्या रहा है। मैं छुपती तो सास बांह खींचकर पति के आगे कर देती। बारह साल की उम्र में पेट में बच्चा आ गया। मर भी गया पेट में ही। सुन पाएंगी अगर बताऊं तो कि क्या हुआ।"

"हूं? हां... बताईए न..." मैं हैरान हूं कि मनभर अपनी कहानी इतने मैटर-ऑफ-फैक्टली कैसे सुना सकती हैं! 

"पेट में बच्चा आया, ये तो तब पता चला जब पेट में ज़ोर से दर्द होने लगा। गांव की एक औरत आई। पेट में कान लगाया और बोला बच्चा तो मर गया। फिर दो-तीन औरतों ने मुझे लिटाकर मेरे पेट को दबा-दबाकर वो मरा हुआ बच्चा पेट से निकाल दिया। मैं एक हफ्ते तक खाट से नहीं उठ पाई।"

"अलवर की उमस में मेरे रोएं सिहरने लगे हैं। मैं अपनी दोनों हथेलियां ज़ोर से आपस में भींचकर खड़ी हो जाती हूं। मैंने ज़ख्‍म कुरेदा ही क्यों?"

"फिर पति पीछे और मैं भागती फिरूं। शादी का मतलब यही तो था, मेरी सास ने कहा मुझसे। अब मैं किससे क्या बोलती? अब सोच लो कि इतने साल पहले की बात है। तब मायके जाना भी पाप था। मैं तो कई साल अपने घरवालों से मिली ही नहीं थी। ख़ैर, फिर पेट में एक और बच्चा मर गया। चौदह साल की उम्र में पहला बेटा हुआ, फिर दो साल बाद दूसरा और फिर एक बेटी हुई। मैं नौ महीने पेट से होती और फिर बच्चा पैदा करने के बाद फिर से नौ महीने... पता नहीं कैसे जी रही थी। जी में आता था उस आदमी का गला घोंट दूं। लेकिन हिम्मत कभी नहीं हुई।"


"फिर आप ये..." मैं उनके नारीवादी रूप के बारे में पूछ रही हूं। 

"फिर एक दिन पति दो-चार मर्द ले आया। बोला, इनके साथ सो जा। तीन हजार रुपए मिलेंगे। उस ज़माने में तीन हज़ार बहुत होते थे। मैं तो बहुत रोई। बहुत हाथ-पैर जोड़े। मैं जितना रोती, वो मुझे उतना ही मारता। मैं किसी तरह पड़ोस में भागकर बच गई उस दिन। रात में कुंए में कूद गई लेकिन लोगों ने बचा लिया। ज़िन्दगी का रास्ता बदलना था, शायद इसलिए बचा लिया।"

"उस दिन मैंने कसम खा ली, ऐसे आदमी के पास दुबारा लौटने से रही। दो-एक दिन बाद मौका देखकर घर से भाग गई। सोचा, अपने लिए रोटी जुटा लूंगी तो बच्चों को ले जाऊंगी। वैसे सच कहूं तो बच्चों से बहुत लगाव था नहीं। बच्चे तो दुश्मन लगते। अब एक सोलह साल की लड़की पूरे दिन कुटती-पिटती हो और फिर बच्चे पैदा करती हो तो उसे बच्चों से क्या लगाव होगा?"

"मैंने झाडू-पोंछा किया। बर्तन मांजे। किसी तरह काम करके पेट पालती रही लेकिन उस आदमी के पास नहीं गई जो मुझे वैसे भी वेश्या बना देता। किस्मत से एक डॉक्टर मिल गईं, उन्होंने एक एनजीओ से जोड़ दिया मुझे। वहीं अपना नाम लिखना, जोड़-घटाव करना सीखा और वहीं काम करने लगी। कई साल काम किया। काम मालूम क्या था? अपने जैसी औरतों से जाकर मिलना... उनको हिम्मत देना... उनको पढ़ाना-लिखाना... बेटियों को मरने से बचाना... मैं जी गई। मुझे जीने का मकसद मिल गया। बच्चों को लेने के लिए लौटी तो आदमी ने बेटी को थमा दिया और भगा दिया घर से। खुद जैसी है, वैसी ही इसको बनाना। बोल के निकाल दिया घर से। मैंने भी कसम खाई - अपने जैसी तो बनाऊंगी लेकिन पढ़ाऊंगी। मेरे जैसी किस्मत ऊपरवाले ने दी भी हो उसको तो बदल दूंगी लड़कर। बेटी को स्कूल-कॉलेज भेजा। पैसा-पैसा जोड़कर पढ़ाया। उसकी नौकरी लगी और फिर उसने अपनी पसंद से शादी की - एक ब्राह्मण लड़के से। मैं शादी के ढकोसले नहीं मानती, लेकिन मुझे समाज के सामने साबित करना था कि एक अनपढ़ बेचारी औरत तय कर लो तो कुछ भी कर सकती है। हिम्मत है किसी की कि अब कोई बोल ले कुछ मुझसे? एक बात बोलूं? जयपुर में घर बनाया मैंने। बेटे-बहू वहीं आकर रहते हैं अब। आदमी भी। लेकिन उन सबको मैं किराएदार से ज्यादा कुछ नहीं समझती। अपना काम करती हूं। अपनी धुन में रहती हूं। मैं... मैं मदद करूंगी उनकी... उनसे मदद लेने से पहले ईश्वर उठा ले, यही बिनती करती हूं।"

मनभर की कहानी सुनते हुए मन भी भर गया है, आंखें भी। है किसी में इतनी हिम्मत?

9 टिप्‍पणियां:

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

मनभर मनजीत हो गई........उसके बचपन के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ और संघर्ष से प्राप्‍त सफलता जानने के बाद बेहद खुशी हुई।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

कितना कष्ट सहा है फिर भी,
उद्धत मन कुछ कर जाने को।

शत शुभकामनायें इस ऊर्जा को।

अनुपमा पाठक ने कहा…

बेबसी की रात बीत गयी... आज वो समर्थ हैं!
इस हिम्मत को सलाम!

ashish ने कहा…

मनभर की कहानी सुनते हुए मन भी भर गया है, आंखें भी

Pallavi saxena ने कहा…

इस जज़्बे को सलाम ...

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

मनभर जीत गई ,उसे जीतना ही था -अपने लिए भी औरों के लिए भी!

Ramakant Singh ने कहा…

हौसला है तो जित सुनिश्चित

Neeraj Neer ने कहा…

आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (12.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

Vidhan Chandra ने कहा…

सच्ची मैडम जी आँखे मेरी भी भर आई पढ़ कर .........