शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

क्यों हम कुछ नहीं कहते

बचपन में एक कहानी सुनी थी। सात भाईयों की एक नाज़ों पली बहन है, भाई समंदर पार पैसे कमाने बिदेस चले जाते हैं, बहन भाभियों के साथ रह जाती है। बहन से डाह करनेवाली भाभियां उसे एक व्यापारी के हाथ सौंप देती हैं। व्यापारी उसे ब्याह के नाम पर दूसरे शहर ले जाता है। उसकी और बीवियां हैं वहां, कई और शौक, कई और चिंताएं, कई और ख़्वाहिशें। हवेली में अकेली बहन अपने पीहर को याद करती हुई दीवार से सिर मारती है, बावरी होकर इस आंगन से उस आंगन भटकती है। उसके दुख पर तरस खाकर हवेली में सदियों से बसनेवाली एक डायन प्रकट होती है और पूछती है उसके दुख का सबब। घर-बार ले लो, मुझे खुला आकाश दे दो, लड़की कहती है। डायन उसे चिड़िया बना देती है, और कहती है कि तू खुले आकाश में तो होगी, लताओं-पत्तियों की झांझरी में भी उड़ती फिरेगी, लेकिन याद रखना कि तुझे गीत गाकर किसी से कुछ कहना नहीं है। जो तूने कुछ गाने के लिए कंठ खोला तो तुझे लौटकर यहीं आना होगा, इन्हीं चहारदीवारियों में।

पीहर के आंगन में फुदकते फिरने का मोह छोड़ नहीं सकी लड़की और आज भी गूंगी चिड़िया बनी फिरती है। मेरी नानी कहती थीं, उससे तो अच्छा होता कि हवेली में ही रह जाती। कह तो वो कुछ ना सकी, यहां भी नहीं, वहां भी नहीं। कम-से-कम इंसान तो बनी रहती। मैं नानी से बहस करती, चिड़िया बनने में कितना सुख है नानी। यहां-वहां फुदकती फिरो, ना कोई चिंता ना कोई दुख। नानी के सौम्य चेहरे पर स्मित मुस्कान फैल जाती। मेरी दलीलों में क्या दम था? मेरी भोली समझ का सिरा कहां इतना विकसित हुआ था कि समझ पाता, ना कह पाने का मतलब क्या है।

मां से पूरी उम्र यही शिकायत रही कि वो किसी से कुछ कहती ही नहीं थीं। अपनी तकलीफ़ों के बारे में नहीं, अपने ख़्वाबों, ख्वाहिशों, बिना नींद की खाली रातों के बारे में भी नहीं। हमारी कामयाबियों-नाकामियों-ज़्यादतियों के बारे में भी नहीं। नतीजा ये हुआ कि उनका कहना किसी आतिश-फिशां के शोले उगलने जैसा साबित हुआ। मैंने फिर भी उनसे सीख नहीं ली। मुझे फिर भी कहना नहीं आया।

घुट्टी में घोलकर पिलाया गया कि मत बोलो, ख़ामोश रहो। किसी ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो तुम्हारे दामन पर पहला दाग़ होगा। चेहरे पर उतर आई आंसुओं की लकीरों को पोंछते-पोंछते कहीं घिसा हुआ दामन फट भी जाए गलती से तो उसे रफू करने की ऐसा कला सीखो कि बाहर से दरार नज़र ना आए।  मत बोलो क्योंकि इसका हासिल कुछ नहीं होता। तुम्हारी आवाज़ नक्कारखाने की तूती से अधिक और क्या होगी? फिर शक्ति व्यर्थ जाएगी सो अलग।

तो चुपचाप अपने काम में लगी रहो, आंखों के बगल में घोड़ों-सी पट्टियां डाल लो और एक लीक पकड़कर पीटती रहो। ध्यान भटका तो खाई में जाओगी। ज़रूरत पड़े तो शुतुरमुर्ग बन जाओ या फिर सहानुभूतियां जुटाने के ज़रिए खोज लो। तुम ख़ामोश, बिचारी, टूटी-बिखरी लेकिन माहौल को बचाए रखने की कोशिश में जुटी हुई ही बेहद ख़ूबसूरत लगती हो। सवाल पूछो मत, जवाब मांगो मत, उंगलियां उठाओ मत। तुम जिस सभ्य, शालीन, संस्कारी समाज में पली-बढ़ी और अपने बच्चों को बड़ा करना चाहती हो वहां सवाल पूछे जाने को असभ्य करार दिया जाता है। आज़ादी की मांग कर दी तब तो कुफ्र हो गया। परस्तिश करो, ख़ुदा बनाओ उसे और अपने ख़ुदा की तमाम ज़्यादतियां झेलते रहो कि तुम्हारी महानता, तुम्हारा बडप्पन इसी में है।

ये भी याद रखना कि अपनी ख़ामियों का ख़ुलेआम प्रदर्शन जहां ख़ुदा के पौरुष का अहम हिस्सा होता है वहीं तुमने अपनी कमज़ोरियां सामने की तो हॉरमोनल डिसॉर्डर, पीएमएस और पर्सनैलिटी डिफेक्ट्स के हवाले से तुम्हें पागल क़रार देने में कोई देर नहीं लगाएगा। चुप रहो लड़की, चुप रहो और ख़ामोश होकर अपने काम में लगी रहो। देखा है कि तुम्हारी अलमारियां तुम्हारी बेकली बयां करने लगी हैं? आयरन टेबल पर रखे कपड़े तुम्हारे नाकारा होने पर शोर मचा रहे हैं चीख-चीखकर? अपनी ज़ुबां बंद रखो और सोच के टुकड़े-टुकड़े कर डिब्बों में बंद करके किचन के आलों पर रख आओ अभी के अभी। दिमाग का कीमा बना तो सीजनिंग के काम आएंगे ये ख़्याल।

सुना है कि कोई शायरा थीं, परवीन शाकिर। अपने लिखे हुए से इतना शोर मचाया कि ख़ुदा को बर्दाश्त ना हुआ और बयालीस साल की नाज़ुक उम्र में ऊपर लौट आने का फ़रमान सुना दिया गया। कम बोलती वो भी तो घर बचाती, अपनी ज़िन्दगी भी बचाए रखती शायद। कई लोगों की नाराज़गी का बोझ लिए दोज़ख़ गई होगी सो अलग।

सुनो तो क्या कहती है वो पागल शायरा...

नहीं, मेरा आँचल मैला है
और तेरी दस्तार के सारे पेच अभी तक तीखे हैं
किसी हवा ने उनको अबतक छूने की जुर्रत नहीं की है

तेरी उजली पेशानी पर
गए दिनों की कोई घड़ी
पछतावा बनके नहीं फूटी
और मेरे माथे की स्याही
तुझसे आँख मिलाकर बात नहीं कर सकती

अच्छे लड़के
मुझे न ऐसे देख
अपने सारे जुगनू सारे फूल
संभाल के रख ले

फटे हुए आँचल से फूल गिर जाते हैं
और जुगनू
पहला मौक़ा पाते ही उड़ जाते हैं
चाहे ओढ़नी से बाहर की धूप कितनी ही कड़ी हो!

ना, परवीन सी किस्मत नहीं चाहिये, इसलिये हम कुछ नहीं कहते!

5 टिप्‍पणियां:

rashmi ravija ने कहा…

किसी ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई तो तुम्हारे दामन पर पहला दाग़ होगा।

और इसी दाग का डर दिखा समाज ने उनका मुहँ बंद कर रखा है...पर और नहीं....अब और नहीं

Manish Kumar ने कहा…

वो सड़क दुर्घटना..और परवीन चली गईं फिर भी आपकी उस 'पागल' शायरा ने इतनी छोटी ज़िंदगी में वो सब मुकाम हासिल कि जिसे कई नामचीन शायर ज़िदगी भर ना पा सके..जाते जाते कह भी गयीं

मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला देंगे
लफ़्ज मेरे होने की गवाही देंगे.........

डॉ .अनुराग ने कहा…

यानी किसीके खिलाफ मत बोलो खास तौर से उस शौहर ,उस शख्स के बारे में तो बिलकुल नहीं जिसको घर के बाहर पूजा जाता हो ,जिसकी शोहरत में चार चाँद लगे हो जो खूबसूरत बाते कहते हो .
कितनी शानदार तरीके से बुनी गयी है ना ये तरकीबे .....स्पाइडरमैन के जाल से भी ज्यादा मजबूत !!

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सहना नियति न बने, कुछ कहने की आदत डाल लेनी चाहिये..

Arvind Mishra ने कहा…

.....और ये लोकाख्यानों के सहारे आधुनिक विडम्बनाओं की खैर खबर !