सब खोद डालो, जो ख़्वाब रोपे थे
उखाड़ दो बिना जल के सूखती तुलसी
नोच लो गुलदाऊदी की बेआब क्यारी
टहनियों पर भी मत छोड़ो
चमेली कोई एक बिलखती-सी
कि अब के बेनूर रहेगा बाग़ उम्मीदों का
ये रुत इस बरस भी अकारथ जाएगी।
मैं सख़्त ज़मीन पर चलता हूं
उड़ते फिरना नहीं है फ़ितरत में
उम्र ने दी है जो हिस्से में समझ
उसके दम पर ही मैं ये कहता हूं
देखो, हवा का रुख़ देखो
बर्फ में दबकर कहां कुछ बचता है?
क्यों ज़ाया करोगी अपनी मेहनत
वही मिलता है, जो वो बख़्शता है
मत उलझो अपनी इन लकीरों से
नहीं काम आएगी ये अज़्म-ओ-हिम्मत
चमन को जो लिखी हो बर्बादी
तुम कहां उसे बचा पाओगी?
फिर भी जानता हूं, बड़ी ज़िद्दी हो
अगले साल फिर से चली आओगी
क्यारियां फिर से तुम बनाओगी
बीज भी कहीं से लाओगी
फिर सींचोगी आंसुओं से उनको
फूल तुम ज़रूर लगाओगी
फिर एक दिन शायद ऐसा होगा
पहाड़ पर फ़र्श-ए-गुल तुम बिछाओगी
साल-दर-साल की तुम्हारी दिल्लगी
एक दिन मेरी वाबस्तगी बन जाएगी।
8 टिप्पणियां:
a silent scream to avert a silent spring!
साल-दर-साल की तुम्हारी दिल्लगी
एक दिन मेरी वाबस्तगी बन जाएगी। :))
ये रुत इस बरस भी अकारथ जाएगी:)
कभी खिलेंगे फूल सकारण
फूल उगाने की निरंतर कोशिश - जीवन हार कैसे मान ले !
एक हूक सी उठती होगी जरूर उस बगिया के मालन के दिल में , पर प्रियतम का प्रेम उसे नई ऊर्जा देता होगा । बढ़िया नज़्म ।
totally love it, anu :)
पहाड़ पर फर्श -ए-गुल तुम बिछाओगी
साल दर साल की तुम्हारी ये दिल्लगी
एक दिन मेरी बाबस्तगी बन जाएगी।
सुंदर पंक्तियाँ ....
संघर्ष ही जीवन है ...
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