इस शहर का नाम सीवान है और इससे मेरा रिश्ता अजीब-सा है। लव-हेट जैसा कुछ। मैं लौट-लौटकर हर साल यहां आ जाया करती हूं और इस प्रार्थना के साथ लौट जाती हूं कि या तो एक दिन इस शहर का रंग-रूप, चरित्र बदल जाए या फिर मेरे मां-पापा के बुढ़ापे का पता। ये शहर तंग गलियों, उड़ती धूल, टूटी सड़कें और ढेर सारी भीड़ वाला शहर है। इसी शहर के एक गांव में मैं पैदा हुई और इसी शहर में मेरी मां और मेरे पापा ने अपना बचपन और अपनी जवानी गुज़ारी।
लेकिन मेरे लिए ये शहर एक स्टॉपओवर से अधिक कुछ भी नहीं रहा - पैतृक गांव और ननिहाल जाने के रास्ते में पड़नेवाला वो स्टेशन जहां आप एक रात अपने रिश्तेदारों के यहां रुकते हैं। उनके घर में मौजूद सीली हुई गंध बर्दाश्त करते हुए, कचहरी की ओर से आनेवाले बंदरों के हुजूम की ऊटपटांग कहानियां सुनते हुए, मच्छरों और उमस से भरी रातें छत पर सप्तर्षि को देखकर काटते हुए, ध्रुवतारे को खोजते हुए। इससे अधिक का नाता नहीं होता था इस शहर से। शहाबुद्दीन के ज़माने में तो ये एक रात का नाता भी ख़त्म हो गया था।
स्टॉपओवर लंबा हुआ तो इस शहर में हमें ढेर सारे इंद्रजाल कॉमिक्स मिल जाया करते थे और दो-एक रातें जो मिलती थीं यहां, छत पर ही गुज़र जाया करती थीं, वीसीपी पर फिल्में देखते हुए। यहां फिल्म देखने का भी एक अलग रोमांच था। बात 87-88 की है। यहां बिजली तब भी ईद का चांद ही होती (और अब भी है), इसलिए ट्रैक्टरों की बैट्रियां चार्ज करके लाई जाती थीं। लंबे-लंबे तारों और एक्सटेंशन कॉर्ड की मदद से छत पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी और वीसीपी लग जाया करता। रात में रोटी, दम-आलू और भिंडी की सब्ज़ी के साथ पके हुए मालदह आम का डिनर करने के बाद हम बच्चे अपने-अपने बिस्तरों पर अपनी जगह पकड़ लेते। कैसेट लगाने और फिल्म का शो शुरू करना चाचा का काम होता। जिन पड़ोसियों को हमारी छत पर जगह ना मिलती वो अपनी छतों पर ही कुर्सियां लगा लेते।
मैं अक्सर सोचा करती कि इस शहर में प्रेम करना कितना आसान होता होगा, ख़ासकर तब 'सब्जेक्ट-इन-क्वेशचन' दो पड़ोसी हो। छतों को लांघना बच्चों का खेल हो सकता है यहां, और छत से कूदकर गली से होते हुए बाज़ार की ओर भाग जाना तो और भी आसान। प्रेम में इतनी निडरता ना भी हो तो एक-दूसरे की दीवारों के पार से स्टीरियो पर प्रेमगीत सुनाना भी उतना ही आसान। फिर अपनी-अपनी छतों पर बैठे हुए ऐसे साथ फिल्म देखने का मौका सीवान को छोड़कर किसी और शहर में हासिल करना तो नामुमकिन है। नौ-दस साल की उम्र में ऐसे ख़्याल किसी से बांटे भी नहीं जा सकते थे ना रिश्ते के चाचाओं-बुआओं से छतों के राज़ पूछे जा सकते थे। इसलिए कह नहीं सकती कि मेरे बेतुके ख़्याल किसी की जुगलबंदी बने भी या नहीं।
ख़ैर, फिल्में हमने खूब देखीं गर्मी की छुट्टियों की उन दो रातों में। सारे नाम मुझे अब भी याद है - कमांडो, रामावतार, गुरु, मर्द, नगीना, जीते हैं शान से, लोहा, खुदगर्ज़, स्वर्ग, प्यार झुकता नहीं... (हम यूं ही आज भी गोविंदा और मिथुन के फैन नहीं और कभी अंत्याक्षरी हुई तो इन फिल्मों के गाने अंतरों के साथ सुनाऊंगी।)
गानों से याद आया, जापानी में एक कहावत है - अगर किसी शहर के चरित्र को पहचानना हो तो देखिए कि वहां के लोग किस तरह का संगीत सुनते हैं। सीवान के लाउडस्पीकरों पर बजनेवाले गानों से मुझे हर बार वो कहावत सौ फ़ीसदी सही लगती है। इस साल दुर्गा पूजा में पंडालों के बाहर नए गानों की पैरोडी के अलावा 'सनम बेवफा' और 'लाल दुपट्टा मलमल का' के गाने सुनने को मिले। सीवान में हम एक तरह के टाइम वॉर्प में जीते हैं। कई सालों से शहर एक ही जगह ठहरा हुआ है जैसे। लोग निकलते गए, अपनी बस्तियां अलग-अलग शहरों में बसाते गए। यहां की बस्तियां अभी भी वैसी की वैसी हैं - तंग, रौनकहीन, बिजली की गैरमौजूदगी में लालटेन और लैंपों की टिमटिमाहट पर क़ायम।
मेरे पति कहते हैं, सीवान के लोग बिहार के पंजाबी हैं - सब हो जाई/Everything is possible के रवैए के साथ ज़िन्दगी जीनेवाले, ख़तरे उठानेवाले, ख़तरों में डालनेवाले। लेकिन यहां आकर ऐसा लगता नहीं। शायद पंजाबियत से भरे ख़तरे उठानेवाले सारे लोगों ने हमारी ही तरह सीवान की सरहदों के बाहर ही अपनी क़ाबिलियत दिखाना तय कर लिया है। फिर सीवान क्या बदलेगा? इस शहर को यादों की तरह जीने से ज़्यादा जीने की हिम्मत फिलहाल नहीं है मुझमें।
8 टिप्पणियां:
इन सार्वजनिक पिक्चर देखाई वाली यादें पढ़ कई कई संस्मरण कौंध गये।
कुछ इसी तरह की फिल्मों को मैंने बचपन में अपने यहां मुंबई में परदे पर देखा है। दरअसल मेरे पड़ोस में ही एक स्मगलर रहता था ( हाजी मस्तान के जमाने का)। वही पूरे इलाके को परदे पर फिल्में दिखवाता था।
एक बार तो उसने पूरे एक महीने लगातार परदे पर फिल्में दिखलाया था। बाद में जब उस पर पुलिस की दबिश पड़ी तो वीसीआर पर उतर आया, परदे पर फिल्में तब भी यदा-कदा लोगों को दिखाता रहता। बाद में अचानक कुछ ऐसा हुआ कि उसका सारा ऐश्वर्य धराशायी हो गया और उसकी बेटी जो कभी भी कार छोड़ किसी और वाहन से स्कूल न जाती थी वह करीब आठ दस साल पहले मुझे एक निर्माणाधीन इमारत में मजदूरी करती दिखी। बीड़ी या सिगरेट में कुछ मिलाकर पीने की उसे लत सी लग गई है।
सोचने लगता हूं तो लगता है जैसे सारा कुछ इत्तिफाक है, कब क्या हो जाय कहा नहीं जा सकता :)
सही शब्द है सीवान के संस्मरण के लिए..लव हेट। नफरत भी प्यार की निशानी है। दिल से लिखा है आपने। दिल से लिखी बातें अच्छी लगती हैं।
और लिखिए सीवान के संस्मरण । लाख बुरा हो पर साहित्य की पूरी रसद है इसमें।
सीवान तो बदायूँ का बिहारी संस्करण लग रहा है। सब कुछ वैसा ही है सिवाय ट्रैक्टर की बैट्रियों के अनूठे प्रयोग के।
जीवन की पेचीदगियों के बीच जीने की सहज राह...
सीवान, शब्द के साथ गुजरात का दोहद याद आता है, अर्थ संधि-रेखा पर, मानों बौद्ध 'मज्झिम पटिपदा'
हमें तो सिवान = शहाबुद्दीन लगता है। पास के जीरादेई के राजेन्द्रबाबू थे, पर सिवान पर उनका प्रभाव नहीं दीखता।
हमारे बैच के किसी भी क्लास मेट ने इसे इस रूप में चित्रित न किया। हो सकता है तब हम बिहार के शहरों से ही बिहार के दूसरे शहर की तुलना करते तो ऐसा कुछ अटपटा न लगता। अब उन दिनों लोग हमारे मुज़फ़्फ़रपुर को मच्छरपुर कहते थे। गंदगियां होंगी तो मच्छर तो भरे रहेंगे ही..।
लेकिन राजेन्द्र बाबू का कद इतना ऊंचा था कि सीवान के हर छात्र में उनका ही अंश नज़र आता था।
संस्मरण एक साहित्यिक कृति से कम नहीं है।
इसे पढ़ तो कुछ दिन पहले लिया था…अब कुछ कह रहे हैं…बिहार के सीवान से सबसे अधिक लोग अरब देशों में रहते हैं…और हाँ, सीवान जिले के लोगों से जब भी पाला पड़ा है, एक अनावश्यक किस्म का अहंभाव दिखा है…यहाँ उद्देश्य निन्दा नहीं है…राजेन्द्र बाबू का सीवान तो बस नाम का रह गया है…आगे फिर कभी कहेंगे कुछ, अगर लगा तो…
आपकी लेखनी पर वैसे ही कुछ कहने के बजाय उसे महसूसना ज्यादा मुफीद रहता है मगर यह तो बस कुछ न पूछिए -फेसबुक पर कुछ भाव पहले से ही संवादित हो गए थे उन्हें पूरी समग्रता में यहाँ पाकर सन्न हूँ !
कुछ भी हो जैसा भी हो शहर अपना है ....अंगूठे में जहर फैलने पर क्या तुरंत उसे काट दिया जाना चाहिए ?
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