तेरे दर पर हमारा ज़ोर तो चलता नहीं है,
तुम्हीं कह दो कहां फिर सिर को फोड़ आएं हम।
तुम्हीं सरताज, तुम्हीं हमराज, तुम्हारी ही गुलामी है
ऐसे अपने रिश्तों को फिर कैसे तोड़ आएं हम।
मिली है आज़ादी तो क्या, हलक में सांस अटकी है
गले की फांस को फिर क्यों ना मरोड़ आएं हम।
गुल्लक में जो बचता है - हमारा आज है, कल है
चंद अपने सिक्कों को कैसे ना जोड़ आएं हम।
सालों राह देखी तो हमें मंसूब हुआ एक घर,
जन्नत हो कि दोज़ख़ हो, कैसे छोड़ आएं हम।
तुम दोस्त हो जब तो हमारी दौड़ फिर कैसी,
तुम हारे या कि हम जीते, क्यों ऐसी होड़ लाएं हम!
हवाओं का रूख जैसा भी हो, जिधर भी हो,
जो हम-तुम साथ हों तो बहती धारा मोड़ लाएं हम।
2 टिप्पणियां:
मिली है आज़ादी तो क्या, हलक में सांस अटकी है
गले की फांस को फिर क्यों ना मरोड़ आएं हम।
गुल्लक में जो बचता है - हमारा आज है, कल है
चंद अपने सिक्कों को कैसे ना जोड़ आएं हम।
खूबसूरत गज़ल
ख़याल अच्छा है और अंदाजे बयाँ भी
फिर क्यों न टिप्पणी कर जायं यहाँ हम :)
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