कोई बीज हमने बोया नहीं,
ज़मीं फिर भी सींचने लगे हैं
उम्मीद की।
कोई कोंपल फूटेगी नहींमन की शाख पर फिर भी
लटका ली है हरियाली।
भविष्य के किसी पेड़ पर
कोई डाल अपनी नहीं
फिर भी डाल लिए हैं झूले,
कोई डाल अपनी नहीं
फिर भी डाल लिए हैं झूले,
तेज़ कर ली हैं पींगें।
हमने फिर से सजा ली है
ख़्वाबों की बंजर ज़मीं
सुना है कि पत्थरों के सीने से
भी फूटा करते हैं अंकुर
सूखे दरारों की भी
बदल जाया करती है किस्मत
रेगिस्तान में भी
आ जाया करती है बाढ़।
ऐसे ही जलती-बुझती उम्मीदों में
इसलिए फिर लपेट लिए हैं
कुछ अक्षर
आज फिर यूं ही बेवजह।
2 टिप्पणियां:
हमने फिर से सजा ली है
ख़्वाबों की बंजर ज़मीं
सुना है कि पत्थरों के सीने से
भी फूटा करते हैं अंकुर
पर बीज तो होना चाहिए .. बिना बीज के तो अंकुर नहीं फूट पायेंगे ...
बादल ने बरखा के हाथों संदेसा भेजा , धरा नेह धार नहाई तो पत्थरों में भी अंकुर फूटे!
पत्थरों के सीने से भी फूटते हैं अंकुर ....
यकीनन!
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