मंगलवार, 29 नवंबर 2011

दोनों जहां से खोए गए हम

सांझा-पराती, झूमर और राम-जानकी विवाह के गीतों के बीच छत के कोने पर बैठकर हम हर रोज़ अपनी दुकान खोलना नहीं भूलते। 'ऑन्ट्रॉप्रॉन्योर' होने का ये सबसे बड़ा नुकसान है। होम प्रो़डक्शन में छुट्टी भी किससे मांगी जाए? सो, हम नीचे जाकर पंगत बिठा आते हैं और फिर वापस आकर अपनी फिरंगी क्लायन्ट से कॉनकॉल पर झूठी-सच्ची अंग्रेज़ी भी बतिया आते हैं। 

भाभी नई बहू है, उसे गांववालों के सामने जाने की इजाज़त नहीं। तो क्या हुआ अगर वो आईआईटी ग्रैजुएट है? तो क्या हुआ अगर वो इंटरनैशनली अपनी कंपनी की सबसे काबिल कन्सलटेन्ट्स में से गिनी जाती है? तो क्या हुआ अगर वो काम के सिलसिले में दुनिया अकेली नाप आती है? है तो वो यहां की बहू ही। लिहाज़ा लाल लहरिया साड़ी में लिपटी बहू पलंग के एक कोने में सिमटी 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' के साथ वक्त काटती है और मैं शिकस्ता-ए-बहस से ख़फ़ा छत पर चहलकदमी करते हुए अपनी खिसियाहट कम करने की कोशिश करती हूं। ये दोनों जहां का संतुलन बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

छत पर शाम को उतर आई ठंड सुबह की धुंध में पसरने लगी है। पुल के पीछे से ठंडा सूरज झांकता है और मां शादी का काम-काज संभालते हुए भी पछुआ से बचने के लिए कान ढंकने की हिदायत देना नहीं भूलती। दादी को चापाकल से बाल्टी में ठंडा पानी भरकर सुबह-सुबह नहाने के लिए तैयार होते देखते हुए अपने लिए गर्म पानी मांगने में शर्म आती है। सो, अपने साथ-साथ बच्चों को भी शहादत के लिए तैयार कर देती हूं। उनके मनोरंजन के लिए ताली और कव्वाली है और हैं महेन्द्र कपूर 'ठंडे ठंडे पानी' के साथ। हाइजीन और कम्फर्ट ख़्याल के आख़िरी छोर हैं। गांव में बैक टू बेसिक्स।  

गांव-सीवान-पटना-सीवान-गांव-सीवान का सफ़र करते हुए शरीर जवाब दे जाता है और नीली ज़रीवाले आसमान तले बैठकर सुबह तक भाई की शादी देखने का शौक अगले दिन से हमारी आंखों की लाल डोरियों के रूप में नज़र आता है। शादी के आफ्टरइफेक्ट्स की पहली कैज़ुअल्टी आद्या है। हम सब बहुत पीछे नहीं। 

नई बहू को अपने घर लेकर आते-आते हम धराशायी हो चुके हैं। बीमारी भी कन्टेजियस है। नई बहू को भी नहीं छोड़ती। अगले दिन मरीज़ों को डॉक्टर के पास नहीं, डॉक्टर को मरीज़ों के पास लाना पड़ा है। एक-एक कर डॉक्टर साहब ने नौ लोगों का बुखार, बीपी और गला चेक किया है। थोक के भाव से एन्टीबायोटिक्स खरीद लाया गया है। सबसे पढ़ी-लिखी और काबिल बड़ी बहू को अपने साथ-साथ बाकी आठ लोगों को वक्त पर दवा देने की 
ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है।

रिसेप्शन के लिए नई बहू तैयार है। मैं भी हूं, करीब-करीब। अपने सौम्य चेहरे को सजाने के बाद नई बहू मुझपर भिड़ती है। मैंने हाथ खड़े कर दिए हैं। बड़ी बहू मुझे उस राजस्थानी पोशाक का वास्ता देती है जो कई महीने पहले भाई के रिसेप्शन के लिए ख़ास जयपुर से मंगवाई गई थी। जैसे-तैसे पोशाक लपेटकर मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने बिठा दी गई हूं। बड़ी बहू ने अपने गहने और टीका मुझे पहना दिया है, छोटी दुल्हन अपने लहंगे को संभालती हुई मेरा चेहरा दुरुस्त करने के लिए ब्रशनुमा औज़ार और काजल लेकर झुक गई है। 

पोशाक में लदी-फदी अपनी बीमार बेटी को शॉल में लपेटे मैं ठीक दस मिनट के लिए पार्टी में शरीक होती हूं। सबकी शक्लें अब स्लो मोशन में आंखों के सामने से गुज़र रही हैं। आंखों के लाल डोरे गहरे काले रंग में तब्दील होकर आस-पास हवा में तैरने लगे हैं। आद्या नींद में बिस्तर पर लिटाने के लिए ठुनक रही है। मैं वैसे ही स्लो मोशन में घर लौट आती हूं। आद्या हरे-पीले कंबल में है, मैं बिस्तर के कोने में। सामने आईने में शक्ल नज़र आ रही है। सबकुछ ऑलमोस्ट परफेक्ट है, जैसा सोचा था। लाइम ग्रीन और लेमन येलो कॉम्बिनेशन वाली पोशाक, जड़ाऊ हार और टीका, मैचिंग चूड़ियां और चप्पल। लेकिन फिलहाल मुझे मैचिंग कंबल ज़्यादा अपील कर रहा है। बिना किसी कोशिश के मैं उसी हाल में बेटी को गोद में चिपकाए कंबल में सिकुड़ गई हूं। 

बाहर नब्बे के दशक के सलमान, अक्षय, सैफ और राहुल रॉय की फिल्मों के गाने बज रहे हैं। कोई इन्हें सीडी बदलने को क्यों नहीं कहता? भाई ने दही-बैंगन बनवाया है ख़ास उड़िया स्टाईल। जाने गर्म जलेबी के साथ रबड़ी का स्वाद कैसा लगता होगा? मेरी मां की दोनों बहुएं बला की ख़ूबसूरत हैं। मैंने तो बड़ी मौसी को प्रणाम भी नहीं किया। पता नहीं क्या सोचती होंगी? बाबा होते तो रिसेप्शन कहां होता? रांची में कम-से-कम गीज़र तो था। भाई का रिसेप्शन दुबारा नहीं होगा। हम महीनों पहले से इस दिन का इंतज़ार कर रहे थे। हम शहरवाले हो गए हैं, गांव आते ही बीमार पड़ने लगे हैं। चापाकल, पीछेवाले आंगन में लौकी की बेल, ठंडा सूरज, पुल पर चलती गाड़ियां, मोबाइल पर फ्लैश करता मेसेज, ऑस्ट्रेलियन एक्सेंट में बात करती इंगा, वेबमेल, हाथों में रूमाल लेकर नाचता सैफ अली खान और दही बैंगन का स्वाद... नींद में सब गड्डमड्ड हो गए हैं...  

8 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

अवसम... शायद एक कम प्रेरणादायी शब्द है, इस पोस्ट के लिए.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गजब का लिखा है, वाह।

सतीश पंचम ने कहा…

मस्त!

rashmi ravija ने कहा…

लाल लहरिया साड़ी में लिपटी बहू पलंग के एक कोने में सिमटी 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' के साथ वक्त काटती है

क्या बात...

Arvind Mishra ने कहा…

तो यह है बाहरी चमक धमक की पार्श्व पटकथा -कहीं और जीवंत और घटनापूर्ण! जीवन शैली भले ही शहराती हो मगर वे फिर भी भाग्यशाली हैं जिनकी सभ्यता की गर्भ नालें ग्राम्य जीवन से जुडी रही हैं -उनका क्या होता होगा जिन्होंने कभी गाँव देखा ही नहीं और वहां व्याह दे गयीं ....मैंने इस चुभते सत्य को भी देखा है ...बिटिया रानी अब ठीक हो गयी होंगी .. टेक केयर !

P.N. Subramanian ने कहा…

बेहद सुन्दर लेखन. बधाईयाँ.

Thinking Cramps ने कहा…

Beautiful. I was with you, experiencing each twist as it unfolded.

Kailash Sharma ने कहा…

बेहद ख़ूबसूरत प्रस्तुति...