पता नहीं किन-किन गलियों से होकर हम इस सफेद इमारत के सामने पहुंचे हैं। गणेश अपार्टमेंट्स - यही तो नाम था। सामने आसाराम बापू का आश्रम, उसके बगल में गंदा-सा खाली मैदान, मैदान में गायें-बकरियां-बैल-कुत्ते नवंबर की धूप सेंकते हुए। ये फरीदाबाद का दयाल बाग़ है। नाम अपमार्केट, लेकिन अपमार्केट जैसा कुछ भी नहीं। मैं एक हाथ से अपनी साड़ी और दूसरे से दोनों बच्चे संभालते हुए इमारत में घुसी ही हूं कि आदित को तेज़ उबकाई आई है और पूरा फर्श उसकी उल्टी से भर गया है। इसे क्या हो गया? घर से तो हम ठीक ही निकले थे। आद्या को पीछे हटाते हुए मैं पहले आदित को संभालती हूं। आद्या ने मेरे हाथ का बैग और पर्स अपने कमज़ोर कंधों पर ले लिया है। हम किसी तरह लदे-फदे से दूसरी मंज़िल पर चले आते हैं।
घर में घुसते ही मुझे पता ही नहीं चला कि किसने आदित को गोद ले लिया, कौन आद्या का हाथ पकड़कर भीतर ले गया। इन सभी लोगों को मैं पहचानती हूं, ये मेरी छोटी मौसी का घर है। घर बेशक नया है, लेकिन घर में मौजूद रहनेवाली ये भीड़ मैं 1995 से देख रही हूं, जबसे मौसी की शादी हुई। अपनी आवाज़ में क्षमा-याचना घोलकर मैं एक बाल्टी पानी मांगती हूं, उल्टी साफ करने के लिए। पैर छूने-छुआने, आर्शीवाद देने-लेने के बीच मैंने देखा ही नहीं कि इसी भीड़ में से किसी को आदित ने अपनी उल्टी की हुई जगह बालकनी से दिखा भी दी और सफाई हो भी चुकी।
ये एक संयुक्त परिवार है, फरीदाबाद में रहनेवाला एक संयुक्त बिहारी परिवार। यहां मेहमान नहीं आते। आते भी हैं तो घर के सदस्य कहलाते हैं। यहां आनेवाला अतिथि यहीं का होकर रह जाता है और ये कोई अतिशयोक्ति नहीं। जितनी बार मौसी के घर आई हूं, एक नया चेहरा देखा है। फलां बुआ के फलां देवर का फलां बेटा। दिल्ली कंप्यूटर कोर्स करने आया है। यहीं रह गया। फलां चाची की बेटी दिल्ली नौकरी ढूंढने आई। यहीं रह गई। कोई गांव से इलाज कराने आता है, कोई लड़का देखने। जो आता है, यहां अपनी निशानी छोड़ जाता है। शायद कुल बारह-तेरह बच्चे हैं जो किसी-ना-किसी मकसद के साथ यहां, मौसी के घर में रह रहे हैं। मौसाजी और उनके छोटे भाई इन बच्चों को सिर पर छत देते हैं, मार्गदर्शन देते हैं। उन दोनों की पत्नियां सबको प्यार से खिलाती-पिलाती हैं और अक्सर अपने घर के बजट में कटौती कर कभी उनके इम्तिहानों के फॉर्म भरती हैं तो कभी उन्हें फ्रेंच क्लास के लिए भेजती हैं। उम्र? मौसी मुझसे छह साल बड़ी हैं और उनकी देवरानी शायद मेरी उम्र की होंगी। लेकिन इतने सालों में मैंने उन्हें कभी परेशान नहीं देखा, कभी शिकायत करते नहीं देखा, और सच रह रही हूं, कभी परेशानी की लकीर नहीं देखी माथे पर।
इस घर के चूल्हे में अन्नपूर्णा विराजमान है, मैंने कई बार कहा है उन दोनों से। आज हम दो घंटे के लिए गए थे वहां, पूरे आठ घंटे बिताकर लौटे हैं। और शायद बच्चों का वश चलता तो कभी नहीं आते।
घर किसे कहते हैं? हम घर में अपना कोना तलाश करते हैं, बनाते भी हैं। उस स्पेस को हम एक घेरे के भीतर रखते हैं। टेबल का कोई कोना, बिस्तर, अपनी कोई अलमारी या फिर चौका-चूल्हा - सबपर अपनी छाप ढूंढते हैं, अपना वर्चस्व चाहते हैं। यहां किसी का कोई निजी स्पेस नहीं। तीन कमरों में नहीं जानती कितने लोग रहते हैं, एक साथ। दोनों मौसी लोगों के दो-दो बच्चे हैं। मौसी की बेटी अनन्या डाउन्स सिंड्रोम के साथ पैदा हुई थी। लेकिन इतने सारे लोगों के बीच में रहते हुए उसमें असाधारण कुछ भी नज़र नहीं आता अब। मेरे बच्चों को इतनी देर में ही कोई कीबोर्ड बजाना सीखा रहा था, कोई पेंटिंग करा रहा था। बच्चों के लिए सब मौसियां थीं, सब मामा लोग थे।
आठ घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला। वहां से लौटी हूं तो लगता है हम कितने स्वार्थी हैं, कितनी शिकायतें रखते हैं ज़िन्दगी से! घर ईंट-गारे-पत्थर-बालू से नहीं बनता। घर रेशमी पर्दों, महंगी टाइलों और रंगीन दीवारों से भी नहीं बनता। घर प्यार से बनता है, सहिष्णुता, धैर्य से बनता है। अपनापन घर की सबसे बड़ी नेमत होती है। इतनी बड़ी भीड़ को खिलाते-पिलाते हुए भी मौसी और छोटी मौसी मेरी विदाई करते हुए छठ का प्रसाद डिब्बे में बंद करके देना नहीं भूलती। माथे पर सिंदूर लगाती हैं, नई बिंदी सजाती हैं और हाथ में एक-एक कड़ा डालती हैं। जितनी बार जाती हूं उतनी बार बच्चों को नए खिलौने मिलते हैं।
मैं मौसी और छोटी मौसी का आशीर्वाद लेने के लिए झुकी हूं। इतना कह पायी हूं कि अपने धैर्य और विश्वास, प्यार और संस्कार का दो फ़ीसदी दे दो मुझे मौसी। मैं इतने में सोना बन जाऊंगी। (देखा! अभी भी अपने बारे में सोच रही हूं...)
5 टिप्पणियां:
सच ही उस घर में अन्नपूर्णा का निवास है. सहिशुणता का गुण परिवारों को जोड़े रखता है. आज के युग में गायब होता दिखता है.
आप भाग्यशाली हैं जो आपके वह लोग आपके रिश्तेदार हैं, और आप उनके नज़दीक हैं. इश्वर मेहर बनाये रखे..
post ke liye thank you rahega!
घर को देखने वाली नज़र भी बहुत हसीन है.
और बहुत से लोग तो घर और मकान में अंतर ही नहीं समझ सकते।
"रेशमी पर्दों, महंगी टाइलों और रंगीन दीवारों से भी नहीं बनता। घर प्यार से बनता है, सहिष्णुता, धैर्य से बनता है। अपनापन घर की सबसे बड़ी नेमत होती है। "
सही कहा आपने...
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