बीस दिनों में ही मुंबई के मौसम ने मिज़ाज बदल दिया, सर्दी बर्दाश्त करने की ताक़त भी। जब से दिल्ली उतरे, ऐसे कांप रहे हूैं जैसे डाली से बिछड़ी पीली पड़ती हुई कोई एक पत्ती। ठंड नहीं, ठंड का ख़्याल भर ठंडी हवा का थपेड़ा है। दो कंबल और दो बच्चों के बीच में पड़े रहने का सुकून न होता तो उल्टे पांव फिर किसी गर्म-नर्म शहर को लौट जाती।
दोनों बच्चों को छुट्टियों के बहुत पहले ही स्कूल भेजना बंद कर दिया था। हम एक महीने से पूरे-पूरे दिन पता नहीं क्या करते हैं। डोरेमॉन, पोकेमॉन, छोटा भीम, अमिताभ बच्चन, सलमान खान, माई नेम इज़ खान और वरुण धवन के बीच के लम्हे आपस में उलझने, उन झगड़ों को सुलझाने, एक-दूसरे को कहानियां सुनाने और उन कहानियों को तस्वीरों में उतारने में गुज़र गए।
पिछले एक महीने से दिन भर मैं यही कहती रही हूं ख़ुद से कि मेरे पास इसलिए वक़्त नहीं है क्योंकि दोनों बच्चे घर में हैं, और उनको वक़्त देना मेरी पहली (नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक) ज़िम्मेदारी बनती है। काम ठप्प पड़ा है। लिखने-पढ़ने की आदत छूट गई है।
तो... स्कूल उनका खुल रहा है, और लग मुझे रहा है कि छुट्टियां ख़त्म होने को हैं। सेपरेशन एन्कज़ाइटी मुझे हो रही है।
पिछले कई सालों के बारे में सोचती हूं तो वक़्त फास्ट-फॉवर्ड में आंखों के सामने से गुज़रता-सा लगता है। मैंने पिछले कई सालों में कुछ और नहीं किया, सिर्फ़ ढेर सारे सपने देखने के। ढेर सारा वक़्त बच्चों के साथ गुज़ारने के। और फिर ढेर सारा वक़्त उस गुज़ारे हुए वक़्त के बारे में सोचते रहने के।
हर दिन यूं गुज़रा जैसे एक बड़ी जंग ख़त्म हुई हो। उस रोज़मर्रा की जंग में कहीं कोई कोताही नहीं बरती जा सकती थी। अभी भी नहीं बरती जा सकती। पता नहीं वो कौन-से लोग होते हैं जो कई दुनियाओं की जंग एक साथ लड़ते हैं? मैं तो एक में ही तबाह-तबाह हुई जा रही हूं। जंग के कई मैदानों को तो दूर से ही सफ़ेद झंडी दिखा दी। एक में ही अस्थि-पंजर हिला हुआ है। बाकी की कमी कई शहरों के बीच के बदले हुए मिज़ाज के हिसाब से ख़ुद को बदलने में पूरी होती रही है। कई शहरों में अपना वजूद होना भी एक ख़ता हो गई जैसे।
वो कैसे लोग होते होंगे जो बच्चों को बड़ा करते हुए एक-दूसरे से बहुत सारा प्यार भी कर लेते होंगे? नए फ़ितूर भी पालते होंगे? वक़्त से वक़्त भी चुराते होंगे? कहानियों, कविताएं, लम्हे, किस्से लिखते होंगे? वो कैसे लोग होते होंगे जो अपने वजूद का हर चेहरा बचाए रखते होंगे? मेरे एक ही चेहरे पर अब थकन की लकीरें आने लगी हैं। पेशानी है कि सिकुड़ी हुई रहती है। कहीं और चैन नहीं मिलता, सिवाय दो बच्चों के बीच की एक फ़ुट की जगह के।
मैं उन दोनों को दूर, कहीं दूर किसी पहाड़ी शहर पर ले जाकर ख़ुद वहीं बस जाना चाहती हूं - जहां हम देवदार को अपनी बांहों में भरकर सोचेंगे कि कोलंबस की तरह दुनिया नाप ली, जहां चीड़ के पत्ते गिनना ज़िन्दगी का सबसे ज़रूरी काम होगा, जहां तेंदुओं की मारी हुई बकरियों के पिंजर देखकर हम फूड चेन और डाइवर्सिटी समझने की नाकाम कोशिश करेंगे, जहां धर्म और दर्शन माथे पर लटकता सूरज सिखाएगा, जहां बिंग बैंग थ्योरी समझने के लिए किसी अंधेरी रात के बदन पर बहुत सारे पत्थरों के टुकड़े फेंकने की सहूलियत मिल सकेगी।
अब हमसे कोई और काम न होगा। कंबल बुला रहा है, और कंबल में लेटे हुए बच्चे भी। अरे दो-चार दिन और भई। फिर वही कुंजे-कफ़स होगा और फिर होगा वही सैय्याद का घर। ज़िन्दगी अपनी बेरहमी से किसे बख़्शती है कि मुझे और मेरे दो बच्चों को बख़्शेगी?
जो जंग लड़नी है, फिर यहीं लड़नी है, जहां हैं वहीं रहते हुए। बहुत सुकून है कि हूं वहां जहां ज़रूरत रही है, और बेचैनी ये...कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है।
5 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (16.01.2015) को "अजनबी देश" (चर्चा अंक-1860)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
कुछ जरूरी नहीं-बस एक यह पल,
इसके सिवाय सब गैर-जरूरी है.
मेरा खयाल है.
कमबख्त कुछ पाने की उम्मीद हमसे बहुत कुछ छीन लेती है।
सुन्दर प्रस्तुति।
मकरसंक्रान्ति की शुभकामनायें
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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