मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

दिल की थोड़ी-सी सुन लूं!

"ना जाने मेरे दिल को क्या हो गया..."

एक गा रहा है, दूसरा बजा रहा है,,, सामने रखी मेज़।

"ये दिल क्या होता है मम्मा?"

"दिल मतलब हार्ट बुद्धू। दिल यहां होता है, धक-धक करता है।"

"मम्मा, इसको बोलो मैं इससे नहीं पूछ रहा। मुंह बंद रखे अपना।"

"मम्मा इसको बोलो मेरा दिल कर रहा है कि मैं बोलूं... तो मैं बोलूंगी।"

"और मेरा दिल कर रहा है मैं इसके बाल खींच लूं।"

दो दिलों की इस जंग में धराशायी मम्मा हुई है। दिल और दिमाग जैसे जुड़वां बच्चों की तरह आद्या और आदित का झगड़ा भी नहीं सुलझता, लेकिन इस बहाने हमने भूले हुए दिल को लेकर भारी-भरकम चर्चाएं की हैं।

"मम्मा, दिल बोल सकता है?"

"बोलता है लेकिन हम सुनते नहीं," मैंने भारी दिल से ये स्वीकार किया है। मैं ही कहां सुन पाती हूं अपने दिल की? अक्ल आड़े आ जाती है। दिल तो बर्गलाता है। लीक से हटकर चलने को उकसाता है। ठोकर खाने के रास्तों पर ले जाता है। मेरी मानो तो ये दिल रात को बिस्तर के नीचे से चुपके से निकलकर थोड़ी देर के लिए जगमगाने वाला एक बेचारा जुगनू ही ठीक, जिसकी दिन की दुनियादारी में ज़रूरत नहीं पड़ती। यूं भी इन दिनों मैं अपने अक्ल के पंजों में हूं।

"मम्मा, शाह रुख़ खान के दिल को क्या हो गया था? हमारे भीतर रहनेवाला दिल खो कैसे जाता है?"

ब्रिलिएंट क्वेश्चन! बच्चों के पेचीदा सवालों के टेढ़े-मेढ़े जवाबों में उलझी हुई मैं अपनी अक्ल का दरवाज़ा खटखटाती हूं। अक्ल ने जवाब दे दिया है। कहती है, दिल का मामला है। दिल से ही पूछ लो! दिल की थोड़ी-सी सुनने के लिए बड़ी मेहनत करनी होती है इन दिनों, फिर भी दिल से पूछती हूं, बच्चों को क्या बताऊं कि दिल खो कैसे जाता है।

मैं तो बात-बात पर दिल को भुला दिया करती हूं! भूले हुए दिल की गुहार लगाने में शर्म आती है अब। मगर बच्चों ने भूले हुए दिल के बारे में पूछ कर उसकी ओर देखने को मजबूर किया है। पूछती हूं दिल से, दिल की करने देना और दिल की सुनना सिखाना तो आसान है, दिल को ये कैसे पता चले कि सही क्या है और गलत क्या?

बच्चों को ज़िन्दगी के ये अहम लाइफ़-स्किल्स सिखाने के बारे में सोचती हूं तो घबरा जाती हूं। यूं लगता है हम तीनों को किसी ऐसे कमरे में बंद कर दिया गया है जहां से बाहर निकलने का राज़ सिर्फ़ मुझे मालूम है और बाहर के रास्तों पर नीम अंधेरा पसरा हुआ है। मैं खुद को टटोलती हूं, अपने दिल से पूछती हूं कि ठीक तो है। शुक्र है कि इस सिहरती ठंड में भी हथेलियों में गर्माहट बाकी है अभी। चलो, दिल का ये मसला साथ मिलकर सुलझाते हैं।

 दरअसल बच्चों, तुम्हारी निश्छलता अभी दिल की आवाज़ों से दोशीज़ा है। लेकिन धीरे-धीरे समझ में आएगा कि इस पूरे जिस्म में एक दिल ही है जिसके ज़ख़्म दिखाई नहीं देते; जो सबसे ज़्यादा तकलीफ़ें बर्दाश्त करते हुए भी उसी शिद्दत से धड़कता रहता है और अपना काम बख़ूबी करता रहता है जिसे सिन्सियरिटी की उससे अपेक्षा होती है। दिल की ठीक-ठीक सुनो तो उसकी सरहदें भी वो खुद ही बताता है। एक दिल है जो दूसरों की तकलीफ़ों से तकलीफ़ज़दा होता है। एक दिल है जो अपने फ़ायदे बटोरते हुए दूसरे के अधिकारों का हनन करने पर कचोटता है। एक दिल है जिसके लिए 'स्व' के दायरे में 'सब' आते हैं। हमें फिर भी दिल पर यकीन करना नहीं सिखाया जाता क्योंकि दिल कमबख़्त दुनियादारी से अलहदा होता है। 

आद्या-आदित, जो पूरी ज़िन्दगी ना समझ सकी, अब तु्म्हें समझाते हुए समझने लगी हूं। आओ बताती हूं कि सही क्या है और गलत क्या, और दिल किसका साथ दे क्योंकि ज़िन्दगी अक्सर दोराहे-चौराहे-बहुराहे पर खड़ी कर दिया करती है हमें। दिल की आवाज़ सुनने की आदत बनी रही तो फ़ैसले लेने में आसानी होती है। दिल अक्सर नए रास्ते दिखाता है, उन सुनसान रास्तों पर दीया जलाता है जहां से कोई नहीं गुज़रता। दिल एहतियातों के खोल उतारकर नसों में नई रवानियां भरने की हिम्मत देता है। और ये भी याद रखना कि सही वक्त पर दिल को साधा नहीं तो दिल खूंखार भी हो जाता है। इसी दिल की आड़ में जो दिल में आए वो करने वाले दूसरों के लिए नफ़रतें बोते-उगाते-काटते हैं। इसी दिल की आड़ में गुनाहों का बाज़ार पनपता है। दिल को साधने का काम रूह करती है और रूह को साधने के लिए असीम साधना चाहिए।

समाज के बनाए हर क़ायदे-कानून को तुम्हारा दिल गवाही दे, ये भी ज़रूरी नहीं। लेकिन बेक़ायदा होकर हैवान हो जाने की छूट भी दिल के नाम पर नहीं दी जा सकती।

तो बच्चों, पूरी ज़िन्दगी एक टाईट रोपवॉक ही समझ लो। हम पेंडुलम की तरह सही और गलत, ग्राह्य और त्याज्य, मान्य और अमान्य के बीच में झूलते रहते हैं और अपनी-अपनी समझ से खुद का संतुलन भी तलाश लेते हैं। संतुलन का कोण ज़रूर बदलता रहता है लेकिन ज़िन्दगी के मूलभूत सिद्धांतों पर फिर भी कोई समझौता नहीं किया जा सकता। एक इंसान के दिल में दूसरों के लिए प्यार और संवेदना और अपने लिए विवेक और हौसला, बस यही चार चीज़ें बची रहनी चाहिए। बाकी, थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा देर-सबेर दौलत, शोहरत और ऐसी ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें सबको एक ना एक दिन मिल ही जाती हैं। दिल भी ताउम्र खोया और पाया के गीत गुनगुनाता हुआ फ़िट रहता है और एक दिन तमाम दुनियादारियों के बीच दिल दरवेश हो जाता है।

8 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत दिलवादी बनती हैं ? मगर दिमाग के आगे बोलती बंद! हुंह !! :-)

बेनामी ने कहा…

हम सब चाहते तो हैं कि दिल की सुनें पर ऐन वक्त पर दिमाग बीच में आ जाता है। और हम कभी डर तो कभी लालच के वशीभूत हो दिमाग की बात मान लेते हैं।
(मेरे ब्लॉग पोस्ट पर आपके कमेंट की प्रतीक्षा रहेगी।)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

दिल की बातें दिल वाले ही जाने, हमारा है कि अजगर की तरह पड़ा है।

Pallavi saxena ने कहा…

अरे आपने इतना कुछ गहन बता दिया बच्चों को तो यह भी तो बताना था न कि
"दिल तो दिल है, दिल का क्या है, इस पे आया उस पे आया, दिल की बाते, दिल ही जाने, दिल ही समझे दिल की माया....:)

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

यहाँ तो पार पाना मुश्किल है!

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

यहाँ तो पार पाना मुश्किल है!

Ramakant Singh ने कहा…

हम पेंडुलम की तरह सही और गलत, ग्राह्य और त्याज्य, मान्य और अमान्य के बीच में झूलते रहते हैं और अपनी-अपनी समझ से खुद का संतुलन भी तलाश लेते हैं। संतुलन का कोण ज़रूर बदलता रहता है लेकिन ज़िन्दगी के मूलभूत सिद्धांतों पर फिर भी कोई समझौता नहीं किया जा सकता।

BASIC FUNDA

अनूप शुक्ल ने कहा…

:)