दिग्गी पैलेस में साहित्योत्सव की पहली सुबह माहौल कैसा था, मैं उससे शुरु करना चाहती थी अपनी बात। लेकिन अब मैं ख़ुद को पैलेस एन्ट्रेन्स पर लगी उलटी छतरियों में से एक महसूस करने लगी हूं, जो यूं तो इस्तेमाल में लाए जाएं तो बड़े काम के होते हैं, लेकिन भीड़ में सजावटी पीस के तौर पर टांग दिए जाएं तो उनकी ज़रूरत ख़त्म हो जाती है। :-) पहले ही दिन इतनी भीड़, कि भीड़ में लिखनेवाले भी लापता, सुननेवाले भी। फिर भी भीड़ में कुछ ख़ास आवाज़ें अपनी बात कानों और ज़ेहन में छोड़ जाती हैं।
यूं तो इस तरह के आयोजनों के उद्घाटन समारोहों में दीए जलाने के बाद मुख्य अतिथि की बात में ग़ौर करनेवाली कोई दमदार बात नहीं होती, लेकिन यदि मुख्य अतिथि महामहिम माग्रेट अल्वा जैसी कोई शख़्सियत हो, माफ़ कीजिएगा - कोई महिला शख़्सियत हो - तो लोकतंत्र (democracy), संवाद (dialogues), साहित्य (literature), लिंग समानता (gender equality), महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार (atrocities against women) और यौन शोषण (rape and molestation) जैसे शब्द एक ही सांस में, एक ही वाक्य में सुनने को मिलता है। जिस साहित्योत्सव में 'Women Interrupted' और 'Crime and Punishment' पर बा़क़ायदा सीरिज़ में बातचीत होनी हो, उस आयोजन के उद्घाटन मंच पर ही ये चर्चा खोलना लाज़िमी हो जाता है। तब ये उम्मीद बंधती है कि अगले पांच दिनों में इन विमर्शों और संवादों के ज़रिए सर्जनात्मक दिशा में बढ़ा जा सकता है।
प्रोफेसर अमर्त्य सेन की नोट अड्रेस के लिए मंच पर आते हैं तो तालियों की जैसी गड़गड़ाहट उनका स्वागत करती है, उससे अंदाज़ा लग जाता है कि intellect का अपने किस्म का स्टारडम, अपने किस्म का प्रभामंडल होता है।
"A wish a day a week for my country" - अपने देश के लिए हर रोज़ की एक ख़्वाहिश... एक प्रार्थना... कुछ ख़्वाहिशें सरहदों की मोहताज नहीं होतीं। कुछ ख़्वाहिशें सार्वलौकिक होती हैं, और इन्हीं निःस्वार्थ के दम पर तमाम नाउम्मिदियों के बीच दुनिया टिकी है शायद।
बहरहाल, गूगल करते ही आपको न सिर्फ प्रोफेसर सेन के भाषण का टेक्स्ट, बल्कि वीडियो भी मिल जाएगा, इसलिए मैं बहुत कुछ जोड़ना नहीं चाहती। लेकिन प्रोफेसर सेन ने अपनी ये सातों wishes जिस आसानी, विवेक और चातुर्य के साथ अपनी देवी 'जीएमटी' के साथ श्रोताओं के सामने पेश की हैं, वो इस भाषण को मेरे ज़ेहन में इतना ही ख़ास बना देता है कि मैं भविष्य में अपने बच्चों को भी इसे सुनना चाहूंगी, ख़ासकर इसलिए क्योंकि पहली ही विश में उन्होंने अपने देश में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी शिक्षा की मज़बूती मांग ली। कमाल है कि जहां विज्ञान और तकनीक विकास की ज़रूरत कहा जाता है, वहां एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री और चिंतक ह्यूमैनिटिज़ पढ़ने की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहा है। बाद में बच्चों को बताने के लिए मैंने ये बात ख़ासतौर पर अपने दिमाग में नोट कर ली है। बाकी के छह 'wishes' राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक सरोकारों से जुड़े हैं। आख़िरी विश मीडिया के ज़िम्मेदारी पर भी है। उम्मीद ये कि मीडिया ग्लैमर और चमक-दमक के अलावा वास्तविक भारत और असली मुद्दों को उठाए, और मकसद हंगामाख़ेज़ तरीके से नहीं। (आख़िर में जिस 'सोशल मीडिया' के प्रभाव की डॉ सेन ने बात की, उस सोशल मीडिया ने दुर्भाग्य से दिन ख़त्म होते-होते तक अपना असर दिखा दिया था - सुनंदा पुष्कर की मौत की ख़बर के रूप में।) ख़ैर, डॉ सेन की एक और बात मैंने अपने और अपने बच्चों के लिए गांठ बांध ली है - किताबें पढ़ने की ज़रूरत पर। शायद यही किताबें हमें बेहतर इंसान बना पाएं...
हर साल की तरह साहित्योत्सव में वक्ताओं का पैनल इतनी ही विविध है कि काग़ज़-कलम लेकर बैठना पड़ा है - क्या सुनें, क्या छोड़ें। मैंने फिलहाल जहां क़दम ले जाएं, उस ओर चलने का फ़ैसला कर लिया है, और सबसे पहला सेशन हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि है जिसमें महमूद फ़ारूख़ी, पीयूष दईया और गीतांजलि श्री बैठे हैं।
हबीब तनवीर की एक याद मेरे ज़ेहन में भी है। साल था 1998। मैं कॉलेज में थी अभी। बैकस्टेज होने की अपनी आदत से मजबूर मैं एक ख़ास कार्यक्रम में वॉलन्टियर कर रही थी। हबीब तनवीर अपना प्रोडक्शन लेकर लेडी श्रीराम कॉलेज आए थे, और मेरा काम उन्हें 'usher' करना था। नाटक बर्टोल्ट ब्रेख़्त के "The Caucasian Chalk Circle' का हिंदी रूपांतरण था, और ईमानदारी से कहूं तो मुझे याद नहीं कि नाटक का नाम क्या था (मैंने गूगल करके देखने की कोशिश भी नहीं की)। मेरी समझ इतनी विकसित नहीं हुई थी जो रंगमंच के शिखरपुरुष से कुछ 'intelligent' संवाद कर पाता। फिर मेरे मन में पूरा नाटक न देख पाने का अफ़सोस भी था, हालांकि शायद मैंने पूरा नाटक रन-थ्रू के दौरान देखा था। ख़ैर, तनवीर साब से बात करने की ख़ुशकिस्मती मिली, उसकी क़ीमत कई सालों के बाद समझ में आई। 'मुझे कम बोलनेवाले लोग पसंद नहीं हैं,' तनवीर साब ने कहा था। मैं उन्हें क्या बताती कि मैं चुप क्यों थी। डर था कि मेरी अज्ञानता पकड़ी जाएगी, (और ऐसी मुश्किल परिस्थिति में अपने काम से काम रखनी की ट्रेनिंग का ख़ामियाज़ा उस दिन के बाद कई और मौकों पर भुगतना पड़ा है मुझे।)
हबीब तनवीर की उम्र सत्तर के पार रही होगी शायद, लेकिन उनकी ऊर्जा सामनेवाले को थका देने के लिए काफी थी। मुझे याद है कि उनके साथ उनकी सहूलियत का ख्याल रखने का जो काम मुझे सौंपा गया था, उस काम ने मुझे इतना थका दिया था कि हॉस्टल में कॉम्बिफ्लैम खाकर सोना पड़ा था वापस जाकर। पल में स्टेज के पीछे, पल में मेकअप रूम में और पल में लाइट्स का मुआयना करने के लिए पहली मंज़िल पर...
उसी ऊर्जा को शायद महमूद फ़ारूखी ने उनके संस्मरण का उर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद करते हुए महसूस किया होगा, क्योंकि किताब से एक हिस्सा पढ़ते हुए, हबीब तनवीर पर बात करते हुए उनमें भी उतनी ही ऊर्जा, उतना ही जोश था। तफ़्सील से कही हर बात को उतनी ही तफ़्सील से रिकॉर्ड करना मुमकिन नहीं होता, लेकिन जिन संस्मरणों, यादों, किरदारों, बातों के ज़रिए हबीब तनवीर की शख़्सियत को और जानने का मौका मिला इस सत्र के दौरान, उन बातों ने हबीब तनवीर से मुलाक़ात के उस एक मौके को अपनी अज्ञानता में बेजां गंवा देने के अफ़सोस को ज़रूर और बढ़ा दिया।
बिज्जी को श्रद्धांजलि के अगले सत्र में बैठी मैं। इस सत्र में जाने भीड़ विजयदान देथा को नमन देने के लिए जमा हुई थी या इरफान ख़ान को देखने के लिए, लेकिन 'बीज जैसी पुरानी, फल जैसी नई' कहानियां लिखने वाले बिज्जी को और पढ़ने का कौहहातूहल मुझमें तो शायद न जागता अगर मैंने महमूद फ़ारूखी को उनकी कहानी 'चौबोली' सुनाते न सुना होता। कई बार अपनी अज्ञानता और तंग समझ को दूर करने के लिए ऐसे ही किसी catalyst की ज़रूरत पड़ती है।
मैं डॉ नरेन्द्र कोहली के साथ वर्तिका नंदा की 'महासमर' पर बातचीत के अगले सत्र की बातचीत से पहले डॉ कोहली से अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखना चाहती थी, लेकिन कहीं मुझे pretentious और फेंकू न मान लिया जाए, इसलिए उसके बारे में फिर कभी लिखूंगी। :-)
मैं वर्तिका की बातचीत करने की शैली की कायल हूं। वे बहुत तैयारी के साथ मंच पर होती हैं, और बड़े आराम से, बहुत सोच-समझकर चुने गए शब्दों से सजे सवाल पेश करती हैं। जितना मज़ा वक्ता को सुनने में आता है, उतना ही मज़ा उनके सवालों को सुनने में आता है। वर्तिका के सवाल सवाल नहीं होते, अपने आप में मुकम्मल Insights और comments होते हैं। 'महासमर' की प्रासंगिकता पर सीधा सवाल पूछने की बजाए उन्होंने आज की राजनीति में कृष्ण और पांडवों की जिस ज़रूरत को जिस ख़ूबसूरती से पूछा उतनी सहजता से डॉ कोहली उस सवाल से बचकर निकल गए। हालांकि डॉ कोहली ने आख़िर में ये स्वीकार किया कि कोई भी लेखक अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता। ये बात चर्चा में कई बार आई, इस सवाल के जवाब में भी कि उन्हें महाभारत या रामायण पर आधारित रचनाएं करने की प्रेरणा कहां से मिली? इसके जवाब में डॉ कोहली ने एक किस्सा उद्धृत किया, जो समाज में 'धर्म' और 'अनासक्त राजा' की वापसी की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
साहित्योत्सव के आख़िरी सत्रों में से एक 'आक्रोश' में हाशिए पर जीनेवाले लोगों से जुड़े साहित्य पर चर्चा के लिए नीरव पटेल और हरिराम मीणा के साथ महमूद फ़ारूखी और इरफान खान बैठे तो फ्रंट लॉन्स में खड़े होने की जगह तक नहीं थी। फ़ारूखी ने चुटकी लेते हुए कहा भी कि इरफान की मौजूदगी ने जिस भीड़ को यहां इकट्ठा किया है, वो भीड़ शायद इस सत्र से और enlightened होकर लौटे।
सच कहूं तो दलित और आदिवासी साहित्य पर मेरी अपनी समझ शून्य है (बल्कि आज पहले ही दिन मुझे अहसास हो गया कि मैं कितना कम जानती हूं, कितना कम पढ़ा है मैंने!) लेकिन हरिराम मीणा की इस बात से मैं पूरी तरह इत्तिफाक रखती हूं कि आदिवासियों को हम हमेशा एक रंगीन चश्मे से देखते हैं - या तो उन्हें बर्बर मान लिया जाता है, या फिर राज कपूर की फिल्मों में झींगालाला करते हुए प्रकृति की गोद में हंसते-गाते लोगों की रोमांटिक छवि में स्टीरियोटाईप कर दिया जाता है। मैं झारखंड में पली-बढ़ी, इसलिए मीणा साहब की बात शायद बेहतर तरीके से समझ पाई कि आदिवासियों को लेकर जो संकुचित दृष्टिकोण है, उसे बदलने की ज़रूरत है और उनपर सहूलियतें थोपने से पहले उनका विश्वास जीतना होगा। इरफान ने ओमप्रकाश बाल्मिकी दो कविताएं भी पढ़ीं - 'ठाकुर का कुंआ' और 'सदियों का संताप'। सिनेमा से गायब इन कहानियों पर बोलते हुए इरफान ने वो कड़वा सच बयां किया जो हम सब जानते हैं - सिनेमा सपनों का सिनेमा होता है, यथार्थ से दूर ले जाने का सिनेमा होता है।
आज का दिन ख़त्म हुआ लेकिन एक बात जो मेरी समझ में आई है वो ये है कि अपना नज़रिया single dimensional नहीं रखा जा सकता। रचनात्मकता का मतलब पैनी नज़र रखना तो है ही, लेकिन अपनी नज़र को टेढ़ी बनाए रखना भी है (ये बात दरअसल हबीब तनवीर के संदर्भ में किसी वक्ता ने भी कही थी, लेकिन फिलहाल याद नहीं आ रहा कि किसने कही थी - शायद महमूद फ़ारूखी ने।)
और जाते-जाते ये भी सुन जाईए कि कल कैसा faux pax, कितनी बड़ी बेवकूफी की है हमने। क्लार्क्स आमेर से होटल लौटते हुए हमें जो गाड़ी दी गई, उसमें सामने एक विदेशी बैठे थे। हम तीन महिलाएं पिछली सीट पर जा बैठीं, और महिलाओं के स्टीरियोटाईप्ड छवि को अकाट्य सत्य साबित करते हुए अपनी फुसफुसाहटों में लग गईं। होश तक न रहा कि सामने बैठे सज्जन से कुछ बात भी की जाए। हममें से कोई ख़ैर उन्हें वैसे भी नहीं पहचानता था। आज सुबह अख़बार देखा तो समझ में आया कि हमें आधे घंटे के लिए जोनथन फ्रान्ज़न के साथ सफ़र करने का मौका मिला, और अपनी बेवकूफी में हमने वो मौका गंवा दिया। (जोनथन इस सदी के सबसे बड़े अमरिकी उपन्यासकारों में एक गिने जाते हैं, और आपने बिल्कुल सही अंदाज़ा लगाया - इस कम पढ़ी-लिखी बदबख़्त औरत ने उन्हें भी नहीं पढ़ा, सिर्फ उनके interviews पढ़े हैं)।
कहने का मतलब कि हबीब तनवीर से लेकर डॉ कोहली, और अब जोनथन फ्रैन्ज़न - लेकिन चिकना घड़ा तो ख़ैर हर हाल में चिकना ही रहेगा न...। न टेढ़ी, न पैनी - मेरी सीधी और घोड़े की तरह पट्टियां (blinkers) लगी हुई नज़र मुझे कहीं नहीं ले जा सकती। ख़ैर, ये अफसोस फिर और कभी...
5 टिप्पणियां:
जीवंत प्रसारण रोचक है।
महादीपों के साथ रहने भर से मन में प्रकाश भर जाता है, आपको शुभकामनायें, निर्भय बातें करें।
"कम पढ़ी-लिखी बदबख़्त औरत" का चकाचक रिपोर्टिंग!
्बहुत बढिया कवरेज़ चल रही है वैसे आप ही की कैटेगरी में हम भी शामिल हैं ना ज्यादा किसी को पढा ना पहचानते और यदि हमें भी कोई शख्सियत इस तरह मिल जाये तो यही हाल हमारा भी होना है और होता है :)
बहुत सुन्दर , विशद, रोचक एवं तथ्यात्मक विवरण , मानो स्वयं वहां घूम आये .. आभार आपका ..
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