मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

चढ़ती हुई धूप, खुलती हुई हवा




किसको कहूं कि आज की सुबह जैसा हसीन कुछ मुद्दतों में देखा नहीं। देखा है कि पार्क में घुसते ही बाईं तरफ़ जो जॉगिंग ट्रैक शुरू होता है उसके किनारे-किनारे फ्लावर-बेड्स तैयार कर दिए गए हैं। कुछ ही दिनों में उनमें रंग-बिरंगी सर्दियां उतर आएंगी और खिल जाएंगे एस्टर, ज़िनिया, पैंज़ी और डालिया के फूल। आज मैंने लाल-गुलाबी टेंपल फ्लावर देखा है, पहली बार! वरना स्पा की तस्वीरों और समंदर किनारे मनाई जानेवाली छुट्टियों में कानों के पीछे तो हमेशा सफ़ेद टेंपल फ्लावर ही लगा करता है ना? 

देखा है कि घास की मखमली चादर पर नंगे पांव चलो तो पैरों के निशां की फिक्र नहीं होती। डर उन शबनमी बूंदों के लिए होता है जो पांवों के नीचे कुचले जाने से बख्शी गईं तो भी चढ़ती धूप से नहीं बच सकेंगी।

देखा है कि ट्रैक के दाहिने तरफ़ मौलश्री के आधा दर्ज़न पेड़ लगे हैं एक साथ। उनके नीचे की छांव एक जगह जमा होती है - ठंडी और मज़बूत। एकजुटता में एकता की बात यूं ही नहीं कही जाती। बाईं तरफ कुछ और पेड़ लगे हैं जिनका नाम नहीं जानती। लेकिन अमलतास जैसे पीले फूल हैं उनमें - गुच्छों में नहीं, डालियों पर। डालियों पर से गिरकर मिट्टी पर बिखरे यही फूल खाद बनेंगे और नए कोंपलों की तरह नए मौसमों की नई पहचान भी। 

पीछे चलते-चलते बांस के उलझे-सुलझे पेड़ों से एक बुलबुल फुदककर ट्रैक पर आ जाती है। मेरे बच्चे क्यों साथ नहीं? दिखाती उन्हें कि मीठी आवाज़ के साथ ख़ूबसूरत चेहरे की नेमत पाना मुश्किल ज़रूर है, नामुमकिन नहीं। मैं झुककर लाइलैक को छू लिया है। लैवेंडर के पत्तों को मसलकर खुशबू हथेलियों में भर ली है। 

इस सुबह और इतनी सारी ख़ूबसूरती को निहारते हुए इतना थक गई हूं कि बैठ जाना चाहती हूं। मेरे बगल वाली हरे रंग की बेंच पर एक आंटी आंखें मूंदें प्राणायम कर रही हैं। जाने क्यों मेरे भीतर की शरीर लड़की मचली है और ख़्याल आया है कि पूछूं, आंखें मूंदने पर मन का कौन-सा हिस्सा दिखता है जो किसी और को आप दिखाना नहीं चाहेंगी? वो कौन-सा सबसे बड़ा झूठ है जो जीते हैं हम रोज़-रोज़? वो कौन-सा सच है जिससे बचने के लिए यूं आंखें मूंद लेनी होती है कभी-कभी?  

सामने पिंक जॉगिंग ट्रैक्स, काले रीबॉक और गुची चश्मे में वॉक करती लड़की से पूछना चाहती हूं, सुबह की धूप बर्दाश्त नहीं होती आंखों को तो कौन-सा सच झेल पाओगी फिर? लाल टीशर्ट में दौड़ते लड़के से पूछना चाहती हूं, जेफ्रीज़ था या रुबी ट्यूज़डे जिसका हैंगहोवर तोंद पर यूं हैंग किए दौड़ जा रहे हो। 

सुबह अचानक बड़ी होने लगी है, धूप चुभने लगी है और खुली हुई बदगुमान हवा सिमटने लगी है, जवां होकर खुलकर उड़ने की बजाए पैरों में पायल में डालकर किनारे बैठ गई हो जैसे। घर होने का वक्त हो चला है, मेरे लिए भी, उसके लिए भी।

घर लौटकर आई हूं तो एक भूरी-काली तितली बच्चों के कमरे में दीवार पर जमकर बैठी है। खिड़की और दरवाज़े खुल गए हैं। तितली, बाहर जाओ। पेड़, पत्ते, फूल, रंग, आसमां और बदगुमानी की जगह बाहर है। सिमटी हुई हवा, अंदर आ जाओघर में। मैं और तुम जी लेंगे आज भी। खुलकर बिखरने के लिए एक कोना बहुत है।  


2 टिप्‍पणियां:

सतीश पंचम ने कहा…

मस्त लिखा है। एकदम राप्चिक।

Arvind Mishra ने कहा…

गुलाबी गुलाबी शरद ऋतु का अहसास