रक्षा बंधन का त्यौहार दुनिया भर की बहनों की तरह मेरे लिए भी बहुत ख़ास है। इसलिए भी क्योंकि इस एक दिन हम उस एक रिश्ते का जश्न मनाते हैं जो परिवार की धुरी होता है। भाई और बहन (या बहन और बहन) का रिश्ता सिर्फ़ एक नहीं, कई परिवारों को जोड़ता है। सबसे पहले तो उस परिवार को, जिसमें दोनों पैदा हुए हैं। फिर उन परिवारों को, जो वे बसाते हैं। भाई और बहन के रिश्ते की नींव मज़बूत हो तो धीरे-धीरे उनके इर्द-गिर्द बनते और रिश्तों की दीवारें अपने-आप मज़बूत होने लगती हैं और रिश्तों को मज़बूत करने का काम सिर्फ़ रक्षा बंधन के बहाने नहीं होता। रिश्तों को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी जितनी बहन की होती है, उतनी ही भाई की भी होती है।
दरअसल अब भाई और बहन के रिश्ते में - बल्कि परिवार में भी - ज़िम्मेदारियों की परिभाषाएँ बदलने लगी हैं। आज से कुछ साल पहले तक बेटे से उम्मीद की जाती थी कि वो परिवार की तमाम ज़िम्मेदारियाँ संभाले। बेटियों को पराया धन मानते हुए उन्हें ब्याह दिया जाना परिवार का इकलौता मकसद होता था। ससुराल से मायके आई बेटी को अतिथि समझा जाता था और बेटी के पति पाहुन होते थे - मेहमान। लेकिन पिछले कुछ सालों में हिंदुस्तानी समाज की ये धारणा कुछ ज़रूरत, और कुछ बदलते हुए सामाजिक परिवेश की वजह से बहुत बदली है। बेटियाँ न सिर्फ़ अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं बल्कि परिवार चलाने में, अपने बुज़ुर्ग माँ-बाप की सेवा करने में, अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई और परिवार की तमाम ज़रूरतों को पूरी करने में वैसे ही मशगूल हैं जैसे उनके भाई होते हैं। जब परिवार में बेटियों की जगह और ज़िम्मेदारी बदली है तो रक्षा बंधन जैसे त्यौहार के मौके पर उस बदली हुई जगह और ज़िम्मेदारी को पूरा सम्मान क्यों न दिया जाए?
मेरी निजी राय ये भी है कि रक्षा बंधन को मनाने का तरीका बदलेगा तो बेटियों को इज्ज़त देने का तरीका भी बदलेगा। बहन की बेचारगी से जुड़ी जो दंतकथाएं सुनते हुए हम बड़े हुए, उन्हें बदलकर नई कहानियाँ लिखे जाने की अब सख़्त ज़रूरत है। इन कहानियों की नायिकाएं नरेन्द्र कोहली की जिज्जी जैसे किरदार हों तो कितना अच्छा हो! इन कहानियों में अपने भाई के हक़ के लिए लड़ती बहनों के किरदार हों तो कितना अच्छा हो! इन कहानियों में वैसी बेटियाँ हों तो कितना अच्छा हो कि जिन्हें पिता के प्यार के साथ-साथ उनकी संपत्ति में भी बराबर की हिस्सेदारी मिली। इन कहानियों में अपनी बहनों को स्कूल या कॉलेज भेजने के लिए लड़ते भाई और बहन हों तो कितना अच्छा हो! मेरी नज़र में रक्षा बंधन को नए तरीके से मनाए जाने की ज़रूरत इसलिए भी है क्योंकि समाज में बेटियों को बराबरी का अधिकार तबतक नहीं मिल सकता जबतक हमारी परंपराओं और संस्कारों में उन्हें वो अधिकार न दिया जाए। रक्षा बंधन के मौके पर भाई के हाथ पर राखी बाँधती आज की बहन कमज़ोर और निरीह बिल्कुल नहीं है। उस बहन को रक्षा के झूठे दिखावे की नहीं, बराबर के प्यार और अधिकार की सच्चे वायदे की ज़रूरत है।
राखी हम अभी भी मनाते हैं और उतने ही प्यार से। लेकिन मुझे ये कहने में बिल्कुल हिचक नहीं कि मेरे भाई मुझसे बेहतर पूड़ियाँ और खीर बनाते हैं और मैं उनसे हथेली पर महंगे तोहफ़े रखने की उम्मीद बिल्कुल नहीं करती। परिवार और रिश्ते वो साझा ज़िम्मेदारी है जो हम सब आपसी समझ से आपस से बड़े प्यार से बाँटते और निभाते हैं। फिर हम सबने एक-दूसरे के हाथों पर राखी के धागे बाँधकर उस रिश्ते और ज़िम्मेदारी को और पुख़्ता बनाने की ओर एक क़दम ही तो बढ़ा लिया है। इसके अलावा, अगर मैं ये कोशिश करती हूँ कि मेरे बेटे और बेटी की परवरिश में मैं कोई अंतर नहीं करूँगी तो उनके दिए गए संस्कारों में, उनके साथ मनाए जा रहे त्यौहारों में ये बात परिलक्षित होनी चाहिए। अबकी साल राखी में जितना संजीदा और ईमानदारी वायदा मैं अपने भाई, अपने बेटे से अपने और अपनी बेटी के लिए लूँगी उतना ही ईमानदार वायदा उनकी ज़रूरतों में, उनके मुश्किल दिनों में, उनकी ज़िम्मेदारियों में उनके साथ खड़े होने का मैं भी करूँगी। अगर अधिकार बराबरी का होगा तो ज़िम्मेदारियाँ भी बराबरी की होंगी। आपकी क्या राय है इस बारे में?
(१० अगस्त २०१४ को 'प्रभात ख़बर' की पत्रिका 'फ़ैमिली' में प्रकाशित। http://epaper.prabhatkhabar.com/318383/Faimly/Family#dual/2/1)
2 टिप्पणियां:
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (15.08.2014) को "विजयी विश्वतिरंगा प्यारा " (चर्चा अंक-1706)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
भाव पवित् हों तो---रिश्तों की पहचान सही हो ही जाती है.
सुंदर आलेख
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