यूँ लगा कि जैसे अगर ठीक इसी वक़्त इस पन्ने पर अनाप-शनाप लिखा नहीं तो सुबह से आगे बढ़ने की गुज़ारिश करना नामुमकिन हो जाएगा। कई बार गिरहों को खोलकर बंदिशों के बग़ैर अपने भीतर का गर्द-ओ-गुबार निकलने देने की ज़रूरत ज़िन्दगी की तमाम ज़रूरतों से बड़ी बन जाती है।
मैं उसी मुकाम पर आ पहुँची हूँ जहाँ खुलकर बेमकसद लिख पाना किसी और ज़रूरत से ज़्यादा बड़ी ज़रूरत बन गया है।
मैं लिखने का काम करती हूँ। महीने (या तीन महीने) के आख़िर में आने वाले पैसे उसी लिखाई (या लिखने से जुड़े और कामों) से आते हैं। दिन के आठ-दस घंटे अलग-अलग फॉर्मैट्स में लिखना, अनुवाद करना या एडिट करना ही मेरा काम है, और मैंने ऐसी ही किसी ज़िन्दगी की ख़्वाहिश की होगी क्योंकि मेरी ख़्वाहिशें पूरी करने के मामले में ख़ुदा उस्ताद है। मेरी कोई दुआ अनसुनी नहीं छोड़ता। इसलिए ये दुआ कि दिन भर लिखती रहूँ, बड़े प्यार से क़ुबूल हो गई।
ये और बात है कि मैं अब उकताने लगी हूँ। फ़ितरत ही कहिए कि उकता जाना सबसे आसान लगता है।
लिखती तो हूँ, लेकिन क्या... ये मालूम नहीं। इस लिखे हुए का हासिल भी क्या, ये मालूम नहीं।
लोग कहते थे कि पोर्टफोलियो बड़ा करने के लिए लिखो। तो किया।
फिर लगा कि लिखना ही काम है, और काम मन लगाकर करना चाहिए। इसलिए भी किया।
फिर लगा कि काम करने से ही गुज़ारा चलता है, इसलिए लिखती रही।
लेकिन अब ऊब होने लगी है।
इसी ब्लॉग पर बेख़्याली में भरे गए पन्ने - अपना ही लिखा हुआ - देखती हूँ तो यकीन नहीं होता। उन दिनों मैं क्या खा-पी रही थी? उन दिनों के कैसे दुख थे कि इतना लिखा, और बिना किसी हासिल की उम्मीद के लिखा? मुझे तब किसी असाइनमेंट की उम्मीद नहीं थी। मैं मशहूर होने के लिए भी नहीं लिख रही थी। तब लिखने का मक़सद किसी को इम्प्रेस करना भी नहीं था। मेरे लिखे हुए के बारे में दुनिया क्या सोचती है, लोग मुझे किस निगाह से देखते हैं, लिखकर मैं कितने दोस्त बनाऊँगी और कितने दुश्मन - ये भी नहीं सोच रही थी तब। लिखने का मकसद अपना गुज़ारा चलाना भी नहीं था। लिखने का मकसद कहीं छपना, किसी दिन किताब या फिल्म लिख देना - कुछ भी नहीं था।
जब कोई मकसद ही नहीं था तो मैं क्यों लिख रही थी तब?
चार्ल्स बुकोस्की की कविता का वरुण ग्रोवर का किया अनुवाद याद आ रहा है -
अगर फूट के ना निकले
बिना किसी वजह के
मत लिखो।
अगर बिना पूछे-बताये ना बरस पड़े,
तुम्हारे दिल और दिमाग़
और जुबां और पेट से
मत लिखो।
वो दिन कुछ ऐसे ही थे कि लिखना ही ख़ुद को बचाए रखने का इकलौता रास्ता था। इसलिए लिखना ज़रूरी था, और जब लिखना शुरु किया तो अंदर का सोता ऐसे खुला था कि जैसे सबकुछ बहा ले जाने पर आमादा हो।
अब ऐसा लगने लगा है कि बहुत बह चुकी हूँ, और बहते-बहते ठहर गई हूँ। कहाँ गई वो भीतर की पहाड़ी नदी जो पत्थरों को चूमती हुई निकलती थी तो भी ज़ोर-ज़ोर से गीत गाती थी? कहाँ गया वो भीतर का रेगिस्तान जिसके धोरों पर अपनी ही बारिशें गिरा करती थीं मुसलसल? कहाँ गए वो लोग जो एक बाएं हाथ की उंगलियों पर गिने जा सकते थे, लेकिन जिनकी चिट्ठियों से अपने ही बेचैन शब्दों की ख़ुशबूएँ आया करती थीं?
सुनो कि कोई बात है नहीं कहने को, इसलिए मत लिखो।
अपनी ही ग़ुमख़्याली की वजहें मालूम नहीं, न उनके इलाज का सबब है कोई। इसलिए, मत लिखो।
यहाँ से उठते ही तुम्हारा ध्यान टू-डू लिस्ट की लिखाई और उसकी ज़रूरतों पर जाएगा, इसलिए जाने दो। मत लिखो।
तुम्हारे ब्लॉग पर आने वालों की ट्रैफ़िक तुम्हारे बारे में अब एक मुक़म्मल राय बना चुकी है, इसलिए मत लिखो।
तुम्हारी एक किताब आ चुकी है, इसलिए अब आगे बिल्कुल मत लिखो।
तुम एक सेल्फ-प्रोक्लेम्ड राईटर हो चुकी है, इसलिए अब तो बिल्कुल बिल्कुल बिल्कुल मत लिखो।
मत लिखो अनु सिंह। अब बिल्कुल मत लिखो।
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इस सुबह के मुहाने से निकलकर दिन के समंदर में मिलने के लिए बना जो रास्ता मुझे दिखाई दे रहा है वो यहाँ से बहुत ठहरा हुआ दिखता है।
अच्छा है कि सफ़ीनों की मंज़िलें दरिया हुआ करती है, एक ठहरी हुई उदास नदी नहीं।
5 टिप्पणियां:
हाँ, मत लिखो अनु सिंह, कम से कम ब्लॉग पर तो बिलकुल नहीं... हिंदी ब्लॉग जगत वैसे भी सूना सा लगता है.
वीरान कर दो इसे अनु सिंह !
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति पर निखाना न छोड़ियेगा
फिर हम क्या पढेंगे |
bahut badhiya hai anu ji.......maine bhi ek prayas prarambh kiya hai kripya visit zarur karen... www.Dhundhliyaaden.blogspot.com
आजकल बिलकुल यही हाल अपना है. जब से लिखना काम बन गया है, लिखने से भी ऊब होने लगी है.
सुंदर प्रस्तुति...
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