अमरावती डिविज़न में है बुलढाणा, विदर्भ का सबसे पश्चिमी हिस्सा - नाम-शोहरत-दौलत-ख़्वाब बनाती बिगाड़ती मुंबई से कुछ पांच सौ किलोमीटर दूर। अरुणावा सिन्हा की किसी अनूदित कहानी में पढ़ा था कि बुलढ़ाणा में एक झील है जो दरअसल झील नहीं, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा क्रेटर है। एक सैलानी बाबा की दरगाह भी है वहाँ। पीर की दर पर मेरे जैसे फ़ितरती घुमंतुओं की दरकार है या नहीं, मैं नहीं जानती। बुलढ़ाणा शहर को सैलानियों की ज़रूरत ज़रूर है। शहर या तो गन्ने की खेती से चलता है या फिर थोड़ी-बहुत कपास की खेती से।
मैं जिस मौसम में बुलढ़ाणा गई थी वो मौसम कपास के खेतों से कपास चुनने का था। कांटों में उंगलियां और अपने दामन उलझाए खेतों में सिर झुकाए या तो औरतें कपास चुनती रहती थीं, या फिर बच्चे।
रोज़ी-रोटी की ज़रूरत इल्म से कहीं ज़्यादा बड़ी होती है। पढ़-लिखकर दुनिया को बदल देने के वालों की जो गिनी-चुनी कहानियां बच्चों तक पहुंचती है, उसमें बहुत उम्मीद नहीं होती। आनेवाले कल के बिकाऊ ख़्वाब तो वो खरीदे जिसके आज का पेट भरा है और एक जो शरीर है वो किसी बाहरी-भीतरी ज़ख़्म या तपिश से थका हुआ न हो। वरना ज़िंन्दगी के रोज़-रोज़ के संघर्ष दो वक्त किसी तरह पेट भरने और सिर पर छत जुटाए रखने से आगे नहीं निकल पाते। वजूद का सवाल बेसिक सर्वाइवल के जवाब से जुड़ा हुआ है।
फिर मैं, और मेरे जैसे लोगों की टीम खामगाँव में क्या कर रही थी? अपनी-अपनी गर्दनों में कैमरे लटकाए हम किस गरीबी की तस्वीर खींचते? किस डोनर को भेजते? किस इंटरनेशनल फंडिंग एजेंसी को पक्का यकीन दिला पाते कि उनके दिए यूरोज़ (या डॉलर) बच्चों के ख़्वाब खरीद लाएंगे? हम फिर भी उस गाँव में अपने लिए तस्वीरें और केस स्टडिज़ ढूंढते रहे थे।
एक प्राइमरी स्कूल था वो, जहाँ उस रोज़ का सबक मिला था हमें। शाम होने को थी, लेकिन मग़रीब की ओर बढ़ता सूरज धीरे-धीरे चलता है। रोशनी के जो थोड़े-बहुत टुकड़े खिड़कियों से आने चाहिए थे, उन्हें बंद खिड़कियों ने रोक रखा था।
खिड़कियां बंद क्यों हैं? मैंने पूछा था।
दूसरी-तीसरी-चौथी क्लास के बच्चे क्या जवाब दे पाते कि मुझे कोई जवाब मिलता।
बाहर से शोर बहुत आता है न, इसलिए।
बाहर का शोर भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है, ये समझने में मुझे देर न लगी। मैं जिस स्कूल में खड़ी थी वो एक प्राइमरी स्कूल था और वहां की दीवार से कुछ पचास मीटर दूर जो दो कमरों की इमारत थी वहाँ उर्दू प्राइमरी स्कूल चलता था। तालीम बंटी हुई थी। तालीम का मज़हब और तालीम की ज़ुबानें भी बंटी हुई थीं। ज़ाहिर सी बात है, शोर भी बंटा हुआ था।
हम दोनों स्कूलों में गए थे। एक स्कूल में बच्चों ने हमें सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला का लिखा'वर दे वीणावादिनी वर दे' सुनाया था, तो दूसरे में अल्लामा इक़बाल का लिखा 'लब पे आती है दुआ बनके' सुनाया था। बच्चे कहां बंटे होते हैं कि बंद खिड़कियां उन्हें बांट पातीं? लेकिन दुआएं बंटी हुई थीं, दुआओं की ज़ुबानें भी बंटी हुई थीं। ऊपरवाला जाने ज़ुबानों की सुनता होगा या आवाज़ों की सुनता होगा! या शायद बहरे हो जाने में ही अक्लमंदी नज़र आई होगी उसको।
दुआ की ज़ुबानें हिंदी और उर्दू में बंटी हुई थीं। लेकिन आवाज़ें एक-सी थी, बातें एक-सी थीं और सरोकार बिल्कुल एक जैसे थे। बच्चों का नाम चाहे जो भी रहा हो, उन्हें अपने स्कूलों में साफ़ पानी चाहिए थी, किताबें और नोटबुक चाहिए थे और खेलने-कूदने के लिए गेंद, बल्ला, फुटबॉल, रस्सियां और वक़्त चाहिए था। उन्हें हिफ़ाज़त चाहिए थी। स्कूल में बच्चे ज़िन्दगी के उन कड़वी सच्चाईयों से महफ़ूज़ थे जिन्हें जीना उनके वजूद की मजबूरी थी।
बांटने का काम हम कर करते हैं। कितने सारे बंटवारे हैं - नामों के, उपनामों के, गांवों-कस्बों-गली-मोहल्लों के। मज़हब के, ज़ुबानों के। यहां तक कि मज़हब में भी बंटवारे। हम तो अपने बच्चों को भी बांट देते हैं - तू बड़ा, तू छोटा। तू लड़का, तू लड़की। तू गोरा, तू काला। तू बेवकूफ़, तू ज़हीन। स्कूल में बंटवारे और बड़े। तू मिलिट्री वाला, तू सिविल। तू अमीर, तू गरीब। तू कसाई टोला का, तू बाह्मन टोला का।
अंतहीन बंटवारे। ज़मीन के बंटवारे, आसमान के बंटवारे। गोलियों के बंटवारे, ख़ून के छींटों के बंटवारे। गुनाह के बंटवारे, यकीन के बंटवारे।
जिस देश में एक ख़ूनी की मूर्ति चौराहों पर लगाकर उसका जश्न मनाने की बात होने लगे, उस देश को अपने पड़ोसी की गिरेबान में झांकने का हक़ मिलना भी चाहिए? चलो बंटवारों को अंतिम सत्य मान लें, और गोलियां गिनें। ख़ून के क़तरे गिरें। कफ़न गिनें, ताबूत चुनें। गिनते-गिनते जब थक जाएं तो अपने-अपने चौराहों पर लगे मूक महापुरुषों की मूर्तियां गिनें।
फिर चलो ये भी गिन लें कि अपनी-अपनी गलियों, गांवों, शहरों में कितने बच्चों को कितनी बार बांटा हैं हमने।
आओ, अपनी-अपनी खिड़कियां बंद कर लें। तुम अरबी-फ़ारसी में पढ़ो मर्सिया और मैं संस्कृत में श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक गुनगुनाती हूं।
अध्याय दो, श्लोक २७-२८ -
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्य अर्थे न त्वं शोचितुमर्सि।
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।
सुनो कि तुम्हें नसीब होगी जन्नत, और मुझे एक हज़ार चंद्रलोकों का सुख। बच्चों का क्या है? फिर पैदा हो जाएंगे। उन्हें हम फिर से बांट देंगे।
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जिस देश में एक ख़ूनी की मूर्ति चौराहों पर लगाकर उसका जश्न मनाने की बात होने लगे, उस देश को अपने पड़ोसी की गिरेबान में झांकने का हक़ मिलना भी चाहिए? चलो बंटवारों को अंतिम सत्य मान लें, और गोलियां गिनें। ख़ून के क़तरे गिरें। कफ़न गिनें, ताबूत चुनें। गिनते-गिनते जब थक जाएं तो अपने-अपने चौराहों पर लगे मूक महापुरुषों की मूर्तियां गिनें।
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