दुछत्ती तो होती नहीं हमारे घरों में इन दिनों। लॉफ्ट्स हुआ करते हैं, जिनकी सफ़ाई का मुहूर्त दो-एक साल में एक बार निकल आया करता है। ऐसे ही एक शुभ मुहूर्त में सफाई करने के क्रम में वो सूटकेस उतारा गया जिसे लेकर मैं पहली बार दिल्ली आई थी। एरिस्टोक्रैट का ये सूटकेस मेरा वो पक्का यार है जिसे भूल भी जाओ तो शिकायत नहीं करता, जिसे जितनी बार खटखटाओ उतनी बार मीठी-मीठी यादों की बेसुरी तान छेड़ता है। इस बेसुरी तान से अपिरष्कृत, बेरपवाह, बेसलीका लेकिन ईमानदार होने की खुशबू आती है। अपनी ही वो खुशूबू आती है जो डायरी में बंद सूखे फूलों की हो गई। इस बार सूटकेस से याद के कई रंग-बिरंगे टुकड़ों के साथ 2004 की डायरी निकली।
साल 2004 मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन साल था। उस साल मैंने जीभर कर जिया, टूटकर प्यार किया और प्यार लुटाया, खूब घुमक्कड़ी की और रिश्तों के सबसे उम्दा रूप देखे। 2004 वो साल था कि जिस साल ज़िन्दगी पर मेरा यकीन पुख़्ता हो गया था। उसी साल मैं मनीष से मिली थी। उसी साल मैंने ख़ूब प्यार से एनडीटीवी की नौकरी की, पैसे कमाए, बचाए और उड़ाए। खुद से प्यार किया और अपने आस-पास हर शख्स से प्यार किया। उस साल की डायरी में अपना अक्स देखकर खुद पर गुमान हो आया है कि जितना मिला है, वाकई खूब है।
यहां उसी साल अगस्त में की गई कश्मीर यात्रा के पन्ने बांट रही हूं। मेरी रूममेट, बल्कि फ्लैटमेट मेरी जिगरी दोस्त सबा थी, जो कश्मीर से है। उसी के साथ मैं पहली बार उसके घर गई थी - कश्मीर, और कई यकीन टूटे थे, कई और मज़बूत हुए थे। यहां डायरी का अनएडिटेड वर्ज़न है, और ये भी मुमकिन है कि पिछले आठ सालों में मेरी कई धारणाएं उम्र और सोच के लिहाज़ से बदल गई हों। फिर भी एक सच नहीं बदला - फ़िरदौस हमीन अस्तो।
15 अगस्त 2004
सुबह के चार बजे सोने जा रही हूं। उठूंगी कब और एयरपोर्ट पहुंचूंगी कब! देखो सबा को! कैसे चैन से सो रही हैं, जैसे जन्नत पहुंच गई हैं। मैडम घर जा रही हैं। अपनी जान हथेली पर लिए दोज़ख़ (हाय, ये क्या सोच रही हूं!!!) तो मैं जा रही हूं।
तो ये कश्मीर है!
16 अगस्त 2004
It is a different world altogether!!! ऐसा लग रहा है कि जैसे किसी दूसरे जहां में हूं। कल की भाग-दौड़, परेशानी, दफ़्तर, काम, थकान के चक्कर में ये फीलिंग सिंक इन ही नहीं कर पाई थी कि मैं वाकई कश्मीर जा रही हूं। आज एयरपोर्ट तक, बैग्स को चार बार आईडेन्टिफाई करने तक, प्लेन में बैठने तक, 'श्रीनगर में आपका स्वागत है' लिखा देखने तक अहसास नहीं हुआ कि एक सपना सच हो रहा है।
श्रीनगर की सड़कों पर ऐसा कुछ नहीं दिखा जो इतने सालों में टीवी पर देखती आ रही हूं। लाल चौक पर हुए धमाकों के वीओवीटी काटते वक्त दिखने वाले विज़ुअल्स जैसा कुछ भी नहीं। लेकिन सतह के नीचे कोई डिसॉर्डर ज़रूर है जो गलियों, सड़कों पर थोड़ी देर खड़े रहने से नज़र आने लगता है। किसी आम हिंदुस्तानी शहर के बनिस्बत सैनिक ज़्यादा हैं, हर कुछ मीटर की दूरी पर सीआरपीएफ के जवानों के झुंड, बीएसएफ की इक्का-दुक्का गाड़ियां, टूटे-फूटे बंकर, कैंप्स... फिर भी श्रीनगर सामान्य दिखता है। दिखना चाहता है।
घर बहुत ख़ूबसूरत हैं यहां के। दोनों ओर टीन की गिरती छतें, आयताकार खिड़कियां और खिड़कियों से आती मद्धिम रौशनी और थोड़ी-सी गर्माहट जो हर घर में फर्श पर बिछे कालीनों से टकराकर आती हुई बाहर तक छलक आती है। सबा का घर जिस कॉलोनी में है, वो शायद यहां की कोई पॉश कॉलोनी होगी।
सबा का घर। श्रीनगर में मेरा घर। :-) |
लॉन में खिले हुए रंग |
अंदर की ओर घुसते ही चप्पलों को रखने के लिए सीढ़ियों के नीचे शू रैक बनाया गया है। अंदर का दरवाज़ा सामने रसोई की ओर खुलता है, जिसके ठीक बगल में एक बेहद परिष्कृत ड्राईंग रूम है। पिस्ते रंग की कालीन पर चमकती हुई बादामी रंग की मेज़ अखरोट की लकड़ी की बनी है। कहीं कुछ भी आउट ऑफ प्लेस नहीं है - कोई रंग, कोई सामान, कोई फर्नीचर, कोई तस्वीर नहीं... सब तरतीब में, ऐसे जैसे हर चीज़ एक-दूसरे के लिए बने हों। ये और बात है कि ऐसी तरतीबी में मेरा दम घुटता है।
रसोई की दूसरी तरफ़ हमाम है, वो कमरा जो असली बैठक है। कश्मीर की ठंड में हमाम के बिना घरों में गुज़ारा नहीं हो सकता। सबा बताती है, इस कमरे में नीचे एक खोखली जगह है जहां लकड़ियां जलाकर रखी जाती हैं। उसी गर्मी से ये कमरा बर्फीले दिनों में भी गर्म रहता है। कश्मीर में बिजली ना के बराबर होती है, और ऐसे में रूम हीटरों का ख़्याल भी बेमानी है। हमाम से लगी हुई टंकी है - ख़ज़ान - गर्म पानी इसी तांबे की टंकी में जमा होता है। ये कमरा मेरे मन लायक है। फर्श पर बिछी ऊनी कालीन, कालीन पर इधर-उधर रखे हुए रंग-बिरंगे मसनद और यहां-वहां बिखरे ग्रेटर कश्मीर, कश्मीर टाईम्स और एक उर्दू अख़बार के पन्ने।
हमारे कमरे ऊपर की ओर हैं। ज़ीने पर आते ही फिर तरतीबी। सीढ़ियों पर रखे अखरोट की लड़की के छोटे-छोटे शोपीस, चिनार के पत्तों और कलम-गुलाब के डिज़ाईन वाले पेपरमैशे आईटम्स, दीवारों पर लगी कश्मीर की ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें... सब परफेक्ट। सबसे पहला कमरा गेस्ट रूम है। मेरा सामान यहां रख दिया गया है। कमरे में दो सिंगल फुतॉन हैं और फ्रेंच विंडो पर पड़ी चिनार की पत्तियों की कढ़ाईवाले पर्दे हटाने के बाद सामने लॉन की ओर खुलती हैं। पीछे की खिड़की से दूर-दूर तक पसरे धान के खेत नज़र आते हैं, और उनसे थोड़ी दूर हटकर कुछ पहाड़ियां।
मेरे कमरे की खिड़की का नज़ारा |
गेस्ट रूम मेज़नाईन फ्लोर पर है और वहां से निकलकर ऊपर की ओर तीन और कमरे हैं - पहला मास्टर बेडरूम और दो और कमरे - सबा और हफ्सा, दोनों बहनों के। सब सलीके से रखा हुआ है। कहीं कुछ अतिरिक्त नहीं, कुछ एक्स्ट्रा नहीं। अपनी रूममेट के क्लेलीनेस मेनियैक होने का राज़ अब समझ में आया है। शाम को मम्मी से फोन पर बात करते हुए मैंने हंसकर कहा है उनसे, "इस घर में इतनी सफाई है कि फर्श से अंगूर उठाकर खा सकते हैं आप!" मम्मी को शायद थोड़ी तसल्ली हुई है, लेकिन फिर भी खाना तो मुझे चीनी मिट्टी की उन्हीं प्लेटों में मिलेगा जिनमें नॉन-वेज सर्व होता है। मम्मी की इस बात का मैं कोई जवाब नहीं देना चाहती। मम्मी के लिए अंडा छू गया बर्तन तक 'करवाईन' होता है - अशुद्ध, निरामिष।
वैसे अब्बास, यहां का ख़ानसामा हैरान है कि मैं सिर्फ और सिर्फ वेजिटेरियन खाना खाऊंगी। "ऐसे कैसे? मेहमान को हम बिना गोश्त के खाना कैसे परोसेंगे? राजमा और हाक साग?"
"तो पनीर बना दीजिए ना अब्बास।" एक शाकाहारी के लिए उत्कृष्ट भोजन की यही पराकाष्ठा है।
खाना खाने के बाद हम श्रीनगर घूमने निकल गए हैं - तीन लड़कियां, एक लाल बत्ती, एक ड्राईवर और एक बॉडीगार्ड, और पीछे एक एस्कॉर्ट गाड़ी। हमीद बहनों की भुनभुनाहट जारी है... हम खुद भी तो अपनी गाड़ी लेकर जा सकते थे। ताम-झाम मतलब एटेन्शन। लेकिन उनकी चलती नहीं और सफेद गाड़ी निकल चलती है। हमें बीएसएनएल नंबर भी थमा दिया गया है। कश्मीर में निजी ऑपरेटरों की सर्विस नहीं है।
सड़क-गलियां-लाल चौक-बुलेवर्ड-डल का किनारा-चश्मे शाही-चश्मे-साहिबा और फिर परी महल। यहां-वहां दिखाई देने वाले बंकरों के बीच हम तीन लड़कियां हैं परी महल में, कभी इस सीढ़ी कभी उस सीढ़ी फुदकती हुई। फिर एक ऊंची जगह पर खड़ी होकर दोनों कश्मीरी लड़कियां मुझे डल, गोल्फ कोर्स, गर्वनर का घर वगैरह वगैरह दिखा रही हैं।
परी महल और परियों के मन के इर्द-गिर्द कंटीले तार |
निशात बाग़ और डल झील |
निशात बाग़ में कभी इस फव्वारे, कभी उस फव्वारे, कभी इस फूल और कभी उस फूल के सामने खड़े होकर कैमरे के लिए पोज़ करते-करते हम तीनों ने शिद्दत से शम्मी कपूर को याद किया है। मुसाफ़िर बदले, ज़रूरतें बदलीं, सदी बदली, लोग बदले, माहौल बदला लेकिन कुदरत ने अपना रूप नहीं बदला।
गोल्फ कोर्स और डल |
उस सावन की एक शाम |
10 टिप्पणियां:
waah kashmir hee nikalta hai muhn se
woww...behad sundar likha hai, hum saath saath hain is yaatra me
पढ़ते वक्त बहुत सी बाते दिमाग में कौंधी -मगर यह औपचारिक टिप्पणी ही कि कश्मीर की सैर पर ले चलने के लिए आभार -कभी गया नहीं अब तक!
i also travel kashmir in 2006 . purani yaad aur wo bhi ghumakkadi sone pe suhaga . waiting for your next pages . love the way you write. need some more photos
A beautiful description beautiful pictures hope sometime in future in visit kashmir.
हमारे उधार की डब्बी में बन्द है यह जगह।
भला हो Aristrocrat के सूटकेस का जो आपकी पुरानी यादों को हम तक ले आया।
पढ़कर ऐसा लगा जैसे नैसर्गिक कश्मीर की लाइव कमेंट्री हो।
अब शायद हालत 2004 से भी अधिक जुदा हों. फिलवक्त के लिए तो तल्खिया हमारी तरफ से भी.
खूब घुमाया कश्मीर। आगे की यात्रा का इंतजार है।
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