रविवार, 30 अक्टूबर 2011

राजमंदिर में रा-वन और रोना

जयपुर आए और राजमंदिर में पिक्चर ना देखी तो क्या खाक जयपुर आए? सोलह साल पहले मामाजी ने ऐसा ही कुछ कहा था। तब ना देख सके तो किस्मत ने एक और मौका दिया। अपने चूजों के साथ हम इस आज़ादी के साथ कभी जयपुर ना घूम पाएंगे। फिलहाल इनकी मर्ज़ी और हमारी इच्छाएं कहीं-ना-कहीं ओवरलैप होती हैं। इस अतिच्छादन और अति सुंदर अवसर का आनंद उठाने के लिए हमें आज रा-वन ने सहारा दिया है। बच्चे शाह रुख अंकल को देख लेंगे और तीन बच्चों की दो मांएं राजमंदिर में पिक्चर देखकर इहलोक संवार लेंगी।

समस्या बस इतनी सी है कि हमने सुबह दस बजे फिल्म देखना तय किया है। बच्चे अंगड़ाई लेते हुए उठे ही हैं, हमारे चेहरों का बासीपन धुला नहीं अभी और एक दिन में हम अल्बर्ट हॉल जाकर कबूतर भी उड़ा लेना चाहते हैं और चोखीधाणी जाकर ऊंट की सवारी भी कर लेना चाहते हैं। अभी चुनौतियां कहां खत्म हुई हैं!  रात के रात दिल्ली वापस लौट भी जाना है। बाकी दिन में कुछ समय बचा रह गया तो उनमें से तीन घंटे बच्चों को तीन वक्त खाना खिलाने के लिए भी निकाल दिया जाए।

लेकिन हम किसी से कम नहीं। इस बार जयपुर आना खाक में ना मिल जाए, इसके लिए राह के हर रोड़े हटाने को तैयार हैं। बुद्धा सर्किट पर दौड़ रही रेसिंग कारों की स्पीड से हम बच्चों को तैयार करते हैं, उनके हलक के नीचे कचौड़ी-जलेबी का नाश्ता ठेल दिया जाता है, बचा हुआ तेल और फैट मांओं के लव हैंडल पर जमा हो जाने के लिए चला जाता है और बच्चों को लादकर ऑटो में डाल दिया जाता है। मेरी सहेली को न्यूज़ चैनल की नौ साल की नौकरी से बना रुतबा याद आता है और टिकट के इंतज़ाम की कोशिश शुरू हो जाती है। दो-चार फोन कॉल, झुंड के झुंड कबूतर उड़ाने और अल्बर्ट हॉल के बाहर घोड़े पर बैठकर दो चक्कर लगाने के बीच 12 बजे के शो के लिए टिकटों का इंतज़ाम हो जाता है और हम गिरते-पड़ते राजमंदिर पहुंच जाते हैं।

एक आई-कार्ड के दम पर तीन चूजों के साथ दो मांएं अब पिक्चर हॉल के भीतर हैं। दोपहर की रौशनी की आदी हो चुकी आंखों को लॉबी का आकार और लाइटिंग दोनों एक बार को आंखें मसलने पर मजबूर कर देता है। लॉबी की सीलिंग पर बनी पत्तियां निहारे या अपने बच्चों को अंदर मौजूद भीड़ से बचाएं? किसी तरह उनके लिए बित्ताभर जगह तलाश कर खड़ा कर दिया जाता है और अब वक्त हो चला है कुरकुरे, चिप्स, कोक, फैंटा जैसी ज़िद से जूझने का। आदित खांसते हुए रोता है और रोते-रोते खांसने लगता है। भीड़ है या फैंटा की ज़िंद, लेकिन अब मेरा सब्र चूकने लगा है। हम पॉपकॉर्न और कॉफी पर झगड़ा निपटा लेते हैं। इस बीच मैं आनेवाले फोन कॉलों से बेतरह परेशान हो चुकी हूं। ध्यान कई जगह है, और मन कहीं ना लगा पाने की तो ख़ैर बीमारी है मुझे।

अचानक हॉल का दरवाज़ा खुलता है और हम बिना किसी मेहनत के, बिना कदम उठाए भीतर ठेल दिए जाते हैं।  अभी हॉल के भीतर की साज-सज्जा देखने का मौका भी नहीं मिला, ना बच्चों को उनकी सीट पर बिठाया जा सका है कि फिल्म शुरू हो जाती है। 70 एमएम पर्दे का फ्रिल ऊपर क्या जाता है, पूरा हॉल तालियों और सीटियों से गूंजने लगता है। बच्चों ने ना ऐसा स्क्रीन देखा है ना सीटियों तालियों वाला ये माहौल। आद्या गोल-गोल आंखें करके मेरी ओर देखती है और पूछती है, 'यहां शोर मचाने से कोई मना क्यों नहीं करता?' मैं उससे भी बड़ी और गोल आंखें तरेरती हूं, 'चुपचाप बैठ जाओ।'

स्क्रीन के भीतर स्क्रीन, आभासी दुनिया के भीतर एक और आभासी दुनिया के साथ फिल्म शुरू हो जाती है। लगता है कोई वीडियो गेम खेलने बैठ गए हैं हम सब। कैमियो में आई प्रियंका, संजय दत्त और शाहरुख के बीच के सीन तक आते-आते मैं हॉल से बाहर भाग जाने को तैयार हूं। मौका भी मिल जाता है। अचानक कुछ लिजलिजा-सा पैरों पर गिरता है तो तंद्रा टूटती है। फिल्म में प्रतीक की भी, और मेरी भी। होश आने तक ठंडी कॉफी मुझपर आ गिरी है, बचा हुआ पॉपकॉर्न सामनेवालों की सीट पर बिखरा है, पॉपकॉर्न और कॉफी का पैकेट संभालने के क्रम में आदित नीचे जा गिरा है और फास्ट फॉरवर्ड मोशन में मैं आदित के दाएं गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर चुकी हूं। यानि साइ-फाई फिल्म देखते-देखते ढेर सारी कॉमेडी और ड्रामा का ओवरडोज़ भी मिल रहा है आस-पास के लोगों को।

मुझे हॉल से बाहर जाने का बहाना मिल गया है और आदित को करीब-करीब घसीटते हुए मैं वॉश रूम में हूं। हरे चश्मे के पीछे से उसकी आंखें पूछ रही हैं जैसे, 'ऐसी गलती तो ना की थी कि आपने ये सज़ा दी।' इस निःशब्द सवाल के जवाब में बाएं गाल पर एक और चपत लगती है। शुक्र है कि हम राजमंदिर के वॉशरूम में हैं। अव्वल तो फिल्म चालू है तो कोई आएगा नहीं यहां। फिर वॉशरूम के बाहर लगे काउच और आदमकद शीशे हमें दो कोने दे रहे हैं जिनमें एक ओर मुंह घुमाकर सिसकियां लेते आदित का चेहरा मम्मा को दिखता है और मम्मा के आंसू आदित को नज़र आते हैं। ठीक ढाई मिनट में हम एक-दूसरे की बांहों में हैं और मैं उसे सॉरी कहकर गोद में उठा लेती हूं। हॉल में वापस जाने को हूं कि आदित कहता है, 'गोद से उतार दो मम्मा। आपकी पीठ में दर्द होगा।' मैं फिर रो पड़ी हूं।

फिल्म में शेखर (शाहरुख) के मरने के बाद सोनिया (करीना) किसी तरह का इमोशन नहीं जगा पाती, ना संगीत ऐसा है कि रुलाए। लेकिन मैं छुप-छुपकर आंसू पोंछने में लगी हूं। ये भी देख लेती हूं घूमकर कि कोई देख तो नहीं रहा। बीच में कई बार उठकर बाहर आई हूं, कभी आनेवाले ज़रूरी फोन लेने के बहाने, कभी अपराधबोध कम करने के लिए और आंसू गिराने।

जो टुकड़ों-टुकड़ों में फिल्म देखी, उसमें स्टंट्स हैं, स्पेशल इफेक्ट्स हैं, हैरतअंगेज़ सेट्स हैं, और रा.वन और जी.वन के बीच की बेहद प्रेडिक्टेबल और बोरियत से भरी लड़ाई है। क्लाइमेक्स के नाम पर रा.वन के साथ-साथ जी.वन का भी मिट्टी में मिल जाना है। प्रतीक अपनी दुनिया में लौट आता है, लेकिन जी.वन के हृदय को रिवाईव करने के इरादे के साथ। जी.वन लौट आता है और शाहरुख की नीली कॉन्टैक्ट लेंस वाली आंखें स्क्रीन को भेदती हुई हमें देखती हैं। मैं फिर रो पड़ी हूं। इस बार वजह ऐसी है कि ना पूछो तो अच्छा...

4 टिप्‍पणियां:

विवेक रस्तोगी ने कहा…

जब पहली बार बच्चे ऐसे माहौल में जाते हैं तो कुछ नये सवाल स्वाभाविक होते हैं, और बच्चों से प्यार में मार और प्यार तो चलता ही रहता है। खैर राजमन्दिर में हमने भी खाकी देखी थी, उम्मीद है कि वो रा वन से तो अच्छी ही होगी।

मनोज कुमार ने कहा…

एक सांस में पढ़ा जाने वाला संस्मरण।

क्या फ़िल्म भी उसी तरह देखी जा सकेगी?

एक बेहद साधारण पाठक ने कहा…

विवेक जी की कही बातों से सहमत हूँ
_____________
इस लेख को पढ़ कर ऐसा लगा की सब कुछ आँखों के सामने घट रहा है
हमारे यहाँ भावना प्रधान [ तकनीक से दूर ]ही फ़िल्में देखने योग्य बन पाती है
______
आभार ब्लोगालय का भी जहां से मैं आपके ब्लॉग पर पहुँच पाया

Arvind Mishra ने कहा…

यह पोस्ट खुद में एक बेहद उत्कृष्ट पट कथा है ...सब कुछ तो है यहाँ ..और वह भी बिलकुल सहज और यथार्थ ...
मुझे आपसे विज्ञान कथाओं और उनके भारतीय परिदृश्य और समझ पर अकादमिक चर्चा करनी है ......कब और कैसे मैं नहीं जानता मगर ऐसा अतीन्द्रिय बोध है कि यह होना ही है बशर्ते आप भी इस विधा के प्रति तनिक सहिष्णुता दिखाएँ ....