गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011

प्रायश्चित

मुझे वड़नेरा से ट्रेन में चढ़ना था। अहमदाबाद जाने के लिए यही ट्रेन ठीक थी – पुरी अहमदाबाद एक्सप्रेस। सुबह सात बजे तक पहुंच ही जाऊंगा, दिनभर काम करके शाम की राजधानी लेकर दिल्ली पहुंच जाना मुमकिन हो सकेगा। मैं एक डॉक्युमेंट्री फिल्म की शूटिंग के लिए अमरावती आया था। साथ में कैमरा – डीएसआर 450, हम जैसे कैमरामैनों के लिए वरदान। ज्यादा भारी भी नहीं, और शूट क्वालिटी डीजी बीटा जैसी। मेरे साथ मेरा असिस्टेंट था, विजय।

वड़नेरा पर ट्रेन दो ही मिनट रुकती है, इसलिए विजय को मॉनिटर और ट्राईपॉड की ज़िम्मेदारी सौंप मैं दस मिनट पहले ही बोगी के इंतज़ार में खड़ा हो गया। विजय बैठना चाहता था, लेकिन यहां कैमरामैन यानि बॉस मैं था। पीठ पर बैगपैक, कंधे पर लटकता कैमरा और दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट। बगल में स्थानीय अखबार भी दबा लिए थे मैंने। यानि हाथ भी खाली नहीं, दिमाग पर तो ख़ैर बोझ लिए चलते रहने की पुरानी आदत है मेरी।

लेकिन विजय पूरी तरह सफ़र का आनंद उठाने के मूड में था। ट्रेन आने में अभी देर है सर। चाय पिएं क्या?” बिना मेरे जवाब का इंतज़ार किए वो सामान मेरे बगल में रख चाय की स्टॉल के पास चला गया। जाने क्यों मेरा मन कहीं बैठने को नहीं कर रहा था। एक तो लोहे की कुर्सियां दूर थीं और ये जगह बिल्कुल सही थी मेरे लिए। बोगी यहीं आनी थी और फिर यहां से प्लेटफॉर्म पर लगा टीवी स्क्रीन नज़र आ रहा था जिसमें चित्रहार टाईप के गाने आ रहे थे – पहले संजीव कुमार-शबाना आज़मी का एक गाना और अब मॉनिटर पर ज़ीनत अमान और अमिताभ बच्चन लिपटे खड़े थे। गाने के बोल मुझे यहां तक सुनाई नहीं दे रहे थे, लेकिन स्क्रीन पर चलते गानों को देखकर आदतन दिमाग में भी एक के बाद एक गाने गूंज रहे थे। यहां से हिलने का मतलब था सामान को फिर से रखने और उठाने की मशक्कत, और टीवी पर चल रहे थोड़े-से मनोरंजन से हाथ धो बैठना।

विजय चाय ले आया था, और चाय के साथ कुछ प्याज़ के पकौड़े भी। अगर प्लेटफॉर्म की ओर आते हुए मैंने स्टॉल पर सजे पकौड़ों पर मक्खियां भिनभिनाते नहीं देखा होता तो शायद पकौड़ों से भरा दोना विजय के हाथ से ले लिया होता। लेकिन फिलहाल मैंने अपने हाथ के बिस्कुट और पानी की बोतल बैग में घुसाकर सिर्फ चाय उसके हाथ से ले ली।

ट्रेन के लिए अनाउसमेंट हो चुका था। एसी टू के डिब्बे में यहां से चढ़नेवाले हम दो ही यात्री थे। वैसे भी इस भीषण गर्मी में भला कौन सफ़र करता होगा?  ट्रेन आई, एसी टू के पहले कंपार्टमेंट में पहली सीट – 1 नंबर। विजय को 38 नंबर सीट अलॉट हुई थी। लंबी दूरी की ट्रेनों पर किसी छोटे-से स्टेशन पर चढ़ने के कई नुकसान हैं – पहला, आपको सीटें मनपसंद मिल ही नहीं सकतीं, दूसरा – अपनी-अपनी सीटों पर पसरे दूर से आ रहे सहयात्रियों और उनके भारी-भरकम बक्सों के बीच अपना सामान घुसाना नामुमिकन और तीसरा, गंदे टॉयलेट। तीसरे नुकसान का ख्याल आते ही दिमाग भन्नाया। यहां तो नीचे की दोनों सीटों पर लोग यूं भी पहले से कब्ज़ा जमाए थे।

सफेद चादर के पीछे से एक 70-75 साल का चेहरा निकला। झुर्रियों के बीच से बिना दांतोंवाले अंकल मुस्कुराए, ऊपर तो नहीं जा सकूंगा। आप सीट बदल लेंगे क्या?” दांत ना होने की वजह से उनकी बात उनके बोलने से कम, उनके हाथ के इशारों से ज्यादा समझ में आई। दूसरी तरफ नीचे वाली सीट पर लेटी महिला ने ना किताब से सिर उठाना ज़रूरी समझा, ना सीट के नीचे बिखरी अपनी चप्पलों, झोलों, न्यूज़पेपर के टुकड़ों और खाने की प्लेट के बीच से मेरे लिए जगह बनाने की ज़ेहमत उठाना।

अभी तक मैं कैमरे को कंधे पर लिए-लिए ही खड़ा था, बिल्कुल उसी मुद्रा में जैसे प्लेटफॉर्म से ट्रेन पर सवार हुआ था - पीठ पर बस्ता, कंधे पर लटकता कैमरा, दोनों हाथों में पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट। सीट तो मैं बदल लूंगा लेकिन आप इन मोहतरमा को मेरे लिए जगह बनाने को क्यों नहीं कहते?” मैंने झल्लाते हुए कहा।

हम साथ नहीं हैं, किताब के पीछे से ठंडी-सी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन अभी भी उन्होंने उठकर सामान समेटने की कोई कोशिश नहीं। अब मेरे तेवर में पूरी गरमी आ चुकी थी। मैंने अपने पैरों से ही उनकी चप्पलें और जूठी प्लेट को ज़ोर से मारकर डिब्बे के गलियारे में कर दिया। मैडम का पढ़ना अब भी बंद ना हुआ, ना ही मेरी ठोकर की उन्होंने कोई परवाह की। कंबल के नीचे से पैरों में एक हल्की-सी हरकत हुई बस। लेकिन आंखें किताब पर ही थी। मैं भी किताब का नाम देख चुका था अबतक – प्रेमाश्रम।

अब मैंने चिढ़कर सीट के नीचे से सामान खींचना शुरू किया। लेकिन खींचता भी कैसे? सामान लोहे की कड़ियों से बंधे थे।

आप अपना सामान समेटेंगी या मैं ट्रेन से बाहर कर दूं इनको?” भद्र महिला ने अभी भी उठना उचित ना समझा।

ऐसे कैसे बाहर कर देंगे आप? दूसरी सीट के नीचे इतनी जगह पड़ी है, वो नहीं दिखती?“

नहीं दिखती। सिर्फ बदतमीज़ी दिखती है। शाम के साढ़े पांच बज रहे हैं। ये कोई वक्त है लेटे रहने का? आपसे इतना भी ना हुआ कि पैर समेटकर साथवाले मुसाफिर के लिए जगह बना दें? और अंकल आप, हां, हैलो, अंकल... मैं आपसे बात कर रहा हूं। बेशक नीचेवाली सीट ले लीजिए। लेकिन अगले तीन घंटे के लिए मुझे बैठने की जगह तो दीजिए। बुजुर्ग सज्जन हड़बड़ा के उठ गए।  

मैंने पानी की बोतलें और बिस्कुट के पैकेट सीट पर इतनी ज़ोर से फेंका कि पैकेट के भीतर से ही बिस्कुट के टूटने की आवाज़ भी सुनाई दी। करीब-करीब इसी गुस्से में मैं सीट पर पसरी महिला को डिब्बे के बाहर फेंक देना चाहता था। लेकिन मेरी झल्लाहट का उनपर कोई असर नहीं हुआ और वो वैसे ही लेटे-लेटे किताब पढ़ती रहीं। मैंने भी अपना चेहरा अख़बार के पीछे छुपा लिया, लेकिन मेरे दिमाग की बड़बड़ाहट कम ना हुई।

जाने क्या समझते हैं ऐसे लोग अपनेआप को? एक सीट रिज़र्व करते हैं और पूरी ट्रेन को अपने बाप की जागीर समझ लेते हैं। सिविक सेन्स तो है ही नहीं। जहां खाया वहीं फेंक दिया। यहां भी इनके लिए नौकर आए चप्पलें और सामान समेटने। पढेंगे प्रेमाश्रम और समझेंगे खुद को भारी इन्टेलेक्चुअल। प्रेमचंद को ही पढ़ना है तो गोदान पढ़ो, गबन पढ़ो, रंगभूमि, कर्मभूमि पढ़ो। उनकी कहानियां पढ़ो। लेकिन पढ़ने चले हैं प्रेमाश्रम। कुछ और मिला ही ना होगा स्टेशन के बुक स्टॉल पर। मिला होगा लेकिन समझ में ही ना आया होगा। प्रेमचंद का नाम देखकर महारानी जी ने किताब उठा ली होगी, बस। मन-ही मेरा भुनभुनाना जारी रहा।

थेपला खाओगे?” बिना दांतों वाले अंकल ने अचानक पूछा और मैंने हड़बड़ाते हुए ना चाहते हुए भी उनके खाने के डिब्बे से एक टुकड़ा निकाल लिया। मेरा थेपला उठाना ही मेरे लिए भारी पड़ गया। अंकल तो जैसे मौके की ताक में बैठे थे। छूटते ही उन्होंने बातों का पिटारा खोल दिया।

मेरा नाम जेपी घोघारी है, जयप्रकाश घोघारी। मैं यवतमाल का हूं और अहमदाबाद जा रहा हूं, बेटे और बहू के पास। मैं गुजराती हूं लेकिन हमलोग तकरीबन सौ सालों से यवतमाल में ही रह रहे हैं। आप कहां के हैं बेटे?”

मैं ओडिशा का हूं,” मेरा जवाब संक्षिप्त था। ज्यादा बोलने का मतलब था उनसे बातचीत को बढ़ावा देना, जो मैं बिल्कुल नहीं चाहता था।

ओडिशा के? कहीं आप दूसरी ओर की ट्रेन में तो नहीं बैठ गए? ये ट्रेन पुरी से अहमदाबाद जा रही है, अहमदाबाद से पुरी नहीं।

जानता हूं, मैंने खीझते हुए कहा, मैं अहमदाबाद ही जा रहा हूं।

अच्छा अच्छा। यही तो ख़ासियत है हमारे देश की। हम वाशिंदे कहीं के होते हैं, बसते कहीं जाकर हैं। अमरीकियों की तरह नहीं होते जहां ईस्ट कोस्ट के लोगों ने वेस्ट कोस्ट देखा भी नहीं होगा। अब मुझे ही देख लीजिए। मैं गुजरात का। पला-बढ़ा महाराष्ट्र में। पूरी ज़िन्दगी नौकरी की दिल्ली में और अब रिटायरमेंट के बाद नागपुर में रह रहा हूं, अपने बड़े बेटे के पास। अभी छोटे बेटे के पास जा रहा हूं, अहमदाबाद।

मैंने करीब-करीब टालनेवाले लहज़े में सिर हिलाकर कहा, अच्छा।

लेकिन घोघारी साहब का घों-घों करते हुए बोलना कम नहीं हुआ। मैं स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों के परिवार से हूं। हमारे जैसा गुजराती परिवार ना देखा होगा आपने। महाराष्ट्र में रखकर हमने मराठी संस्कृति को अपनाने में कोई कोताही नहीं बरती। आप गोपाल कृष्ण गोखले को जानते हैं?”

जी, जानता हूं। इतिहास में पढ़ा है उनके बारे में, मैं अबतक नहीं समझ पाया था कि मैं क्यों उनकी बक-बक ना सिर्फ सुन रहा था बल्कि उन्हें बोलने के मौके भी दे रहा था। मुझे अपने बैग में रखी किताबें याद आ रही थीं, कितना कुछ था पढ़ने के लिए – विलियम डैलरिम्पिल, मार्केज़ और एक नाजीरियन लेखिका जिनका नाम याद नहीं आ रहा था अभी।

पढ़ा होगा। ज़रूर पढ़ा होगा। महान हस्ती थे गोखले। मेरे दादाजी के बहुत करीबी दोस्त। जानते हो मेरे दादाजी यवतमाल मिडल स्कूल के प्रिंसिपल थे। जब 1915 में गोखले मरे तो उन्होंने अपने स्कूल में एक शोक-सभा आयोजित की। फिर क्या था, अंग्रेज़ों ने उन्हें नौकरी से निकालकर जेल में डाल दिया।

हम्म। अचानक मुझे उसे नाइजीरियन लेखिका का नाम याद आ गया – अदीची, चिदामामन्दा गोज़ी अदिची। मैंने अपने बैग की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि घोघारी अंकल ने मुझे बीच में ही रोक दिया।

अरे बैठो ना बेटा। जानते हो, कहते हैं कि गोखले जी स्ट्रेस से मरे थे, तनाव से। बड़ी कम उम्र में ही मौत हो गई थी उनकी, 49 साल भी कोई उम्र होती है मरने की?”

उस ज़माने में, आज से सौ साल पहले भी लोग स्ट्रेस से मरते थे, नहीं?” मेरी आवाज़ में व्यंग्य था।

स्ट्रेस कैसे ना होता? देश गुलाम था। अपने आस-पास, परिवार-समाज-देश पर आप आख़िर कितना अत्याचार देख सकते हैं? आप ज़रा भी संवेदनशील होंगे तो आपको परेशानी तो होगी ही, तनाव तो होगा ही, सामने लेटी हुई महिला एक सांस में ही बोल गई। इस अप्रत्याशित जवाब का कोई जवाब मैं ना दे पाया।

घोघारी अंकल ने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। कैसे उनके पिता स्कूल के दिनों में ही आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े थे, कैसे दादाजी के घर की कुर्की की अफ़वाह सुनते ही दादी ने आठ बच्चों के पूरे परिवार को अपने पड़ोसी के तबेले में छुपा दिया था, कैसे उनका बचपन आज़ादी की कविताएं लिखते-सुनते बीता और कैसे एक आज़ाद भारत के साठ सालों को देखने का सुख उन्हें भाव-विभोर कर देता है...

मैं अब भी निश्चेष्ट श्रोता ही बना रहा, बीच-बीच में हां-हूं से ज्यादा मेरी भागीदारी नहीं थी। लेकिन वो महिला बहुत देर तक लेटे-लेटे ही घोघारी जी से घुल-मिलकर बातें करती रही, जैसे मुद्दतों की दोस्ती थी उनकी।

ट्रेन दस बजे के आस-पास भुसावल पहुंची। मैंने अभी तक कुछ खाया नहीं था, इसलिए यहीं प्लेटफॉर्म पर उतरकर कुछ खाने के इरादे से उतरने लगा कि मुझे विजय की याद आई। इस गहन बातचीत को सुनते रहने के क्रम में मैं उसे तो भूल ही गया था। मैं उठने लगा कि उस महिला ने मुझसे उड़िया में कहा, ट्रेन रू ओलिहबे कि? मो पाईं पाणिर बोटल आणिबे कि? (नीचे उतरेंगे क्या? मेरे लिए पानी की एक बोतल ले आएंगे?”)

आपको कैसे मालूम चला कि मैं उड़िया बोलता हूं?” मैंने हैरान होकर पूछा।

आप ही ने तो सामनेवाले अंकल को बताया कि आप ओड़िशा से हैं?”

ओ हो, तो आप किताब पढ़ने का स्वांग रच रही थीं। आपका ध्यान तो दरअसल हमारी बातों पर था,मैं फिर अपने व्यंग्य पर उतर आया था।

महिला ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, घूमकर लेट भर गईं। मुझे अपने ऊपर बड़ी कोफ्त हुई। ये कमबख्त ज़ुबान अपने नियंत्रण में कभी होती क्यों नहीं? फिसलने और ज़हर उगलने की बुरी आदत है उसको। लेकिन माफ़ी मांगने की हिम्मत ना हुई। मैंने अंकल की ओर घूमकर पूछा, आपको कुछ चाहिए क्या?” अंकल ने हाथ के इशारे से मना किया, कहा कुछ नहीं।

मैं भारी मन से प्लेटफॉर्म पर उतर गया। कुछ खाने की इच्छा नहीं हुई। विजय के लिए खाना पैक कराकर मैं दूसरे दरवाज़े से डिब्बे में चढ़ा और उसे खाने का पैकेट पकड़ाकर फिर प्लेटफॉर्म पर उतरकर टहलने लगा। एक बार जी में आया, जाकर माफ़ी मांग लूं। लेकिन अहं ने डिब्बे के दरवाज़े पर एक बांस का मोटा बल्ला डाल दिया था, उछलकर लांघना भी मुश्किल, झुकना तो ख़ैर नामुमकिन। मैं अपनी ऊहापोह से जी चुराने के लिए सिगरेट के गहरे कश लेता रहा।

ट्रेन के खुलने के सिग्नल के बाद जब पानी की बोतल लिए डिब्बे में वापस पहुंचा तो कम्पार्टमेंट की बत्तियां बुझाकर मेरे दोनों सहयात्री सो चुके थे। मैं भी ऊपर वाली सीट पर लेटे-लेटे रीडिंग लाईट जलाकर कुछ पढ़ने की कोशिश करता रहा, फिर सो गया।

सुबह नींद खुली तो ट्रेन अहमदाबाद पहुंचनेवाली थी। सभी यात्री अपने-अपने सामान समेटने लगे थे। घोघारी अंकल भी अपनी चप्पलें समेटकर बैग में रखने लगे थे। मैं भी नीचे उतरकर जूते पहनने लगा। लेकिन सामनेवाली सीट पर लेटी महिला वैसे ही दूसरी ओर घूमकर सोती रही।

मुझसे रहा नहीं गया। पश्चाताप करने के इरादे से मैंने उन्हें ज़ोर से आवाज़ देते हुए उड़िया में कहा, आप सो रही हैं? अहमदाबाद आनेवाला है। आपको सामान निकालने में कोई मदद चाहिए?”

उस महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने घोघारी अंकल की ओर बड़ी उम्मीद से देखा, लेकिन वे बड़ी मसरूफियत के साथ अपने जूतों के तस्मे बांधने में लगे थे।

ट्रेन के अहमदाबाद पहुंचते ही कुलियों के साथ-साथ एक चौबीस-पच्चीस साल का शख्स डिब्बे में घुस आया और हमारे सामने लेटी महिला के पास आ खड़ा हुआ।

दीदी! दीदी! तमो फोन बॉन्द काहि कि ओछि? मू बहूत सोमोयो रू चेष्टा कॉरूछि? कितनी चिंता हो रही थी मुझे। फोन तो ऑन रखती।

नहीं रे, फोन डिस्चार्ज हो गया था, इसलिए बंद हो गया। अब मैं चार्ज करने के लिए पावर प्वाइंट तक पहुंचूं तब ना?” पिछले चौदह घंटों में पहली बार मुझे महिला के चेहरे पर हंसी की एक लकीर नज़र आई थी।

किसी की मदद ले लेती। अपने सहयात्रियों से कह देती,भाई की आवाज़ में अब भी परेशानी घुली थी।

हां रे, मेरे सहयात्री बड़े अच्छे हैं, बड़ी मदद करनेवाले। मैंने ही नहीं कहा, इस बार व्यंग्य महिला की आवाज़ में था।

इसी बातचीत के बीच भाई नीचे से सामान खींच-खींचकर सीट पर रखता गया। सामान से साथ एक व्हील चेयर और एक जोड़ी बैसाखियां भी थीं। सामान निकालने के बाद उसने अपनी बहन को पकड़कर बिठाया और तब मुझे अहसास हुआ कि महिला की दाहिनी टांग की जगह एक कृत्रिम टांग लगी थी।

मुझे जाने ऐसा क्यों लगा कि मुझपर घड़ों पानी पड़ गया हो। मैं अब ना उस महिला से आंख मिला पा रहा था ना घोघारी अंकल से। जाते-जाते उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया तो भी मेरा ध्यान व्हील चेयर पर ही था। भाई ने कुली की मदद से एक-एक करके सामान उतारा और अपनी बहन को भी डिब्बे से उतारकर व्हील चेयर पर बिठाया।

मैं भारी मन से सीट पर ही बैठा रहा। फिर विजय के आने के बाद सामान उतारने के लिए वॉश बेसिन के पास जाकर खड़ा गया। मेरी नज़र के ठीक सामने एक स्टिकर चिपका था – आप भाग्यवान हैं कि आपके हाथ-पैर सलामत हैं। लेकिन संसार में कई ऐसे लोग हैं जो शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हैं। यदि आप ऐसे किसी व्यक्ति की आर्थिक मदद करना चाहें तो निम्नलिखित पते और फोन नंबर पर संपर्क करें…”

मैंने अपने मोबाइल फोन में नंबर सेव कर लिए। मेरा प्रायश्चित हो सके, इसके लिए बहुत ज़रूरी था कि मैं जल्द-से-जल्द इस नंबर पर संपर्क करता।

3 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

hmmm..

यहां मुंबई के एक कॉलेज में ब्लाइंड सेक्शन की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुआ था। मेरी आँखों पर पट्टी बांधकर छड़ी और आवाज के सहारे मुझे ऑब्सट्रक्शन के बीच चलने के लिये कहा गया। आँखें बंद कर मसालों में से काली मिर्च चुनने के लिये कहा गया, कपड़ों में से मिडियम, लार्ज, एक्सेल साईज चुनने के लिये कहा गया...औऱ भी कई क्रियाकलाप हुए मसलन आँखें बंद कर पीपली लाईव का अंश विशेष तरीके से दिखाया गया, आँखें बंद कर फुटबाल खेलाया गया औऱ होते होते दस पंन्द्रह मिनट के भीतर ही मेरा सारा वजूद जैसे धराशायी हो गया। पता चल गया कि विजूअली चैलेन्ज्ड या शारीरिक रूप से बाधित शख्स को किन मुश्किल हालातों से गुजरना पड़ता है।
बहुत दिलचस्प अंदाज में लिखी गई पोस्ट।

Rahul Singh ने कहा…

एकदम ओ हेनरी स्‍टाइल का सब कुछ.

Arvind Mishra ने कहा…

आधी दूर तक तक तो यह predictable नहीं थी मगर सहसा अचानक हो गयी ....मगर परिवेश दृश्यांकन जोरदार है