यहां इसकी गुंजाईश नहीं थी। नज़रअंदाज़ करके देख लिया। आपस में बातचीत करके भी देखा। आंखें तरेरकर देखने का नतीजा भी सिफ़र ही रहा। अबकी तो जाकर वो एक लड़की को भी ले आया था। दोनों की शक्लें ऐसी मिलती थीं कि उनके भाई-बहन होने पर यकीन ना करने की कोई वजह थी नहीं। या काली-कलूटी शक्लें एक-सी ही लगती हैं शायद। मेरे अंदर के पूर्वाग्रहग्रसित गेहुंए दंभ ने गेहुंअन सांप की तरह सिर उठाया तो उसे लंबे शीतस्वापन के लिए भेजने में ख़ासी मेहनत करनी पड़ी।
दस मिनट बाद भाई-बहन हमें वहीं पाकर फिर लौटे तो इस बार मुझे अपनी एयरकंडिशन्ड गाड़ी का शीशा नीचे करना ही पड़ा।
"क्या है?"
"तीन रुपया दे दीजिए। सात रुपया हो गया है। तीन और मिलेगा तो रोटी खा लेंगे," बहन ने कहा।
"अच्छा! पूरा हिसाब करके आई हो। तीन रुपया न दें तो?"
"और कहीं जाकर मांगना पड़ेगा। यहां तो कोई है भी नहीं आस-पास।"
"तो मांगना क्यों पड़ेगा," मैंने पूछ तो लिया, लेकिन अपने ही सवाल पर शर्म आ गई।
"यही करते हैं। भीख मांगते हैं।"
"किधर? इधर ही?"
"इधर भी। पीछे उधर की तरफ बत्ती पर भी।"
"और मां-बाप?"
मैंने दोनों से पूछा। दोनों का जवाब एक साथ आया, लेकिन अलग-अलग। "मां मर गई। बाप उधर रहता है।" और "बाप मर गया। मां मजदूरी करती है।"
"अब तय कर लो कि कहना क्या है। झूठ तो पकड़ा गया तुम्हारा। क्यों जी, मां-बाप में से कौन मरा है?"
दोनों ने एक-दूसरे को देखा और मेरा सवाल नज़रअंदाज़ कर दिया।
"तीन रुपया दे दो ना। हम चले जाएंगे।"
"चले तो तुम जाओगे ही। अपने साथ घर थोड़े ना ले जाऊंगी तुमको?"
"सच्ची में खाना खाने के लिए पैसे मांग रहे हो?"
"हां, ये देखो, सात रुपए हैं। तीन रुपए चाहिए," बड़ी बहन ने मेरे सामने हथेली खोल दी। इसकी हाथों में तो मेरे जैसी लकीरें थीं - कटी-फटी, गड्डमड्ड और किस्मत कितनी अलग!
"कहां मिलेगी रोटी यहां?"
"उधर पीछे..."
"उस दुकान में मिलेगी?" मैंने दूर एक ठेले की ओर इशारा किया।
"चाय मिलती है वहां..."
"आओ देखते हैं, लेकिन सच-सच बताना पड़ेगा कि मां-बाप कहां हैं?"
"मां दूसरे के साथ भाग गई। बाप दारू पीकर पड़ा रहता है। दादी सुबह भीख मांगने भेज देती है। अपने भी उधर इफको के पास भीख मांगती है। सड़क पर रहते हैं, उधर ही, दादी के साथ।"
"और कब से हो इधर गुड़गांव में?"
"एक महीना हुआ। राजस्थान से आए। चितौड़ से।"
"मीराबाई के देश से?"
दोनों मेरी शक्ल देखते रहे, और मैं उनकी। फिर ठेलेवाले से पूछा कि क्या मिलेगा खाने को। रोटी और दाल फ्राई के साथ दो चाय का ऑर्डर कर मैं वापस उनके पास आ गई।
"चलो अब मैं फोटो खीचूंगी तुम्हारी। खाना खिलाने की फ़ीस। दांत दिखाओ कि मंजन किया या नहीं सुबह-सुबह।"
दोनों झेंप गए, लेकिन दांत निपोड़ ही दिया।
"ये बाल तो बड़े अच्छे हैं तुम्हारे," मैंने लड़की की चोटी की ओर इशारा किया। बिना तेल के रूखे उलझे बालों में नकली बालों की चोटी अलग से नज़र आ रही थी।
"उधर एक आंटी ने लाकर दिया। कपड़े भी लाकर दिए। लेकिन घुटने तक के कपड़े पहनने पर दादी गुस्सा करेगी।"
"अच्छा चलो नाम तो बता दो अपना-अपना। मेरा नाम अनु है वैसे।"
"मैं मौरी। ये मेरी भाई सुलीन। बाप का नाम खेमराज। हम चितौड़ से तो हैं लेकिन मीराबाई को नहीं जानते।"
"मैं भी नहीं जानती। यूं ही पूछ लिया था।"
उनका खाना आ गया था और हमारे लंच का भी वक्त हो चला था। ऐसे कितने बच्चे हर रोज़ शहर में आते होंगे, कितने भीख मांगते होंगे, कितनों का शोषण होता होगा, उनका क्या हश्र होता होगा, बड़े होकर क्या करते होंगे, शिक्षा का अधिकार इनके लिए क्या मायने रखता है, इनकी ज़िन्दगी का होना-ना होना क्या... इतने सारे बेतुके सवालों का जवाब ढूंढने का ना वक्त है ना कोई हासिल है उसका। मौरी और सुलीन तो फिर भी भीख ही मांगेंगे। मौरी और सुलीन अपना काम करेंगे, मैं अपना।
सुलीन ने मंजन नहीं किया था शायद! |
4 टिप्पणियां:
hrdaysparshi
anu....traffic signal par dil kabhi saath nahi rakhti .. aankhe band karke guzar jaati hoon ...kaayar hoon pata hai par kyaa karoon
मीराबाई का देश..क्या हो गया..
ऐसा कुछ देखने के बाद और पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की ऐसा करने के लिए जितना मजबूर वो हैं उनसे कहीं ज्यादा मजबूर तो हम है जो चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते।
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