रविवार, 17 अगस्त 2014

चले हैं दूर हम दीवाने... और मैं घुमन्तू!

सुबह-सुबह उठकर मुझे योगा करना चाहिए। टहलना चाहिए। अपने मोटापे को कम करने के तरीके ढूंढने चाहिए।

लेकिन सुबह-सुबह उठकर मैं कर क्या रही हूँ? गूगल पर पहाड़ों और पहाड़ी शहरों के नाम-पते ढूंढ रही हूं, कि जहाँ जाकर फ़ितूरी मन का चैन ढूंढा जा सके। आईआरसीटीसी पर टिकटें हैं, और छोटे-छोटे होमस्टे की कीमतें इतनी ही हैं कि अपने और अपने बच्चों के लिए ज़िन्दगी की थोड़ी-सी कामचलाऊ सहूलियतें और बहुत-सारी तस्वीरें, अल्फ़ाज़ी तस्वीरें, बिंब, प्रतीक, उपमाएं और ज़िन्दगी के ख़ूबसूरत होने का यकीन खरीद सकूं।


ये मेरी सबसे बड़ी फैंटेसी थी कि किसी दिन गाड़ी में बैठकर पूरा देश धांग मारूंगी। ये मेरा सबसे बड़ा ख़्वाब था - अब भी है - कि डायरी में नई जगहों, नए लोगों के नाम-पते होंगे। मैं हर सुबह किसी नए गांव, किसी नए शहर में उठूंगी और हर शाम शफ़क़ पर गिरते रंगों पर लिखी जानेवाली कविताओं और अफ़सानों की चिंदियाँ उसी गांव, उसी शहर में उड़ा आऊंगी।

मुझे घुमंतू पहाड़ों ने बनाया। दरअसल ईमानदारी से कहूं तो मैं घुमन्तू तो हूँ भी नहीं। गुमां पाल रखा है बस, घुमंतू होने का। याद नहीं कि सड़कों से, और रास्तों से कब प्यार हो गया था। जब से मुझे याद है, मुझे बेमतलब घूमना अच्छा लगता था। हम छोटे थे तो हमारे रास्ते भी बहुत छोटे हुए करते थे। बहुत हुआ तो रांची से ओरमांझी, गुमला, खूंटी, तोरपा, चांडिल, घाटशिला। थोड़े और खुश हुए तो रांची से पटना, सिवान। थोड़े और खुश हो गए तो जमशेदपुर, कोलकाता, पुरी, भुवनेश्वर। 


खुशियों का दायरा इतना सा ही था, लेकिन हर बार खाली सड़क पर, खुले आसमान के नीचे, दरख़्तों की छांव के बीच से, उगती-कटती फ़सलों से होकर अजान गांवों, कस्बों, शहरों की जो तस्वीरें चलती हुई गाड़ी से फास्ट-फॉरवर्ड मोशन में गुज़रतीं, उन्हीं से ज़ेहन में कल्पनाओं के रंग भरे जाते। सड़कों पर होना, रास्तों पर होना मेरे लिए अपने निज के सबसे करीब होने की तरह होता था, एक किस्म के मेडिटेशन की तरह। बचपन से।

फौज में रहे मेरे नानाजी अक्सर कहा करते थे, “यात्रा का मतलब ही है कष्टों की शुरुआत।“ मुझे उन कष्टों से मोहब्बत थी। सहूलियतें और आसानियां, ठहराव और स्टेटस को मुझे बहुत दुखी और परेशान करती हैं। मेरा फ़लसफ़ा ही है कि जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम...

नानी जी की बात समझ में आती है क्योंकि वे जिस पीढ़ी के थे, उस पीढ़ी के लिए गांव की सरहदें पार करना दुश्वार हुआ करता था। शहर के लिए सुबह चार बजे की इकलौती ट्रेन दस-बारह किलोमीटर दूर दरौंदा स्टेशन से जाया करती, जिसको पकड़ लेना वर्जिश से कम नहीं था। फुटबोर्ड पर अख़बार बिछाकर बैठने में कोई शर्म नहीं थी। दूसरे दर्जे में रिज़र्वेशन लेकर चढ़ना संपन्नता का प्रतीक माना जाता था।

फिर उनके बाद की पीढ़ी नौकरी और बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में शहर आकर बसने लगी। यात्रा का मतलब हर साल शहर से गांव लौटना होता था। गर्मी छुट्टियों में घूमना 'घर जाना' होता था। हम भी कई सालों तक 'घर' गए - रांची से सिवान होते हुए अपने गांव मोरवन, और अपनी ननिहाल मुबारकपुर।

दुनिया इतनी-सी ही थी। घूमना इतना-सा ही था। बाबा थोड़े घुमक्कड़ थे, इसलिए पिकनिक के नाम पर पुरी तक जा आए थे हमलोग। पापा बहुत बड़े घुमक्कड़ थे, लेकिन पूरी ज़िन्दगी जंगलों और गांवों में अकेले घूमते रहे। कुछ पेशे की मजबूरी थी, और कुछ फ़ितरत की। और कुछ ये भी डर रहा होगा कि सुकुमार बच्चे मलेरिया के मच्छर झेल पाएंगे या नहीं।

मैं जिस पीढ़ी की हूं, उसका अपना कोई गांव, कोई शहर नहीं है। गांव और शहर - घर - के नाम पर जो भी बचा-खुचा रह गया है, वो नोस्टालजिया में जाकर बस गया है। मैं जिस पीढ़ी की हूं, वो जड़ों से उखड़ी हुई पीढ़ी है। उसे किसी गांव, किसी शहर से कोई ख़ास लगाव नहीं। हमारे लिए घर वहां बसता जहां मां-बाप की पोस्टिंग होती। घर और पते, शहर और गांव अक्सर बदलते रहे।

इसलिए पूरी दुनिया हमारा घर थी, और कहीं किसी मोड़ पर चार कदम से थोड़ी सी ही और दूर साथ चल लेने वाला हमराही हमारे लिए हमारे परिवार का सदस्य बन जाता था। हमने घर महानगरों में बनाया, कटवारिया सराय की किसी बरसाती में, मुंबई के चार बंगला में किसी वन-रूम फ्लैट की पीजी में। हमारे लिए दुख-सुख में साथ रहनेवाले हमारे रूममेट्स, हमारे दोस्त थे। हमारे लिए परिवार का मतलब भी वही थी, और उन्हीं दोस्तों से हमारे बच्चे अब मामा-मौसी-बुआ-चाचा का रिश्ता निभा रहे हैं।

मुझे ठीक-ठीक याद है कि मैंने अकेले घूमना कब शुरु कर दिया था। वो ज़िन्दगी की उदासियों और नाकामियों से बचने के लिए ढूंढे जानेवाले रास्तों के दिन थे। घुमक्कड़ी के मेरे शौक (और मेरी मजबूरी) को कम उम्र में हाथ आ जाने वाली ढेर सारी सैलरी ने हवा दे दी। पांच दिन हम जम कर मेहनत किया करते और बाकी के दो दिन आस-पास के पहाड़ों की खाक छानने में गुज़ारते।

मैं कभी अकेले घूमती, कभी अपने जैसी पागल दोस्तों के साथ घूमती। उस अजनबी ग्रुप के साथ घूमती जिसे ट्रेकिंग का शौक था, और जिससे दोस्ती हो जाने की कई वजहें हुआ करती थी। पता नहीं कब ऐसा हो गया कि अपने वजूद में मौजूद घर से लगाव को नई-नई जगहों को देखने के रोमांच ने रिप्लेस कर दिया।
वो घुमक्कड़ी अलग किस्म की थी। ट्रेन के स्लीपर क्लास में बैठकर नए शहरों की तलाश, शहर में कैंपनुमा ठिकानों की खोज और पैदल या रिक्शे या तांगे पर बैठकर नई गलियों की खोज। सफ़र करने का मतलब दस-बारह किलोमीटर ट्रेक करके किसी दुरूह पहाड़ी की बर्फीली चोटी देख आना होता था, सफ़र करने का मतलब अंधेरे जंगलों में ट्रेकिंग और रियल ट्रेज़र-हंट, रॉक-क्लाइम्बिंग, रैपलिंग, कयाकिंग, बोटिंग जैसी फिज़िकल और बेहद थका देनेवाली एक्टिविटिज़ होतीं। 


सफ़र करने का मतलब कम बजट में मिलनेवाला ढेर सारा थ्रिल होता। सफ़र करने का मतलब अजमेर शरीफ़ की दरगाह पर अकेले बैठकर कव्वाली सुनना होता, श्रीनगर के लाल चौक पर खड़े होकर जली हुई इमारतों से झांकती खिड़कियों के पीछे की ज़िन्दगियों की कल्पना करना होता। 

ऐसे खूब घुमक्कड़ी की मैंने। खूब दोस्त बनाए। वेलेंक्कनी चर्च के बाहर मिल गई स्टीफेन आंटी को सालों तक ख़त लिखे, मुक्तेश्वर के पास के एक गांव में प्रकाश के घर खाए राजमा-चावल का स्वाद महीनों तक याद रखा। बुरूस के सूखे फूलों और गोआ की रेत को छोट-छोटे बक्सों में बचाए रखा। 


ऐसा नहीं कि सिर्फ मधुर स्मृतियों ही मिलीं, लेकिन रास्ते में मिलनेवाली चुनौतियों और लोगों की हैरानी भरी नज़रों को अनदेखा करना कम उम्र में ही सीख लिया। मेरी घुमक्कड़ी ने मुझे आज़ाद बनाया और वो हिम्मत दी जो एक मध्यवर्गीय परिवार की छोटे शहर की लड़की को आमतौर पर संस्कारों में नहीं दिया जाता।

फिर शादी और जीवन साथी ने घुमक्कड़ी थोड़ी सोफिस्टिकेटेड कर दी। बिना किसी प्लानिंग के दो कदम न चलने वाले पति घूमने भी जाते तो पूरी तैयारी के साथ। अच्छे रिसॉर्ट में रहना, अच्छा खाना और ढंग की गाड़ी। मेरी किसी आउटडोर एक्टिविटी और नई-नई जगहों को देख लेने के शौक में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। हममें एक ही चीज़ कॉमन थी, हम खूब पैदल चलते थे, हालांकि हमारी चाल, रास्ते और मंज़िल तीनों अलग-अलग होते।धीरे-धीरे हमने एक-दूसरे की घुमक्कड़ी के तरीकों के साथ समझौता करना सीख लिया, और अलग-अलग घूमने की वजहें और मौके तलाशने लगे - बिना किसी दुविधा या शिकायत के, बहुत सारी आपसी समझ और हामियों के साथ।

बच्चों ने मेरी घुमक्कड़ी को एक नया आयाम दिया है। छोटे बच्चों को लेकर भी मैं ख़ूब घूमी हूं। साथ में बारह-चौदह बोतलें, एक छोटा स्टेरेलाइज़र, सेरेलैक और दूध का डिब्बा, गर्म पानी की थर्मस, डायपर्स, बेबी वाइप्स और पुराने अख़बार होते। और साथ में कोई एक सहयात्री, जो पति से लेकर बच्चों के नाना-नानी, दादी-दादी और उनकी आया तक में से कोई भी हो सकता था।

बच्चे बड़े हो गए हैं और घुमक्कड़ी और बढ़ गई है। पहले थ्रिल मकसद था, अब बच्चों को देश-दुनिया दिखाना है। लोग दो बच्चों के साथ सफ़र पर निकली एक मां को देखकर अभी भी हैरान होते हैं। लेकिन उनकी इस हैरानी को मैं अपनी उपलब्धि ही मानती हूं। मैं और बच्चे सफ़र पर अपने मनमुताबिक साथी भी खोज लेते हैं – कोई हमउम्र दोस्त, कोई हमउम्र मां, कोई भलमानस ऑटोवाला, कोई अच्छा रिसॉर्ट मैनेजर...


मुझे इस बात का पक्का यकीन है कि हम सफ़र पर ही अपने असली रूप में होते हैं, बिना किसी दिखावे और मिलावट के। हमारा सब्र, हमारा असली स्वभाव और हमारी अनुकूलनशीलता का पता दरअसल सफ़र पर ही चलता है। जब हम घूम रहे होते हैं तो हम आंखें खुली रखते हैं और सफ़र ज़िन्दगी को लेकर हमारे कई मुगालते दूर करता है, हमें बेहतर इंसान बनाता है।
 

सफ़र करना हमें अपने इन्सटिन्क्ट पर, हमारे सिक्स्थ सेंस पर हमें भरोसा करना सिखाता है। सफ़र हमें दूसरों पर, यूनिवर्स की अदृश्य ताकतों पर भी यकीन करना सिखाता है। मैं नहीं जानती कि बड़े होने पर बच्चों के लिए घर लौटने का मतलब क्या होगा। मैं ये ज़रूर जानती हूं कि उनके लिए घुमक्ड़ी और सफ़र का मतलब ढेर सारी हैरत, हिम्मत, धैर्य और बाहर की दुनिया को खुद में आत्मसात करने की ताक़त होगा।

कुछ भी कर सकने का मेरा ये जज्बा मेरी घुमक्कड़ी की देन है, और अगर कोई दो चीज़ें हों जो मैं अपने बच्चों को दे सकूं तो वो घुमक्कड़ी का शौक और ये जज्बा है। 


In other news, घुमंतू मां की प्लानिंग पूरी हो गई है। हम अगस्त का एक वीकेंड हिमाचल के एक छोटे से पहाड़ पर, सितंबर का एक वीकेंड उत्तरांचल के एक छोटे से पहाड़ पर, अक्टूबर का एक वीकेंड पूर्णिया और दूसरा वीकेंड सिवान में, नवंबर का एक वीकेंड रामेश्वरम और पॉन्डिचेरी में और दिसंबर की छुट्टियां बंगाल और उड़ीसा में काटने की ख़्वाहिश रखते हैं।

डियर यूनिवर्स, हमारी इन ख़्वाहिशों को आपकी डायरी में दर्ज किया जाए!

वैसे एक और फैंटेसी भी है - ज़मीर फ़िल्म में अमिताभ बच्चन के स्टाईल में गिटार लेकर घूमते हुए गाना - 


चले हैं दूर हम दीवाने 
कोई रसीला सा, बांका सजीला सा यार मिले तो रुक जाएं 

ध्यान से सुनिए तो साहिर लुधियानवी के बोलों के मानी घुमक्कड़ी के सबसे दिलचस्प फ़लसफ़े के कम नहीं। 

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत खूब अनु जी।
शुक्रिया कहीं खोये हुए घुमक्कड़ को जगाने के लिए।
मैं भी चला.....
अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा।

Unknown ने कहा…

Plzz change ur fonts colour.. grey to black

Rahul Singh ने कहा…

तीर्थ नहीं है केवल यात्रा,
लक्ष्‍य नहीं है केवल पथ ही...

Navneet's Tea House Chit-Chat ने कहा…

बहुत हीं अच्छा