आज पार्क जल्दी आ गई हूं। दूर से ही जॉगिन्ग ट्रैक पर चक्कर लगाते कई सारे लोग नज़र आते हैं। पूरी कॉलोनी यहीं इकट्ठा हो गई है क्या वीकेंड की सुबह? फिर ध्यान आता है, मैं बूढों की बस्ती में रहती हूं। देश के किसी भी डिफेंस कॉलोनी (जलवायु विहार या आर्मी वेलफयर हाउसिंग कॉलोनी) में कुछ गज़ब की समानताएं मिलती हैं - सुबह-सुबह पार्कों में कसरत करते या टहलते बुज़ुर्ग लोग (रिटायर्ड डिफेंस अफ़सर), कोने की बेंचों पर गपियाती, प्राणायम करती महिलाओं की टोली (रिटायर्ड अफ़सरों की कभी ना रिटायर होनेवाली मेमसाहिबाएं) और सड़कों पर ग्रेट डेन से लेकर पग तक जैसी ब्रीडों के कुत्ते टहलाते अर्दलीनुमा नौकर।
बहरहाल, अंकल-आंटियों की ब्रिस्क वॉकिंग के धक्के खाते फिरूं, इससे अच्छा है, बेंच पर बैठकर इंतज़ार ही कर लूं। थोड़ी देर में लाफ्टर क्लब में ठहाके लगाने के लिए सभी इकट्ठा होंगे जो दरअसल सुबह के इस पूरे कार्यक्रम का ग्रैंड फिनाले होता है। फिर धीरे-धीरे टोलियों में बंटकर ये सारे लोग अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं और शायद पूरा दिन धूप ढलने के इंतज़ार में काटते हैं कि जब पार्क खुले, फिर मिलने-जुलने का बहाना ही मिले।
"जनरल बट्टा, हाऊ आर वी दिस मॉर्निंग?" बगलवाली बेंच पर काले बालों, सफेद तनी हुई मूंछों और हाथ में छड़ी वाले अंकल इतनी ज़ोर से आवाज़ लगाते हैं कि मैं भी जनरल बट्टा को ढूंढने लगती हूं। एक अत्यंत ऊष्म हैंडशेक के बाद दोनों उसी बेंच पर बैठ जाते हैं।
"सब ठीक तो है? मैं देर शाम कॉल कर रहा था आपको। यू डिडन्ट टेक द कॉल। कहीं बाहर गए होंगे शायद।"
"नहीं। जल्दी सो गया था। ब्रांडी हेल्प्स। इट पुट्स मी टू स्लीप।"
"फिर से ब्रांडी? ऑन द रॉक्स? कुछ और ले लेते। मे बी यू शुड ड्रॉप इन टुडे फॉर सम गुड स्कॉच।"
इव्सड्रॉपिंग की आदत नहीं मेरी, लेकिन अगर बातचीत का मुद्दा इतना दिलचस्प हो तो ना चाहते हुए भी कान धोखा दे जाते हैं!
"लेकिन ब्रांडी में क्या खराबी है?"
"कुछ नहीं। लेकिन ब्रांडी आपके लिए नहीं है।"
"डू यू मीन टू से ब्रांडी सिर्फ बच्चों के लिए है?" जनरल बट्टा की आवाज़ अब इतनी ऊंची हो गई है कि आस-पास वॉक कर रहे लोग भी घूमकर उनकी ओर देख लेते हैं।
"ओह नो नो," मूंछोंवाले अंकल अपनी झेंप मिटाने के लिए एक बनावटी ठहाका लगाते हैं। "आई ओनली मीन टू इन्वाईट यू फॉर ए ड्रिंक, दैट्स ऑल।"
बातचीत खत्म हो गई है और दोनों लॉन की ओर चले जाते हैं जहां अगले दस मिनट तक ठहाके लगाने के लिए मशक्कत की जाएगी। ये भी मुमकिन है कि कई सारे बुज़ुर्गों के लिए ये दिन की पहली और आख़िरी हंसी हो। ये भी मुमकिन है कि जनरल बट्टा के लिए बेंच पर हुई बातचीत दिन की पहली और आखिरी हो। उसी लाफ्टर क्लब के सर्कल में मुझे ग्रे जैकेट और काले मफलर में अपने पड़ोसी कर्नल राजगढ़िया दिखते हैं। पिछली छह सर्दियों से मैं इन्हें इसी जैकेट और इसी मफलर में देखती आ रही हूं। ठंड बढ़ेगी तो काला मंकी कैप चढ़ जाएगा सिर पर। बाकी सुबह-शाम कर्नल राजगढ़िया यहीं मिलेंगे, पार्क में ही। नहीं जानती उनका घर कहां है, लेकिन ये सुना है कि अकेले रहते हैं और सर्वेन्ट क्वार्टरों में थोक के भाव से पल रहे बच्चों से अक्सर अपने यहां आकर रहने का अनुरोध करते हैं। "ही लुक्स लाइक ए पीडोफाइल टू मी," एक पड़ोसन ने पार्क में जब ऐसा कहा तो मैं सिहर गई थी। मैंने अपने बच्चों को कभी उनके पास जाने से नहीं रोका, सिर्फ एक बार गुज़ारिश की थी कि उन्हें टॉफी और चिप्स ना बांटा करें। एक तो आदत बिगड़ेगी, दूसरा बांटना हो तो उन्हें दिया जाए जो इतना-सा भी खरीद नहीं सकते।
राजगढ़िया अंकल को देखकर मुझे पीडोफाइल वाली बात याद आ गई है। क्या ये मुमकिन नहीं कि नितांत अकेले रहनेवाला एक बुज़ुर्ग रात में अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित होता हो? जो किसी दिन सांसों ने उनकी बीवी की तरह बिना किसी अल्टीमेटम के उन्हें धोखा दिया तो? या अपने बच्चों की तरह जता-जताकर साथ छोड़ा तो? अकेले मरने का ख़्याल भी कितना ख़ौफनाक होता है? अस्सी के पार कोई किसी बच्चे के शोषण के बारे में क्या सोचेगा? उसके अपने डर इतने घने होंगे कि ईश्वरनुमा अस्तित्व से कोई दुश्मनी लेने की हिम्मत भी क्या बचती होगी? ये हमारी अपनी असुरक्षा होती होगी कि अपनी सोच में हम एक लाचार बुज़ुर्ग को भी नहीं बख़्शते। 'इट इज़ बेटर टू भी सेफ, ऑफ कोर्स, बट इट्स गुड टू बी सेन्सेटिव टू,' मुझे अपना जवाब याद आया है।
याद आया है कि मेरे मम्मी-पापा और मेरे सास-ससुर अपने-अपने घरों में अकेले ही रहते हैं, बिना बच्चों को। हम छुट्टियों में मेहमान होते हैं, और कभी अपनी गृहस्थियों में उनके मेज़बान। हमारी ज़िम्मेदारी का ये चरम है।
लाफ्टर क्लब के ठहाके बंद हो जाने के बाद मैंने राजगढ़िया अंकल के साथ टहलते हुए वापस आना तय किया है। तबतक अपनी डॉक्टर और क़रीबी दोस्त को एसएमएस करने लगी हूं, "भूल मत जाना कि ओल्ड एज होम में हम अपने कमरे एक-दूसरे के बगल में ही बुक करवाएंगे।"
7 टिप्पणियां:
पहली और अंतिम हंसी ....वह भी कितनी खोखली!
जगमगाती स्मृतियों से छूट कर खिला हुआ सुबह का ये पार्क एक सुन्दर फीचर है. हम जब खुद के करीब होते हैं तो ऐसे ही आवाज़ों का पीछा करते हुए शक्लें खोजने लगते हैं.
कुदरत के कायदे बड़े कठिन है. चीज़ें जब खुद को बुन रही होती हैं, जीवन जब साँस लेने लगता है, हम मोह से भर जाते हैं. जबकि इस आरोहण में सीढियां तन्हाई की ओर ही जाती है. किन्तु अगर मैं इतनी उम्र जी पाया तो यकीनन राजगढिया अंकल की तरह नितांत अकेला ही जीना चाहूँगा. एक ऐसे अजनबी की तरह जिसके पास उसके सम्बन्धी और बच्चे कभी कभी वक्त बिताने के लिए आया करें.
इस तरह का जीवन दूर से बड़ा कठिन दिखाई देता है लेकिन जब पीड़ा को कोई देखने वाला और महसूस करने वाला न हों तो हम उसके असर को भी कम पाते हैं. घुटने पर चोट खाने के दिनों में जब माँ और पापा देख नहीं रहे होते थे तो सब संभल जाता था. उम्रदराज जीवन के आखिरी पड़ाव पर भी ये एकांत संभव है कि दुनिया में बिखरे अपने मोह को समेटने में मदद करता होगा.
खैर आपने बहुत सुन्दर लिखा है. बधाई.
आपको पढना हमेशा एक गहनता में डूब जाना होता है ...मगर दिक्कत यह होती है कि आपकी पोस्ट खुद इतना स्वयंपूर्ण होती है .सागर होती है कि प्रतिक्रियाओं का स्कोप नहीं देती ..हाँ अनुभूति को शिद्दत के साथ समों लेने को ही होती है ...बहरहाल एक उम्र के बाद की असुरक्षा को आपने अपनी पट कथात्मक शैली में कितना जीवंत रूप से वर्णित किया ...वाकई आपका जवाब नहीं ! काश मैं निर्माता होता तो आपकी हर पोस्ट पर फिल्म बनाने को अनुबंधित कर लेता ...!
सागर होती है= समग्र होती है
आज की ज़िंदगी का सटीक चित्र दिखा रही है यह पोस्ट ... मर्मस्पर्शी
जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में घुस गयी जटिलतायें बड़ी स्पष्ट हो जाती हैं आपके आलेख में।
hmmmm...since you insisted, i didn't had any way around and thank god you insisted to read it.
wonderfull !!
but certainly like to meet this Gen Batra one day who takes brandy on the rocks...
well, who takes brandy on the rocks afterall???? crazy old man !
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